
– रमेश शर्मा
भारतीय दृष्टि में नारी का व्यक्तित्व बहुत व्यापक है। एक ओर यदि वह आदि शक्ति के स्वरूप में प्रतिष्ठित है तो दूसरी ओर मर्यादा के लिए सर्वस्व समर्पण करके एक निरीह नारी बनी। जबकि पश्चिमी चिंतन में नारी इतनी व्यापक नहीं है। उसकी भूमिका बहुत सीमित है। एक समय तो न तो वोट का अधिकार था और न ही न्यायालय में नारी की गवाही मान्य थी। पश्चिम में वह केवल भोग का साधन मात्र थी।
विमर्श की दृष्टि से नारी सदैव चर्चा में अग्रणी रही है। संसार की प्राचीनतम कृतियों से लेकर आधुनिक साहित्य तक लेखन-सृजन की ऐसी कोई विधा नहीं जिसमें नारी की चर्चा न हो। लेकिन इन सब कृतियों में भारत और पश्चिम की चिंतन धारा में बहुत अंतर है। नारी को लेकर यह अंतर समाज जीवन की अवधारणा में भी है और लेखन की विधा में भी। समय के साथ पश्चिमी शैली का प्रभाव भारत में भी आया जिससे चिंतन ही नहीं, भारतीय समाज जीवन भी प्रभावित हुआ। यह प्रभाव एकतरफा नहीं है। भारतीय समाज जीवन का प्रभाव पश्चिम पर भी पड़ा है। लेकिन एक-दूसरे पर पड़ने वाले इस प्रभाव में एक आधारभूत अंतर है। भारतीय चिंतन धारा और समाज जीवन में परिवर्तन निरंतर आक्रमणों, दमन और षड्यंत्रों के कारण आया। यह ठीक उसी प्रकार है जब लगातार दमन की परिस्थिति में जीता हुआ समाज उसी वातावरण के अनुरूप ढल जाता है। जबकि पश्चिमी जगत में परिवर्तन उनके विचारकों द्वारा भारतीय समाज जीवन के अध्ययन और अनुभव के निष्कर्ष से आया।
भारतीय समाज जीवन में नारी के चार स्वरूप मिलते हैं। एक वैदिक काल से सल्तनत काल तक, दूसरा सल्तनत कालीन स्थिति, तीसरा अंग्रेज़ी कालीन नारी और चौथा स्वतंत्रता के बाद। भारतीय नारी पर ये चारों प्रभाव बहुआयामी रहे हैं। इन चारों कालावधियों की परिस्थिति और वातावरण से केवल जीवनशैली ही प्रभावित नहीं हुई, विचार वीथि और लेखन की दृष्टि भी प्रभावित हुई। इन चारों कालखंड में नारी का सम्मान और स्थान तो प्रभावित हुआ है लेकिन उसका आकर्षण यथावत रहा। नारी का आकर्षण यथावत रहने के कारण ही नारी पर लेखन भी निरंतर रहा। आकर्षण एक बात है और सम्मान दूसरी बात। आकर्षण तो किसी भी प्राणी या जड़-चेतन के किसी दृश्यमान पदार्थ के प्रति भी हो सकता है, लेकिन सम्मान सबका नहीं होता। इतिहास में ऐसे उदाहरण भी हैं जब अभाव अथवा असुविधा की पराकाष्ठा बनी, लेकिन मानसिक, वैचारिक और चारित्रिक दृढ़ता से नारी का सम्मान यथावत रहा और साधारण से असाधारण स्मरणीय हो गई। जो अंतर सम्मान और आकर्षण में है, वही अंतर भारतीय और पश्चिमी चिंतन में है। इसे समझने के लिए भारतीय और पाश्चात्य चिंतन पर एक दृष्टि डालना आवश्यक होगा।
भारतीय नारी की यात्रा : वैदिक काल से वर्तमान काल तक
पूरी दुनिया में नारी सशक्तीकरण का संदेश भारत से गया है। अमेरिका और यूरोपीय समाज विज्ञानी भारत की परिवार, कुटुंब और समाज रचना के केंद्र में नारी की महत्ता पर शोध कर रहे हैं और वे आश्चर्यचकित हैं कि नारी में प्रकृति के मौलिक गुणों के अनुरूप जो विशेषताएँ वे अब समझ रहे हैं, उनका वर्णन भारतीय साहित्य में सहस्त्रों वर्ष पहले से मिलता है। उसी के अनुरूप भारतीय समाज जीवन में नारी का स्थान पुरुष से श्रेष्ठ स्थान रहा है। नारी को परमात्मा की आभा का प्रतीक माना गया है। इसे ऋग्वेद की ऋचा "स्त्रीहि ब्रह्मा बभूविथ" से समझ सकते हैं। जिस प्रकार एक सृष्टि को जन्म देकर भी परमब्रह्म पूर्ण रहते, उसी प्रकार नारी भी अपने गर्भ से संतान को जन्म देकर भी पूर्ण रहती है। फिर उस संतान से दूसरी संतान – यह क्रम सृष्टि निर्माण से आज तक चल रहा है। नारी हर आयु और स्थिति में देवी तुल्य ही मानी गई है।
वेद, उपनिषद, पुराण और रामायण ही नहीं, गीता और दुर्गा सप्तशती में भी नारी महत्ता की उपमा देवी स्वरूप से की गई है। ऋग्वेद के "नासदीय सूक्त" और उपनिषदीय "सांख्य" व्याख्या के अनुसार परमब्रह्म अव्यक्त, अरूप, अनादि और अनंत है। और जब वे सृष्टि निर्माण के लिए अग्रसर हुए तो उन्होंने जो सबसे पहला सूक्ष्मतम परमाणु बनाया वह नारी का था। उसके बाद पुरुष का परमाणु बनाया। इसलिए नारी को "आद्या" अर्थात प्रथम अर्धभाग कहा गया, जबकि पुरुष को "पूर्णा:" अर्थात "सेकेंड ऑफ" कहा गया। भारत में स्त्री और पुरुष पृथक कल्पना नहीं हैं। पुरुष से स्त्री पूर्ण होती है और स्त्री के बिना पुरुष भी पूर्ण नहीं होता। इसे "अर्धनारीश्वर" स्वरूप से समझ सकते हैं।
इसी प्रकार "नर" और "नारी" शब्द रचना को देखें। "नर" शब्द में "न" के आगे बड़े "आ" और "र" के आगे बड़ी "ई" मात्रा लगाकर "नारी" शब्द बनता है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से "आ" की मात्रा प्रकाश का और "ई" की मात्रा शक्ति का प्रतीक है। तब "नारी" का अर्थ हुआ – "नर को प्रकाशमान और शक्ति प्रदान करने वाली"।
वेदों में नारी की गरिमा का वर्णन करने वाली अनेक ऋचाएँ हैं। जैसे ऋग्वेद 4/14/3 में – "हे नारी, तू स्वयं को पहचान, देवजनों के हितार्थ सामर्थ्य उत्पन्न कर।" 10/47/3 में – "विद्या अलंकृता विदुषी नारी अपने विद्याबल से पवित्र होती है।" 1/164/41 ऋचा में नारी को निर्मल मन वाली कहा गया है। अथर्ववेद 14/1/20 में – "हमें ज्ञान का उपदेश कर।" 7/46/3 में – "पति को धनार्जन का उपदेश कर।" 14/2/26 में विवाह के समय पति कहता है – "मैं अपने सौभाग्य के लिए तुम्हारा वरण कर रहा हूँ।"
ऐसी अनेक ऋचाएँ चारों वेदों में हैं। कहीं नारी को उषा के समान प्रकाशवती, वीरांगना, वीरप्रसवा, विद्या-अलंकृता, स्नेहमयी माँ, पतिव्रता, अन्नपूर्णा, सद्गृहिणी आदि उपमाओं से संबोधित किया गया है। यजुर्वेद में तो स्त्रियों को सेना और युद्ध में भाग लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया है। यजुर्वेद में कहा गया है कि जैसे राजा लोगों का न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हों। अथर्ववेद में माता-पिता से कहा गया है कि वे अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल का उपहार दें।
इन सभी ऋचाओं में वैदिककालीन भारत में नारी के सम्मान और स्थान का संकेत मिलता है। एक शिक्षित नारी ही ज्ञान का दान कर सकती है। युद्ध में भाग वही नारी ले सकती है जो शस्त्र चलाना जानती है। विष्णु पुराण में तारा के संदर्भ में भगवान विष्णु का अभिमत भी भारत में नारी की गरिमा को स्पष्ट करता है। महिला सशक्तीकरण का उदाहरण दुर्गा सप्तशती के एक श्लोक –
"विद्या समस्ता स्तव देवि भेदा:
स्त्रिया समस्ताः सकला जगत्सु" –
इससे स्पष्ट होता है कि जो गुण दुर्गा देवी में हैं, वे गुण संसार की समस्त स्त्रियों में हैं।
नारी की महत्ता के वर्णन के अनुरूप यदि हम तत्कालीन समाज जीवन को देखें तो कन्या भरे दरबार में अपनी पसंद का वर स्वयं चुनती थी। देवी पार्वती ने भी स्वयं शिवजी का वरण किया था और फिर परिवार सहमत हुआ। देवी रेणुका सहित राजकन्याओं के स्वयंवरों की कथाओं से भारतीय पुराण भरे पड़े हैं। भारत में सती प्रथा नहीं थी। नारी के पुनर्विवाह के उदाहरण भी मिलते हैं। रामायण काल में बालि के मरने पर तारा ने और रावण के मरने पर मंदोदरी ने पुनर्विवाह किया। राजा पांडु के मरने पर कुंती भी सती नहीं हुई थीं। महाभारत युद्ध में इतना नरसंहार हुआ किंतु कहीं किसी नारी के सती होने का वर्णन नहीं है। हाँ, कहीं-कहीं सती होने का उल्लेख आता है, पर ये घटनाएँ नगण्य सी हैं। भारतीय जीवन में नारी का सम्मान सदैव सर्वोच्च रहा है, वह सदैव सशक्त रही है। इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण पर्याप्त हैं।
धन की देवी लक्ष्मी हैं, ज्ञान की देवी सरस्वती हैं, शक्ति की देवी दुर्गा हैं, खाद्यान्न की देवी अन्नपूर्णा हैं। अर्थात जीवन की सभी आधारभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति देवियों के पास है। यम को पराजित करने वाली सावित्री हैं। शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य ने देवी गार्गी से पराजय स्वीकारी। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ का निर्णय देने वाली भी देवी भारती ही हैं। इतनी सशक्त और सक्षम रही है भारतीय नारी।
यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है। भारतीय समाज जीवन और साहित्य में पुरुष की तुलना में नारी को अतिरिक्त सम्मान और अधिकार तो दिए गए हैं, लेकिन मर्यादा और अनुशासन का दबाव भी पुरुष की तुलना में अधिक है। इसका उद्देश्य नारी का दमन करना नहीं, अपितु उसके दायित्व की महत्ता के अनुरूप है। नारी को भावी पीढ़ी का निर्माता माना गया है। स्नेह, समन्वय, संगठन और संस्कारों की आदर्शता के गुण माता से मिलते हैं जबकि पुरुषार्थ, पराक्रम और परिश्रम के गुण पिता से। यदि संतान परिश्रमी और पुरुषार्थी है लेकिन संस्कारहीन है तो ऐसा व्यक्ति कुमार्ग पर चलेगा। यही कारण है कि ऐसे लोग हिरण्यकशिपु, रावण, कंस, और इतिहास में आंभि, जयचंद, राघव चेतन की राह चले। और यदि माता से संस्कार मिले हैं तो संतान राम, कृष्ण, राणा कुंभा, राणा प्रताप, शिवाजी महाराज और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसी बनती है। इसीलिए भारतीय वाङ्मय में नारी के कर्तव्य और मर्यादा पर भी अपेक्षाकृत अधिक जोर दिया गया है।
पश्चिमी जगत में नारी का उद्भव और विकास यात्रा
पश्चिमी जगत में नारी के अस्तित्व में आने की अवधारणा से यह स्पष्ट होता है कि उनके समाज जीवन में नारी का स्थान क्या है। पश्चिमी जगत आकर्षण की दृष्टि से नारी को अग्रणी मानता है, लेकिन अधिकार की दृष्टि से बहुत सीमित। पश्चिमी साहित्य के अनुसार ईश्वर ने पहले "एडम" अथवा "आदम" यानी पुरुष बनाया। फिर एडम की सहायक के रूप में "ईव" अथवा "इब्बा" के रूप में नारी की रचना की। ईव की उत्पत्ति का विवरण बाइबिल के हिब्रू ग्रंथों में है।
इसके अनुसार ईश्वर ने कहा – "एडम अकेला अच्छा नहीं लगता, उसे सहायक की आवश्यकता है, मैं उसका सहायक बनाऊँगा जो उसके अनुसार चले।" तब ईश्वर ने एडम की बाईं पसली निकालकर ईव अर्थात इब्बा की रचना की। एडम और ईव के धरती पर आने की भी एक कथा है। एडम और ईव बगीचे में रहते थे, जिसमें कुछ फल खाने से निषेध किया गया था। लेकिन एक दिन एक निषिद्ध फल ईव ने स्वयं भी खा लिया और एडम को भी खिला दिया। तब ईश्वर ने उन्हें धरती पर भेज दिया।
पश्चिम की इस अवधारणा में दो बातें बहुत स्पष्ट हैं। एक तो नारी का निर्माण पुरुष की सहयोगी के रूप में हुआ और दूसरा, नारी की बात मानने पर एडम को स्वर्ग से वंचित होना पड़ा। यही कारण है कि पश्चिमी जगत के इतिहास में नारी की बौद्धिक अथवा सामरिक सामर्थ्य होने का विवरण नहीं मिलता। और पश्चिमी इतिहास में नारी के गौरव की वैसी कहानियाँ भी नहीं मिलतीं जैसी भारत में मिलती हैं।
पश्चिमी जगत में एक समय तो पति को अपनी पत्नी की हत्या का अधिकार भी था। इसी अधिकार के अंतर्गत ब्रिटेन के शासक हैनरी अष्टम ने अपनी पत्नी ऐनी पर चारित्रिक दोष लगाकर उसकी हत्या करने का आदेश दे दिया था। यह सोलहवीं शताब्दी की घटना है। ब्रिटेन की पहली महिला शासक ऐलिज़ाबेथ प्रथम इन्हीं की बेटी थी। ऐलिज़ाबेथ प्रथम ने जब गद्दी संभाली तो रोमन कैथोलिक चर्च ने एक महिला को शासक के रूप में स्वीकार नहीं किया था। लेकिन ऐलिज़ाबेथ ने अपने मंत्रियों की सलाह से प्रोटेस्टेंट चर्च को प्रोत्साहित किया। संघर्ष हुआ। यह संघर्ष सेनाओं में भी हुआ और दोनों चर्चों के अनुयायियों में भी। अंततः सत्ता बनी रही।
पश्चिमी जगत की सेनाओं में महिलाओं का प्रवेश उन्नीसवीं शताब्दी से आरंभ हुआ। लेकिन वह नर्स और सहायिका के रूप में था, सैनिक के रूप में नहीं। सेना की ये सहायिकाएँ युद्ध अभियान पर निकले सैनिकों का "अकेलापन" दूर करती थीं। पश्चिमी जगत के इतिहास में ऐसी पर्याप्त कहानियाँ हैं। ब्रिटेन के इतिहास में पहली महिला सहायक कोर की स्थापना 1917 में हुई, इसे WAAC नाम से जाना गया। इसमें एक लाख से अधिक महिला "सैनिक सहायक" की भर्ती की गई, लेकिन इन महिला सहायकों को शस्त्र चलाने का अधिकार नहीं था। पश्चिमी जगत में महिला सैनिकों को पूर्ण अधिकार द्वितीय विश्वयुद्ध के समय मिले।
इसी प्रकार उन्हें मताधिकार और न्यायालय में गवाही के अधिकार मिले। यूरोप के विभिन्न देशों में यह क्रम 1921 से आरंभ हुआ। अलग-अलग यूरोपीय देशों में अलग-अलग वर्षों में मताधिकार मिले। स्विट्जरलैंड में महिलाओं को मताधिकार 1971 में मिले थे।
भारतीय और पश्चिमी अवधारणा पर तुलनात्मक दृष्टि
महिला की उत्पत्ति से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध की अवधि तक भारत और पश्चिमी चिंतन में जमीन-आसमान का अंतर है। वेद के अनुसार भारत में महिला प्रथम है, पुरुष की मार्गदर्शक और सौभाग्य में वृद्धि करने वाली है। जबकि पश्चिमी चिंतन में वह पुरुष की सहायक है। भारतीय चिंतन में नारी बुद्धिमती है और सशस्त्र भी। वेदों की रचना में 27 नारियों के नाम आते हैं जिन्हें ऋषिका कहा गया।
वह इतनी सशक्त है कि सावित्री के रूप में मृत्यु को भी जीत सकती है और वृंदा के रूप में नारायण को भी पाषाण बना सकती है। मैत्रेयी और गार्गी के रूप में शास्त्रार्थ करती है, अनुसूइया के रूप में उपदेश करती है। यही नहीं, यदि आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ होता है तो इसकी निर्णायक भी एक महिला – देवी भारती – ही हैं।
712 में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर आक्रमण किया। सिंध ध्वस्त हुआ। राजा का बलिदान हुआ और राजा की दो बेटियों को बिन कासिम ने बतौर तौहफा खलीफा को भेंट किया। लेकिन भारत की इन बेटियों ने अपनी बुद्धि का ऐसा प्रयोग किया कि खलीफा ने बिन कासिम को मौत की सजा सुना दी।
बारहवीं शताब्दी में पृथ्वीराज चौहान के बंदी हो जाने के बाद किला-महल में गौरी की सेना से अंतिम निर्णायक युद्ध महिला टुकड़ी ने ही किया था। चौदहवीं शताब्दी में रानी पद्मावती ने अपनी युक्ति और कौशल से अपने पति राणा रतनसिंह को अलाउद्दीन खिलजी की कैद से मुक्त करा लिया था। सोलहवीं शताब्दी में रानी दुर्गावती की महिला सैन्य टुकड़ी और अकबर से युद्ध, अठारहवीं शताब्दी में लोकमाता अहिल्याबाई का प्रत्यक्ष युद्ध – ये सभी उदाहरण बताते हैं कि लगभग प्रत्येक भारतीय राजवाड़े में महिलाओं द्वारा युद्ध हुआ है।
1857 की क्रांति में झलकारी बाई की वीरता झाँसी में और ऊदापासी की वीरता लखनऊ में अद्भुत है। इसी प्रकार हर कालखंड में नारी शिक्षा भी निरंतर रही। विवाह के पूर्व अहिल्याबाई अति साधारण परिवार से थीं, फिर भी गाँव के शिवले जी ने उन्हें पढ़ाया। राजस्थान में एक आदिवासी बालिका कालीबाई का उल्लेख मिलता है जिसने अपने गुरु को बचाने के लिए प्राणों का बलिदान कर दिया था।
भविष्य की यात्रा में समझ और सावधानी दोनों आवश्यक
जैसा कि हम जानते हैं, सम्मान और आकर्षण में अंतर होता है। पुरुष के लिए नारी और नारी के लिए पुरुष का आकर्षण कभी समाप्त नहीं होगा। यह आकर्षण केवल मनुष्य तक सीमित नहीं है; चींटी से लेकर विशालकाय हाथी तक सभी प्राणियों में यह आकर्षण होता है। लेकिन नारी के प्रति सम्मान का सर्वोच्च भाव केवल भारत में है।
इसलिए नारी के लिए योग्यता, दायित्व और मर्यादा पर अपेक्षाकृत अधिक जोर दिया गया है। नारी अंतरिक्ष की सीमाएँ पार कर ले अथवा सरहद पर शत्रु की सेना को परास्त कर दे, लेकिन वह पीढ़ी निर्माण के अपने प्राकृतिक दायित्व से मुक्त नहीं हो सकती। पीढ़ी को जन्म देना और उसका प्रारंभिक पालन-पोषण केवल प्रकृति का ही नहीं, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व भी है। उसकी पूर्णता अपने इन समस्त दायित्वों की पूर्ति के साथ उड़ान भरने में है।
भारतीय नारी को आधुनिकता और प्रगति के नारे के साथ उसकी जड़ों से काटने का कुचक्र भी चल रहा है। संसार में कुछ शक्तियाँ हैं जिनमें परस्पर कोई वैचारिक मेल नहीं, लेकिन भारत और सनातन संस्कृति को समाप्त करने के कुचक्र में वे सब एकजुट हैं। इनमें मिशनरी, वामपंथी और कट्टरपंथी हैं। इनमें चौथी शक्ति बाजारवाद की जुड़ गई है।
भारत में रंग और सुकोमलता का कोई महत्व नहीं। नौ में से चार देवियाँ साँवली हैं तो महाकाली हैं। लेकिन गोरेपन और कोमलता के विज्ञापन नारी को श्रम-साधना और संस्कार से दूर कर रहे हैं। आधुनिकता और फैशन के नाम से जो वस्त्र और श्रृंगार सामग्री का अंबार बाजार में पट गया है, उसका असर सबसे अधिक भारतीय सनातनी महिलाओं पर पड़ रहा है।
एक और समाज है जो अपनी महिलाओं को तो बुर्के और हिजाब में ढाँक कर रखता है, लेकिन सनातनी महिलाओं को आकर्षित करने के लिए नाना प्रकार के प्रपंच रचता है। इन सबके बीच भारतीय नारी को अपने भविष्य की यात्रा सुनिश्चित करनी है। वह विश्वविद्यालय की प्राविण्य सूची में अग्रिम स्थान बना रही है, सेना के शौर्य और अंतरिक्ष यात्रा में स्थान बना रही है, लेकिन इन विसंगतियों और कृत्रिम आकर्षण से बचकर चलना होगा, अन्यथा ऐसे समाचारों में ही वृद्धि होगी जिनमें कोई नारी अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या कर किसी ड्रम में फेंक देती है या कोई पति के हाथों अपने प्राण गँवा रही है।