भारतीय नारीशक्ति: परिवार की आत्मा से समाज की शक्ति तक

20 Aug 2025 14:20:19

women


डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारतीय समाज का मूल आधार उसकी परिवार व्यवस्था है। पश्चिमी समाज जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता और एकल जीवन की प्रवृत्ति को अधिक महत्व देता है, वहीं भारत में “परिवार” केवल संबंधों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक संस्था है। यह संस्था न केवल आर्थिक सहयोग, सामाजिक सुरक्षा और भावनात्मक सम्बल प्रदान करती है, बल्कि आने वाली पीढ़ी को संस्कार और मूल्य भी देती है। इस संस्था की धुरी, प्रेरक शक्ति और संतुलन का केन्द्र सदैव महिला रही है। बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश में महिला की भूमिका निरंतर रूपांतरित हुई है, किंतु उसकी केंद्रीयता आज भी अक्षुण्ण है।
 
प्राचीन भारत में महिला की ऐतिहासिक भूमिका
भारतीय परंपरा में महिला को ‘गृहलक्ष्मी’ और ‘धर्मपत्नी’ कहा गया है। ऋग्वेद में नारी को विदुषी, वाक्चातुर्य से सम्पन्न और गृह की आधारशिला बताया गया है। शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं।
 
प्राचीन काल में महिला न केवल घर की व्यवस्था संभालती थी, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों में पति की सहभागी भी रहती थी।
 
महिला की भूमिका परिवार में चार आयामों में प्रकट होती है
पालनकर्ता – बच्चों की प्रथम शिक्षिका और संस्कारदाता।
संरक्षक – परिवार की परंपरा और संस्कृति को सुरक्षित रखने वाली।
समन्वयक – संयुक्त परिवार में विभिन्न पीढ़ियों और संबंधों में संतुलन स्थापित करने वाली।
निर्णायक – पारिवारिक निर्णयों में महत्वपूर्ण सलाह देने वाली।
 
मध्यकालीन भारत में स्थिति
मध्यकालीन आक्रमणों और सामंती व्यवस्थाओं ने महिला की स्थिति को सीमित किया। पर्दा प्रथा, बाल विवाह और स्त्री शिक्षा पर रोक जैसी परंपराओं ने उसे घर की चारदीवारी में कैद कर दिया।
 
फिर भी, ग्रामीण परिवार व्यवस्था में महिला का आर्थिक योगदान जैसे खेती, पशुपालन, कुटीर उद्योग में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।

रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई होल्कर जैसे अनेक ऐतिहासिक उदाहरण बताते हैं कि परिवार और राज्य, दोनों की धुरी महिला हो सकती है।

औपनिवेशिक काल और आधुनिकता का प्रभाव
 
ब्रिटिश शासन के दौरान सामाजिक सुधार आंदोलनों ने महिला की स्थिति में परिवर्तन की दिशा खोली है। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के उन्मूलन का आंदोलन चलाया, ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह का समर्थन किया तो वहीं महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं को समान भागीदारी सुनिश्चित की।

इस काल में महिला की भूमिका घर तक सीमित न रहकर समाज और राष्ट्र तक विस्तृत होने लगी। परिवार व्यवस्था पर इसका प्रभाव यह पड़ा कि महिला ने शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के माध्यम से अपनी स्वतंत्र पहचान बनानी शुरू की।

स्वतंत्र भारत और पारिवारिक संरचना
स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान ने महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और राजनीति में समान अधिकार प्रदान किए जिससे नए अवसर तक उनकी पहुंच सुनिश्चित हुई। महिला अब केवल गृहिणी ही नहीं, बल्कि अर्जक, निर्णायक और समान भागीदार बनी।

सामाजिक-आर्थिक विकास ने परिवार में महिला की भूमिका को नया आयाम दिया है। अब वह गृहिणी के साथ-साथ नागरिक और व्यावसायिक पहचान भी लेकर सामने आई।

समाजशास्त्रीय दृष्टि से महिला की भूमिका
समाजशास्त्र में परिवार को प्राथमिक संस्था माना जाता है। महिला इसमें –
 
भूमिका-निर्धारक (Role Definer) – वह प्रत्येक सदस्य को उसकी जिम्मेदारी का बोध कराती है।
समाजीकरण (Socialization) – बच्चों को संस्कार, मूल्य और परंपरा सिखाती है।
सामाजिक नियंत्रण (Social Control) – परिवार में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखती है।
संस्कृति संवाहक (Carrier of Culture) – परिवार की संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करती है।
 
समकालीन चुनौतियाँ
बदलते समय में महिला की भूमिका और अधिक जटिल हुई है जैसे दोहरी जिम्मेदारी – घर और नौकरी दोनों संभालने का दबाव। मूल्य-संघर्ष, पारंपरिक संस्कार और आधुनिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन। मानसिक दबाव – परिवार और कार्यस्थल दोनों जगह 100 प्रतिशत देने की अपेक्षा।
 
आज की महिला और परिवार का स्वरूप
आज की महिला ने परिवार को नए स्वरूप में ढाला है। वह बच्चों को आधुनिक शिक्षा दिलाते हुए संस्कारों का महत्व भी समझाती है। वह पति की सहयोगी ही नहीं, बल्कि समान भागीदार है। वह वृद्ध माता-पिता की देखभाल करते हुए आर्थिक जिम्मेदारी भी निभाती है। सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों पर उसकी सक्रिय भागीदारी परिवार को व्यापक दृष्टि देती है।
 
भविष्य की दिशा
भारतीय परिवार व्यवस्था में महिला की भूमिका निरंतर परिवर्तनशील रहेगी। इस डिजिटल युग में महिला तकनीकी दक्षता से परिवार और समाज दोनों को दिशा दे रही है। आर्थिक स्वतंत्रता से वह परिवार के निर्णयों में और अधिक निर्णायक होगी। सांस्कृतिक संवाहक के रूप में उसकी जिम्मेदारी और अधिक महत्वपूर्ण होगी क्योंकि वैश्विकता के दौर में भारतीय संस्कारों की रक्षा उसी के हाथों होगी।

भारतीय परिवार व्यवस्था का अस्तित्व महिला की केंद्रीय भूमिका पर ही आधारित है। समय चाहे प्राचीन हो, मध्यकालीन हो या आधुनिक महिला ने सदैव परिवार की धुरी और धड़कन का कार्य किया है। बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में उसकी भूमिका गृहिणी से अर्जक और संरक्षक से परिवर्तनकारी तक विस्तृत हुई है। यदि परिवार भारतीय समाज की आत्मा है, तो महिला उसकी चेतना है।
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