भारतीय संस्कृति स्त्री को दबाती है – सांस्कृतिक मार्क्सवाद का सबसे बड़ा झूठ

07 Sep 2025 16:07:28

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डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी बौद्धिक विमर्श का सबसे बड़ा आरोप यह रहा है कि यह स्त्रियों को दबाती है और उनकी स्वतंत्रता को बाधित करती है। यह आरोप प्रायः पश्चिमी नारीवाद और सांस्कृतिक मार्क्सवाद से प्रेरित है, जहाँ स्त्री और पुरुष को शाश्वत संघर्ष के रूप में देखा जाता है।
 
किन्तु वास्तविकता यह है कि भारतीय संस्कृति ने सदैव स्त्री को शक्ति, ज्ञान और सृजन का केंद्र माना है। वेदों से लेकर आधुनिक भारत तक, स्त्री ने समान रूप से सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन को दिशा दी है।
 
वैदिक काल में स्त्री की स्थिति
ऋग्वेद (10/85/26) : “सम्राज्ञी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्वशुरामृधे।”
अर्थात विवाह के समय वधू को घर की सम्राज्ञी कहा गया।
अथर्ववेद (14/1/20) : “सा त्वं मित्रेषु वरुणेषु राज्ञी भव।”
अर्थात स्त्री को केवल गृहस्थी तक सीमित नहीं, बल्कि समाज में राज्ञी की उपाधि दी गई।
गार्गी और मैत्रेयी के संवाद (बृहदारण्यक उपनिषद) इस तथ्य के प्रमाण हैं कि स्त्रियाँ ब्रह्मवादिनी बनकर गहन दार्शनिक विमर्श करती थीं। घोषा और अपाला जैसी ऋषिकाओं ने ऋग्वेद में मंत्र रचे। यह दर्शाता है कि स्त्री भारतीय संस्कृति में शिक्षित, स्वतंत्र और निर्णायक भूमिका निभाने वाली रही है।
 
महाकाव्य और पुराणों में स्त्री का आदर्श
* रामायण में सीता केवल पत्नी नहीं, बल्कि धर्म और न्याय की धुरी हैं।
* महाभारत की द्रौपदी ने अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध खड़ा कर धर्मयुद्ध की भूमि तैयार की।
* मनुस्मृति कहती है – “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।”
अर्थात जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवताओं का वास होता है।
* देवी महात्म्य में दुर्गा को असुर-विनाशिनी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।
भारतीय परंपरा में स्त्री केवल गृहलक्ष्मी नहीं, बल्कि धर्म, शक्ति और ज्ञान की अधिष्ठात्री है।
 
भक्ति आंदोलन और स्त्री चेतना
भक्ति काल ने स्त्रियों को आत्म-अभिव्यक्ति और आध्यात्मिक स्वतंत्रता का अवसर दिया।
* मीरा बाई : “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।” यह पंक्ति स्त्री की आत्मनिर्णय क्षमता को दर्शाती है।
* अक्का महादेवी : उन्होंने सांसारिक बंधनों को तोड़कर शिव भक्ति को चुना।
* ललदेव (कश्मीर) : सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए अपनी कविता से स्त्री चेतना जगाई।
यह सिद्ध करता है कि भारतीय समाज ने सदियों तक स्त्रियों को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता दी।
 
आधुनिक भारत में स्त्री का योगदान
औपनिवेशिक काल और स्वतंत्र भारत में स्त्रियों ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई।
* अहिल्याबाई होल्कर : शासन और धर्म संरक्षण का आदर्श।
* रानी लक्ष्मीबाई : 1857 की क्रांति की धुरी।
* सावित्रीबाई फुले : स्त्री शिक्षा की प्रणेता।
* स्वतंत्र भारत में सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली आदि ने सक्रिय भूमिका निभाई।
भारत में महिला साक्षरता दर 1947 में लगभग 8% थी, जो 2024 में 70% से अधिक हो गई।
लोकसभा (2024) में महिला सांसदों की संख्या 78 है, जो अब तक की सबसे अधिक है।
उच्च न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों की संख्या निरंतर बढ़ रही है, और हाल ही में भारत ने पहली महिला CJI नियुक्ति की दिशा में चर्चा शुरू की है।
 
सांस्कृतिक मार्क्सवाद और झूठा नैरेटिव
सांस्कृतिक मार्क्सवाद का उद्देश्य है –
* स्त्री–पुरुष संघर्ष गढ़ना : यह विचार फैलाना कि स्त्री और पुरुष प्राकृतिक शत्रु हैं।
* परिवार संस्था पर प्रहार : विवाह और मातृत्व को दमनकारी बताना।
* भारतीय संस्कृति को बदनाम करना : चुनिंदा उदाहरणों को उछालकर संपूर्ण परंपरा को दोषी ठहराना।
“न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति” (मनुस्मृति) को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है, जबकि इसका मूल संदर्भ सामाजिक सुरक्षा है, न कि दमन। विवाह को दमनकारी कहकर लिव-इन संबंधों को सामान्य बनाना, परिवार संस्था को कमजोर करने का प्रयास है।
 
भारतीय दृष्टि बनाम पश्चिमी दृष्टि
* भारतीय दृष्टि : स्त्री और पुरुष सहजीवी हैं। “अर्धनारीश्वर” का रूप इस सत्य का शाश्वत प्रतीक है।
* पश्चिमी दृष्टि (मार्क्सवाद) : स्त्री और पुरुष वर्ग संघर्ष में बँधे हैं।
भारतीय संस्कृति स्त्री को मर्यादा सहित स्वतंत्रता प्रदान करती है। यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचार नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन है।
भारतीय संस्कृति पर लगाया गया आरोप कि वह स्त्रियों को दबाती है, एक बड़ा सांस्कृतिक मिथक है। वैदिक साहित्य, उपनिषद, महाकाव्य और भक्ति परंपरा स्त्री की स्वतंत्रता और सम्मान को प्रमाणित करते हैं। तो वहीं आधुनिक भारत में शिक्षा, राजनीति और न्यायपालिका में स्त्रियों की बढ़ती भागीदारी इसी परंपरा का विस्तार है। लेकिन सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने स्त्री–पुरुष संघर्ष और परिवार-विरोधी विचार गढ़कर समाज को तोड़ने की कोशिश की है।
आज की आवश्यकता है कि हम इस मिथ्या नैरेटिव को खारिज करें और भारतीय दृष्टि से स्त्री-पुरुष की सहजीविता, सामंजस्य और परस्पर पूरकता को पुनः प्रतिष्ठित करें। यही भारत की सांस्कृतिक शक्ति और राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आधार है।
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