100 वर्ष की संघ यात्रा : नए क्षितिज, नई जिम्मेदारियाँ

28 Aug 2025 17:01:33
 
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-डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
संघ की शताब्दी यात्रा केवल संगठन की उपलब्धियों का लेखा-जोखा नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज को अपने मूल प्रश्नों से जोड़ने का अवसर है। इसी क्रम में हुआ दिल्ली के विज्ञान भवन में हुआ यह व्याख्यान आज की पीढ़ी के लिए गहरी दृष्टि प्रस्तुत करता है
 
धर्म ही संतुलन का मार्ग
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि समाज और जीवन में संतुलन ही धर्म है। धर्म केवल कर्मकांड या पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि वह एक जीवन दृष्टि है जो हमें अतिवाद से बचाते हुए मध्यम मार्ग अपनाने की प्रेरणा देता है। उन्होंने कहा –
“धर्म का अर्थ है मर्यादा और संतुलन के साथ जीना। इसमें समाज, व्यक्ति और प्रकृति – तीनों के अस्तित्व को स्वीकारते हुए उन्हें सम्मान देना आवश्यक है। यही विश्व शांति का मार्ग है।”
 
पंच परिवर्तन : घर से समाज परिवर्तन की शुरुआत
माननीय भागवत जी ने कहा कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने से पहले हमें अपने घर से शुरुआत करनी होगी। इसके लिए संघ ने पंच परिवर्तन सुझाए हैं –
1. कुटुंब प्रबोधन
2. सामाजिक समरसता
3. पर्यावरण संरक्षण
4. स्व-बोध (स्वदेशी और आत्मनिर्भरता)
5. नागरिक कर्तव्यों का पालन
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि त्योहारों पर पारंपरिक वेशभूषा पहनें, स्वभाषा में हस्ताक्षर करें और स्थानीय उत्पादों को सम्मानपूर्वक खरीदें। यही व्यवहार परिवर्तन अंततः समाज और राष्ट्र परिवर्तन का आधार बनेगा।
 
संघ कार्य का आधार : सात्त्विक प्रेम और समाजनिष्ठा
मोहन भागवत जी ने स्पष्ट किया कि संघ का कार्य व्यक्तिगत लाभ पर आधारित नहीं है। स्वयंसेवक किसी इंसेंटिव की अपेक्षा नहीं रखते, बल्कि उन्हें सामाजिक कार्य में आनंद मिलता है।
“सज्जनों से मैत्री करना, दुर्जनों पर भी करुणा करना और समाज की सेवा करना ही संघ के जीवन मूल्य हैं। जीवन की सार्थकता और मुक्ति की अनुभूति इसी सेवा से होती है।”
 
हिन्दुत्व : सत्य, प्रेम और अपनापन
हिन्दुत्व की मूल परिभाषा प्रस्तुत करते हुए सरसंघचालक जी ने कहा –
“हिन्दुत्व सत्य, प्रेम और अपनापन है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सिखाया कि जीवन केवल अपने लिए नहीं है। इसी भाव से भारत विश्व का बड़ा भाई बनकर मार्गदर्शन करता है और विश्व कल्याण की अवधारणा प्रस्तुत करता है।”
*विश्व की स्थिति और चुनौतियाँ*
भागवत जी ने चिंता व्यक्त की कि आज दुनिया कट्टरता, कलह और उपभोगवाद के कारण अशांति की ओर बढ़ रही है। उन्होंने गांधी जी के बताए सात सामाजिक पापों का उल्लेख करते हुए कहा कि इनसे समाज में असंतुलन गहराता गया है।
उन्होंने कहा –
“शांति, पर्यावरण और आर्थिक असमानता पर चर्चा तो होती है, उपाय भी सुझाए जाते हैं, लेकिन समाधान तभी संभव है जब जीवन में त्याग और बलिदान को स्थान मिले।”
 
भारत का आचरण : संयम और सेवा
भारत के वैश्विक आचरण पर बोलते हुए उन्होंने कहा –
“भारत ने हमेशा अपने नुकसान की अनदेखी करते हुए संयम रखा है। जिसने हमें हानि पहुँचाई, संकट के समय उसकी भी मदद की। अहंकार से शत्रुता पैदा होती है, लेकिन अहंकार से परे हिंदुस्तान है।”
 
अंतरराष्ट्रीय व्यापार : स्वेच्छा पर आधारित
सरसंघचालक जी ने आर्थिक दृष्टि पर जोर देते हुए कहा कि भारत को आत्मनिर्भरता और स्वदेशी की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।
“भारत का अंतरराष्ट्रीय व्यापार केवल स्वेच्छा से होना चाहिए, किसी दबाव में नहीं। हमें ऐसा विकास मॉडल प्रस्तुत करना होगा जिसमें आत्मनिर्भरता, स्वदेशी और पर्यावरण का संतुलन हो। यही विश्व के लिए आदर्श बनेगा।”
 
पड़ोसी देशों से संबंध
उन्होंने कहा –
“नदियाँ, पहाड़ और लोग वही हैं, केवल नक्शे पर लकीरें खींची गई हैं। पंथ और संप्रदाय अलग हो सकते हैं, पर संस्कारों पर कोई मतभेद नहीं है। विरासत में मिले मूल्यों से सबकी प्रगति हो, इसके लिए सबको जोड़ना होगा।”
 
भविष्य की दिशा : समाज परिवर्तन और सज्जन शक्ति का संगठन
भागवत जी ने कहा कि संघ का उद्देश्य है कि कार्य हर वर्ग और स्तर तक पहुँचे। सज्जन शक्तियों को जोड़कर समाज में चरित्र निर्माण और देशभक्ति का वातावरण बने।
“हमें समाज में सद्भावना फैलानी होगी, विचार-निर्माताओं से संवाद करना होगा और समाज के दुर्बल वर्गों के लिए ठोस कार्य करना होगा। यही संघ का दीर्घकालिक लक्ष्य है।”
 
भारत का वैश्विक दायित्व
अंत में सरसंघचालक जी ने कहा –
“संघ क्रेडिट बुक में नहीं आना चाहता। संघ चाहता है कि भारत ऐसी छलांग लगाए जिससे न केवल उसका कायापलट हो, ब
 
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