संघ शताब्दी वर्ष, पंच परिवर्तन और हम महिलाएँ

29 Aug 2025 16:31:42

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डॉ. पिंकेश लता रघुवंशी
 
भारत माता की जय! जिस संगठन की शाखाओं का नियमित उद्घोष है, ऐसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह शताब्दी वर्ष है। सामान्यतः किसी भी राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अथवा आर्थिक संगठन के एक वर्ष, रजत जयंती, स्वर्ण जयंती, हीरक जयंती या शताब्दी वर्ष में उस संगठन या उसके कार्यकर्ताओं के द्वारा विशेष उत्सवों के आयोजन के माध्यम से हर्ष व्यक्त किया जाता है। किंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जब अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तो विश्व के सबसे बड़े और अनेक देशों में अपनी शाखाएँ चलाने वाले इस संगठन ने कोई बहुत बड़े उत्सव या आयोजन करने के स्थान पर छोटे-छोटे कार्यक्रमों के माध्यम से समाज की लघु इकाइयों तक पहुँचकर व्यापक और परिणामकारी बदलाव लाने हेतु पंच परिवर्तन के मंत्र को संपूर्ण राष्ट्र में फलित करने का लक्ष्य चुना है। ऐसे में इस देश की मातृशक्ति की भूमिका को भला इस लक्ष्य-पूर्ति से विलग कैसे देखा जा सकता है?
 
हम आधी आबादी के रूप में राष्ट्रीय पटल पर निस्संदेह अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं, किंतु क्या ये प्रभावी ढंग से क्रियान्वित हो रहे हैं? हम राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक हर भूमिका में हैं। अंतरिक्ष की सीमाओं से लेकर समुद्र की गहराई तक, कश्मीर के क्षीर भवानी मंदिर से लेकर आदि गुरु शंकराचार्य जी की जन्मस्थली केरल तक, अटक से कटक तक हम महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विश्व गुरु भारत की संकल्पना को साकार करने हेतु संग्लग्न हैं। किंतु कुछ सत्य ऐसे भी हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता।
 
जैसे एक ओर ऑपरेशन सिंदूर जैसे सामरिक विषय में व्योमिका और सोफिया कुरैशी के रूप में हम महिलाएँ वैश्विक पटल पर भारत के शौर्य का प्रतिनिधित्व करती हैं, तो दूसरी ओर कोलकाता के आर. जी. मेडिकल कॉलेज में महिला चिकित्सक के साथ हुई घटना हमारी स्वयं की सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लगाती है। एक ओर हम इसरो की महिला वैज्ञानिकों के रूप में गगनयान, चंद्रयान जैसे अभियानों में अपनी जड़ों से जुड़े रहकर भी सफल प्रयोगों की सहभागी बनती हैं, तो दूसरी ओर डिजिटल तकनीक और सोशल मीडिया की दासी बनकर रील्स और पोस्ट में उलझी हुई भी दिखती हैं।
 
प्रकृति की पूजक रहने वाली हम भारतीय नारियाँ धीरे-धीरे प्रदर्शन की ओर बढ़ती जा रही हैं। नैतिक मूल्य और सामाजिक सरोकार हमारे वैसे ही नैसर्गिक गुण हैं जैसे मातृत्व का भाव हमें जन्म से ही मिलता है। इसलिए अनेक विरोधाभासों के साथ हमें पुनः यह विचार करना चाहिए कि राष्ट्र-यज्ञ की इस शताब्दी साधना के महापर्व में हमारी समिधा क्या होगी।
 
पंच परिवर्तन और महिलाओं की भूमिका
पंच परिवर्तन मात्र संघ का ध्येयसूत्र नहीं है, अपितु संपूर्ण भारतीय जनमानस के निजी, सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय चरित्र से जुड़ा विषय है। अतः देश की 50% जनसंख्या के रूप में ही नहीं, अपितु अदृश्य रूप से संपूर्ण समाज और राष्ट्र को गतिमान रखने वाली हम महिलाओं की इसमें क्या भूमिका हो सकती है, यह तय करना भी आवश्यक है।
पंच परिवर्तन के पाँच महा सूत्र हैं –
1. स्वबोध (स्वदेशी भाव)
2. नागरिक कर्तव्य
3. पर्यावरण संरक्षण
4. सामाजिक समरसता
5. कुटुंब प्रबोधन (जहाँ हमारी मुख्य भूमिका है)
 
स्वबोध, स्वदेशी
अपने राष्ट्र का गौरव और अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान, स्वबोध का यह भाव हम महिलाओं के अंतस से कहीं न कहीं दूर होता जा रहा है। बढ़ते बाजारवाद, पाश्चात्य आकर्षण और वर्षों से परोसी जा रही वामपंथी शिक्षा ने हमारे मनों में हीनता का ऐसा भाव भर दिया है कि हम स्वयं पर, अपने परिवार, समाज और देश पर सहज ही कमियाँ देखने लगते हैं।
अपनी भाषा, भूषा, भजन, भवन और भ्रमण – इन पाँच क्षेत्रों में हम माताएँ ही निर्णायक भूमिका निभाती हैं। किंतु आज मातृभाषा के बजाय अंग्रेज़ी, पारंपरिक परिधानों के बजाय पाश्चात्य कपड़े, रसोई के पारंपरिक व्यंजनों के बजाय मैगी-पिज़्ज़ा-बर्गर, भजनों और विवाह-गीतों के बजाय भौंडे संगीत, मंदिरों और तीर्थों के बजाय विदेशी पर्यटन अधिक आकर्षक लगने लगे हैं।
यदि हम स्वयं अपने स्वत्व का सम्मान करेंगे तो हमारी संतानों में भी यह भाव स्वतः ही जागृत होगा और घर के पुरुषों को भी सहज ही स्वीकार्य होगा।
 
नागरिक कर्तव्य
हम महिलाएँ भी भारत की उतनी ही महत्वपूर्ण नागरिक हैं जितने कि पुरुष। संतान की प्रथम गुरु माँ होती है, इसलिए भावी नागरिकों को तैयार करने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। यह छोटे-छोटे कार्यों से शुरू होती है:
* बिना आवश्यकता पंखे-बत्तियाँ बंद करना,
* कचरे का उचित निस्तारण,
* पानी-बिजली की बचत,
* अनुशासन और समयपालन,
* भ्रष्टाचार से दूर रहना।
हमें न तो सुविधा के लिए रिश्वत लेने-देने प्रेरित करना चाहिए, न ही पद-बल का दुरुपयोग। सड़क पर यातायात नियमों का पालन, राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान, और घर में रहते हुए भी श्रेष्ठ नागरिक बनना – यह सब हमारी जिम्मेदारी है।
 
पर्यावरण संरक्षण
भारतीय स्त्री सनातन संस्कृति की संवाहक और प्रकृति-पूजक है। इसलिए पर्यावरण के प्रति उसकी संवेदनाएँ स्वभावगत हैं।
* घर और समाज में पेड़-पौधे लगाना व संरक्षित करना,
* जल-संरक्षण, वॉटर हार्वेस्टिंग,
* पॉलीथीन और प्लास्टिक के न्यूनतम उपयोग के साथ कपड़े के थैले अपनाना,
* इको ब्रिक बनाकर प्लास्टिक का पुनः उपयोग करना
ये सब उपाय हमें ही अपनाने होंगे। इससे न केवल आने वाली पीढ़ियों को शुद्ध जल और वायु मिलेगी, बल्कि भारतीय स्त्री की संस्कृति-संवेदना भी पुनः जीवित होगी।
 
सामाजिक समरसता
हमारे आदर्श – माता सीता से लेकर माता शबरी तक – सामाजिक समरसता की मिसाल हैं। किंतु आज भी समाज में भेदभाव और दुराग्रह दिखाई देता है।
भारतीय महिलाएँ पारंपरिक रूप से किसी भी कन्या के विवाह में पैर पूजने, मायरा भेजने, तीज-त्योहारों में सबको सहभागी बनाने वाली रही हैं। फिर हम अपने ही समाज के वंचित वर्ग की बहनों को क्यों दूर रखें?
समरसता तभी संभव है जब हम अपनी बेटियों को सिखाएँ कि हर बहन-बेटी हमारे ही परिवार का हिस्सा है। स्त्री सबसे पहले माँ है – मातृत्व उसकी विशेषता है। यदि यह व्यवहार में झलकेगा तो सामाजिक समरसता सहज ही संभव होगी।
 
कुटुंब प्रबोधन
भारतीय परिवार व्यवस्था ही हमारी संस्कृति का केंद्र है। अनेक आक्रमणों और आघातों के बावजूद सनातन सभ्यता जीवित है, तो केवल हमारी परिवार परंपरा के कारण।
आज बाजारवाद, शिक्षा-पद्धति और मीडिया ने परिवारों में दूरी पैदा की है। संयुक्त परिवार से एकल और एकल से अकेले तक का कॉन्सेप्ट हमारे मनों में बैठा दिया गया है।
लेकिन यह भी सत्य है कि भारतीय नारी यदि समस्या को पहचान ले तो उसका समाधान भी कर लेती है। मातृत्व में जीजाबाई, नेतृत्व में महारानी लक्ष्मीबाई और कर्तव्य-पालन में महारानी अहिल्याबाई होल्कर हमारे आदर्श हैं। यदि हम उन्हें स्मरण करें तो कुटुंब बचेगा भी और बढ़ेगा भी।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने शताब्दी वर्ष में पंच परिवर्तन रूपी जो समिधा राष्ट्र-यज्ञ में अर्पित की है, उसमें भारत की प्रत्येक महिला की आहुति भी निश्चय ही होगी। हम माताएँ, बहनें अपने पूर्ण मनोयोग और सदनिष्ठा से इस यज्ञ की सहभागी बनेंगी और राष्ट्र-निर्माण में अपनी भूमिका निभाएँगी।
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