समाज के प्रश्न और सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के उत्तर

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    30-Aug-2025
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mohan bhagwat ji
 
 
 
रमेश शर्मा
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शताब्दी यात्रा पूरी करने जा रहा है। इस यात्रा में संघ ने समयानुकूल कई परिवर्तन किए, लेकिन अपने सिद्धांत और लक्ष्य को कभी नहीं बदला। भारत राष्ट्र का परम वैभव, निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा और आदर्श व्यक्तित्व निर्माण का ध्येय संघ का मूल आधार रहा है। इसकी झलक संघ के कार्यों में भी दिखती है और दिल्ली में आयोजित तीन दिवसीय संवाद कार्यक्रम के समापन दिवस पर पूछे गए प्रश्नों में भी स्पष्टता से सामने आई।
 
संघ ने विजयदशमी, 1925 को अपनी यात्रा आरंभ की थी। इस वर्ष विजयदशमी को उसकी स्थापना के सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। संघ इन दिनों अपनी शताब्दी यात्रा की समीक्षा कर रहा है, आंतरिक बैठकों में भी और जनसामान्य के बीच जाकर भी। इसी कड़ी में दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय कार्यक्रम “संवाद” संपन्न हुआ।
 
पहले दो दिनों में सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत ने भारत राष्ट्र, उसकी प्राथमिकता, पहचान और भविष्य निर्माण की संकल्पना पर विचार रखे। तीसरे दिन उन्होंने उपस्थित जनसमुदाय के प्रश्नों का उत्तर दिया। प्रत्येक प्रश्न पर उनका उत्तर न केवल सत्य और तथ्य पर आधारित था बल्कि तार्किक भी था।
 
शिक्षा पद्धति, धर्म का आशय, हिंदू की परिभाषा, संविधान की मान्यता, मुस्लिम समाज के प्रति दृष्टिकोण, आरक्षण पर संघ की नीति, जातीय परंपराएँ, राष्ट्रीय सुरक्षा, मतांतरण और शस्त्र धारण जैसे विषयों पर उनसे प्रश्न पूछे गए। उन्होंने किसी प्रश्न को नहीं टाला और सबके सटीक उत्तर दिए।
 
डॉ. भागवत ने स्पष्ट कहा कि संघ का लक्ष्य भारत राष्ट्र को विश्व का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाना है; निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करना और उच्चतम मानवीय मूल्यों के साथ आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण करना है। इस ध्येय यात्रा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। हाँ, समय और परिस्थिति के अनुरूप कार्यशैली में बदलाव होते रहे हैं और आगे भी होंगे।
 
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में आंदोलनकारियों की सेवा, विभाजन के समय शरणार्थियों की सहायता, बाढ़, भूकंप और रेल दुर्घटनाओं जैसी आपदाओं में संघ के स्वयंसेवक सबसे पहले पहुँचे।
 
भागवत जी ने कहा कि शिक्षा का मतलब केवल पढ़ना-लिखना नहीं है। वास्तविक शिक्षा वह है जो इंसान को सच्चा मनुष्य बनाए। शिक्षा व्यक्ति को इतना विवेकवान बनाए कि वह विष को भी औषधि में बदल सके। उन्होंने कहा कि सुशिक्षा का उद्देश्य केवल करियर या नौकरी नहीं, बल्कि ऐसा व्यक्तित्व निर्माण होना चाहिए जो परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवीय मूल्यों के प्रति जागरूक रहे।
 
माता-पिता के सम्मान संबंधी प्रश्न पर उन्होंने कहा कि इसके सूत्र शिक्षा और परंपरा दोनों में हैं। शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित न हो, इसमें सामाजिक मूल्यों का भी समावेश होना चाहिए। माता-पिता का सम्मान सार्वभौमिक मूल्य है, जिसे सबको सीखना चाहिए।
 
शिक्षा पद्धति पर पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि भारत की शिक्षा स्व-आधारित होनी चाहिए। शिक्षा से ही नागरिकों में आदर्श, दायित्वबोध और राष्ट्रप्रेम का विकास होता है। उनका सुझाव था कि संविधान की प्रस्तावना, नागरिक अधिकार और कर्तव्य छोटे बच्चों की कक्षाओं से ही पढ़ाए जाने चाहिए ताकि उनमें भारत के स्वरूप और अपने अधिकार-कर्तव्यों की समझ विकसित हो।
भारत की भाषाओं पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं और सबका समान सम्मान होना चाहिए। लेकिन संपर्क के लिए एक भाषा आवश्यक है, जो अंग्रेजी नहीं बल्कि कोई भारतीय भाषा हो। अंग्रेजी केवल सहयोगी भाषा के रूप में रहे।
 
सड़कों और नगरों के नाम बदलने संबंधी प्रश्न पर उन्होंने कहा कि आक्रमणकारियों और विध्वंसकारियों के नाम पर नामकरण का दुराग्रह क्यों होना चाहिए? नाम स्थानीय भावनाओं के अनुरूप हों और समाज को प्रेरणा देने वाले महापुरुषों पर रखे जाएँ जैसे हवलदार अब्दुल हमीद और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम।
 
भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के प्रश्न पर उन्होंने कहा कि इसका कोई महत्व नहीं है कि इसे आधिकारिक रूप से घोषित किया जाए या नहीं। भारत तो ऋषि-मुनियों की परंपराओं और जीवनशैली के कारण पहले से ही हिंदू राष्ट्र है और रहेगा। इसे स्वीकारने से समाज में सद्भावना बढ़ेगी।
 
अखंड भारत के विषय में उन्होंने स्पष्ट किया कि राष्ट्र की अवधारणा का संबंध राज्य सत्ता से नहीं होता, बल्कि यह सांस्कृतिक स्वरूप और राष्ट्रभाव से जुड़ी है। भारत के इतिहास में अनेक राज्यों और भाषाई विविधताओं के बावजूद राष्ट्रभाव सदैव एक रहा। समस्या तब आती है जब भारत को यूरोप या मध्य एशिया से जोड़ने का प्रयास किया जाता है।
 
जाति व्यवस्था और आरक्षण पर पूछे गए प्रश्न पर उन्होंने कहा कि संघ संविधान के अनुरूप आरक्षण का पक्षधर है। जाति व्यवस्था मूलतः कर्म आधारित और “स्वच्छता” की सावधानी थी, जो बिगड़कर जन्म आधारित और “अस्पृश्यता” में बदल गई। इसी से समाज का पतन हुआ। आज समाज बदल चुका है, हमें नए स्वरूप के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। संघ की स्थापना से ही उसका नारा रहा है “एक मंदिर, एक कुआँ और एक श्मशान।” आज भी संघ अपने आचरण में यही भाव रखता है।
 
हथियार बढ़ाने संबंधी प्रश्न पर उन्होंने कहा कि भारत शांति का पक्षधर है, क्योंकि यह भगवान बुद्ध की भूमि है। लेकिन कुछ देश और लोग शांति की भाषा नहीं समझते और आक्रमण करते हैं। ऐसी स्थिति में शांति की रक्षा शस्त्र और शक्ति से ही होती है। हथियार बढ़ाने का अर्थ युद्ध करना नहीं, बल्कि आत्मरक्षा है।
 
इस तीन दिवसीय संवाद समागम में कुल 218 प्रश्न आए, जिन्हें 21 समूहों में विभाजित किया गया। डॉ. मोहन भागवत ने सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। प्रश्न पूछने वालों में प्रमुख राष्ट्रीय मीडिया चैनलों के पत्रकारों के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा और विदेश सेवा के वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल थे।