डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
समरसता भारतीय संस्कृति की आत्मा है। यह वह सूत्र है जो विविधताओं से भरे समाज को एकता में बाँधता है। परंतु कुछ विचारधाराएँ, विशेषतः वामपंथी विमर्श, इस समरसता को तोड़ने के लिए संघर्ष की स्थायी ज़मीन तैयार करती हैं। उनका उद्देश्य केवल सामाजिक सुधार नहीं, बल्कि सत्ता-हस्तांतरण, सांस्कृतिक संक्रमण और धर्मांतरण तक विस्तृत होता है।
वामपंथी विमर्श का मूल मंत्र: “क्रांति संघर्ष से आती है, समरसता से नहीं।”
वामपंथी दर्शन की बुनियादी संरचना: वर्ग संघर्ष का विकृत दृष्टिकोण
वामपंथी विचारधारा का मूल आधार है – वर्ग संघर्ष (Class Conflict)। कार्ल मार्क्स ने जिस आर्थिक असमानता के आधार पर समाज को शोषक और शोषित में बाँटा, वामपंथियों ने उसे भारतीय संदर्भ में जाति, धर्म और क्षेत्र के संघर्ष में बदल दिया।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकृति:
जाति को वर्ग बना दिया गया।
वर्णव्यवस्था के कर्तव्याधारित स्वरूप को शोषण का औज़ार बताया गया।
रामायण और महाभारत तक को "शासक बनाम दलित" विमर्श में तोड़ा गया।
‘संघर्ष’ के नाम पर सामाजिक दरार की रणनीति
वामपंथी चिंतकों ने सामाजिक संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए अनेक मनोवैज्ञानिक और अकादमिक औजार विकसित किए।
उदाहरण:
दलित विमर्श को ‘उपलब्धियों’ की जगह ‘पीड़ाओं’ की राजनीति बना दिया गया।
महिला सशक्तिकरण को परिवार-विरोधी बना दिया गया।
आदिवासी विमर्श को हिन्दू समाज के “बाहरी शोषक” की अवधारणा से जोड़कर संघर्ष का हथियार बना दिया गया।
“ब्राह्मण बनाम बहुजन”, “हिन्दू बनाम आदिवासी”, “स्त्री बनाम पितृसत्ता” जैसे कृत्रिम संघर्ष रचे गए।
संघर्ष-आधारित विमर्श से किसे लाभ?
संघर्ष से वंचित वर्गों को नहीं, बल्कि वामपंथी नेतृत्व, विदेशी एनजीओ, धर्मांतरण लॉबी और सत्ता के भूखे विचारक लाभान्वित होते हैं।
मकसद स्पष्ट है:
समाज में स्थायी असंतोष बनाए रखना।
समरसता की प्रत्येक पहल को “पाखंड” और “उपरी मेल” कहकर नकारना।
विघटनकारी राजनीति के ज़रिए सत्ता की चाभी पाना।
धर्मांतरण को ‘उत्थान’ और ‘अधिकार’ की संज्ञा देकर वैधता दिलाना।
शिक्षा और साहित्य में संघर्ष का आरोपण
पाठ्यक्रमों में बदलाव:
प्राचीन भारत को ‘जातिगत उत्पीड़न’ का प्रतीक बना दिया गया।
भक्ति आंदोलन के समरसता मूलक संतों को संघर्ष-नायक में बदल दिया गया।
संतों के अध्यात्म को दलित प्रतिरोध के चश्मे से पढ़ाया गया।
संस्कृत और वेदों को ‘ब्राह्मणवाद’ का औजार बताकर हाशिए पर ढकेल दिया गया।
साहित्य का हथियारकरण:
वामपंथी साहित्य में क्रांति का चरित्र अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, समाज का संतुलन नहीं।
‘साहित्य के लिए समाज’ के स्थान पर ‘साहित्य के लिए सत्ता-परिवर्तन’ का उद्देश्य।
NGO नेटवर्क और फंडिंग आधारित संघर्ष
प्रमुख रणनीतियाँ:
विदेश से फंड प्राप्त कर जातिगत टकराव को बढ़ावा देना।
कुपोषण, विस्थापन, महिला उत्पीड़न जैसे मुद्दों को एकपक्षीय रूप से प्रचारित कर ‘हिंदू व्यवस्था’ को दोषी ठहराना।
कथित पीड़ितों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पेश करना ताकि भारत को ‘सामाजिक रूप से बर्बर देश’ बताया जा सके।
धर्मांतरण एजेंडे को “मानवाधिकार” कहकर स्थापित करना।
वामपंथियों को क्यों खलल देती है ‘समरसता’?
समरसता यदि सशक्त होती है तो समाज में संघर्ष की जमीन खत्म हो जाती है, और वामपंथियों का पूरा ‘राजनीतिक वजूद’ खत्म हो जाता है।
वे समरसता से डरते हैं, क्योंकि:
समरस समाज कृतज्ञता और सहयोग में विश्वास करता है, संघर्ष में नहीं।
समरसता भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ है, जो वामपंथ के ‘टुकड़े-टुकड़े’ एजेंडे को अस्वीकार करता है।
समरस समाज में धर्मांतरण और सांस्कृतिक संक्रमण की संभावनाएं न्यून हो जाती हैं।
समरसता के विरुद्ध वामपंथी दुष्प्रचार के उदाहरण
“मनुस्मृति जलाओ” जैसे अभियान।
“जय भीम–लाल सलाम” जैसे नारे, जो बुद्ध को भी संघर्ष का प्रतीक बनाते हैं, जबकि वे समत्व और करुणा के पुजारी थे।
“राम को खलनायक” और “रावण को नायक” के रूप में प्रस्तुत करना।
“शूद्र कौन थे” जैसे ग्रंथों के ज़रिए ब्राह्मण-द्वेष फैलाना।
समरसता ही भारत की शक्ति है
संघर्ष नहीं, संवाद और समरसता भारत की आत्मा हैं। वामपंथी विमर्श संघर्ष को आदर्श बनाकर भारतीय संस्कृति की जड़ों को काटना चाहता है। उनका लक्ष्य न सामाजिक न्याय है, न समानता, बल्कि राजनीतिक सत्ता और सांस्कृतिक संक्रमण है।
हमें यह समझना होगा:
समरसता कोई पिछड़ी अवधारणा नहीं, यह सामाजिक उत्थान की भारतीय पद्धति है।
संघर्ष कोई चेतना नहीं, यह एक राजनीतिक औजार है जो केवल समाज को बाँटता है।
भारत की प्रगति समरसता से संभव है, संघर्ष से नहीं।
आज भारत को विचारधाराओं के जिस युद्ध से जूझना पड़ रहा है, उसमें सबसे बड़ा धोखा वह है जो वामपंथी विचारधारा “समता के नाम पर संघर्ष” के रूप में देती है।
हमें इस वैचारिक दुष्चक्र को तोड़ना होगा — समरसता के मूल्यों, संतों की परंपरा, और सनातन संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर। तभी भारत सच्चे अर्थों में सशक्त, समृद्ध और संगठित बन सकेगा।