संघ दर्शन: संगठन, संस्कृति और राष्ट्र निर्माण का दृष्टिकोण

20 Aug 2025 12:59:35
 
Pustak Samiksha - Sangh Darshan
 
 
 
समीक्षक: पंकज सोनी
 
माधव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) द्वारा लिखित पुस्तक “संघ दर्शन” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आदर्शों और दर्शन का गहन विवेचन है। गोलवलकर जी संघ के द्वितीय सरसंघचालक रहे और उन्हें संघ का प्रमुख विचारक माना जाता है। उनकी प्रमुख रचनाओं में We or Our Nationhood Defined तथा भाषणों का संकलन Bunch of Thoughts उल्लेखनीय हैं। इसी क्रम में “संघ दर्शन” पुस्तक संघ के मूल सिद्धांतों को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करती है।
 
 
 
पुस्तक की विषय-वस्तु
यह पुस्तक संघ के विचार, संस्कृति और राष्ट्र निर्माण के मार्गदर्शन पर केंद्रित है। अध्यायबद्ध रूप में इसमें संघ की नीतियों, आदर्शों, मानव निर्माण और समाज निर्माण के लक्ष्यों का प्रतिपादन किया गया है। हिंदू संस्कृति की एकात्मता, राष्ट्र के पुनर्निर्माण के उपाय और संगठनात्मक अनुशासन पर इसमें विशेष बल दिया गया है। प्रत्येक स्वयंसेवक की भूमिका को स्पष्ट करते हुए लेखक का उद्देश्य संस्कारयुक्त व्यक्तियों के माध्यम से राष्ट्र निर्माण करना प्रतीत होता है।
 
 
 
लेखक के विचार
गोलवलकर जी को उनके अनुयायी ‘गुरुजी’ कहकर संबोधित करते हैं। उनकी विचारधारा का मूल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। उनका मानना था कि भारत की संस्कृति में निहित तत्व ही राष्ट्र निर्माण के लिए पर्याप्त हैं। वे हिंदुत्व को केवल धार्मिक पहचान न मानकर समावेशी सभ्यता का प्रतीक मानते थे। उनका स्पष्ट विचार था कि “जो अन्य पंथों के प्रति असहिष्णु है, वह कभी भी हिंदू नहीं हो सकता।” इस प्रकार उन्होंने हिंदुत्व को व्यक्तित्व-निर्माण और सभी धर्मों का सम्मान करने के संकल्प से जोड़ा।
गोलवलकर जी की सबसे बड़ी देन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक नींव को स्थिरता प्रदान करना रही। विभाजन के समय उन्होंने एकीकृत भारत (अखंड भारत) पर बल दिया और संघ को संगठनात्मक शक्ति प्रदान की। डॉ. हेडगेवार द्वारा स्थापित ‘तत्वनिष्ठ’ पद्धति को बनाए रखते हुए उन्होंने संघ को व्यापक जन-आंदोलन का रूप दिया।
 
 
संघ के मूल विचार
“संघ दर्शन” में संघ के चार प्रमुख विचारों को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है - 
 
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद: पुस्तक स्पष्ट करती है कि भारत की संस्कृति ही राष्ट्र की आत्मा है। हिंदू शब्द को उन्होंने सर्वव्यापी बहुधार्मिकता और समावेश का प्रतीक बताया। यह दृष्टिकोण हिंदुत्व को समावेशी सभ्यता के रूप में प्रस्तुत करता है।
 
व्यक्तित्व-निर्माण: संघ की नीति का मूल व्यक्ति-निर्माण है। गोलवलकर जी का कहना था कि चरित्र संपन्न व्यक्ति के व्यवहार से ही समाज का परिवर्तन होता है। पुस्तक में यह स्पष्ट कहा गया है कि राष्ट्रभक्तों के चरित्र-निर्माण से ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण संभव है।
 
संगठनात्मक दृष्टिकोण: संघ की कार्यप्रणाली स्वयंसेवकों पर आधारित है। यह स्वावलंबी संगठन है, जिसके खर्चे स्वयंसेवक ‘गुरुदक्षिणा’ से जुटाते हैं। बाहरी दान न लेना और अनुशासन को सर्वोपरि रखना इसकी विशेषता है। इसी से संघ की संगठनात्मक शक्ति विकसित हुई है।
 
सामाजिक समरसता: पुस्तक इस बात पर बल देती है कि सामाजिक समरसता के बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। समानता और बंधुता की भावना संघ के मूल में है। विविधता में एकता और सभी वर्गों की साझी प्रगति ही इसका लक्ष्य है।
 
 
 
पुस्तक की शैली और प्रभाव
“संघ दर्शन” की भाषा सरल, प्रेरक और स्पष्ट है। गोलवलकर जी ने संघ की शिक्षा, उद्देश्य और कार्यप्रणाली का विवेचन दृढ़ता और व्यावहारिकता के साथ किया है। उनकी शैली आदर्शवाद और अनुशासन के संतुलन को दर्शाती है। इस पुस्तक ने संघ कार्यकर्ताओं को आत्मविश्वास और प्रेरणा दी तथा सामान्य पाठकों में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया।
 
 
 
वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता
आज के बहुरंगी समाज और वैश्वीकरण के दौर में “संघ दर्शन” के विचार प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। यह पुस्तक व्यक्ति की नैतिक शक्ति, चरित्र निर्माण और समाज-हित के प्रति निष्ठा पर बल देती है। बढ़ते सामाजिक तनाव और असंतुलन के बीच यह सामाजिक समरसता और एकीकृत भारत के विचार को पुष्ट करती है। यह दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों सहित सभी को सम्मिलित राष्ट्र निर्माण की प्रेरणा देती है।
 
 
 
निष्कर्ष
“संघ दर्शन” पुस्तक भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक चिंतन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह संघ के आदर्शों को परिभाषित करते हुए बताती है कि चरित्र संपन्न व्यक्ति से ही समाज और राष्ट्र का निर्माण होता हैं। साथ ही, समता और बंधुता वाले समाज का निर्माण ही संघ का ध्येय है। इस पुस्तक के विचार भारतीय चिंतन को नई दिशा देते हैं और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तथा सामाजिक समरसता की नींव को मजबूत करते हैं।
 
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