राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है और जितनी जिज्ञासा, प्रश्न और भ्रम इस संगठन को जानने के लिए न केवल भारतीय मीडिया बल्कि वैश्विक समाज और मीडिया में हैं, संभवतः अन्य किसी भी संगठन को लेकर नहीं होंगे। किंतु संघ उस विशाल सागर के समान है जिसके बारे में दूर खड़े होकर उसके आकार, परिमाप, विस्तार और स्वभाव का वास्तविक आकलन नहीं किया जा सकता। दूर से केवल कल्पना और मिथक गढ़े जा सकते हैं। किंतु समुद्र के पास जाकर अंजुली भर पानी पीने से उसके स्वभाव का पता चल जाता है। ठीक वैसे ही विश्व के इस सबसे बड़े संगठन जिसका विचार केवल भारत में ही नहीं बल्कि अनेक देशों में व्यक्ति निर्माण करने का कार्य कर रहा है उसको समझने के लिए एक छोटे से स्थान पर लगने वाली शाखा ही पर्याप्त है।
जैसे समुद्र अपनी व्यापकता और गहराई का स्वयं वर्णन नहीं करता, वैसे ही संघ भी अपने कार्यों का या अपनी सतत् साधना का स्वयं प्रचार नहीं करता। व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण तक की प्रक्रिया में संघ मौन साधना के साथ, बिना प्रसिद्धि और प्रचार-प्रसार के निरंतर सक्रिय और गतिशील है। इसी कारण संघ को लेकर समय-समय पर अनेक अनावश्यक विमर्श खड़े किए जाते रहे हैं। किंतु संघ सामान्यतः इन विमर्शों में उलझने के बजाय अपनी ऊर्जा को उसी क्षेत्र में और अधिक कार्य विस्तार में लगाता है।
संघ को लेकर सबसे चर्चित विमर्शों में से एक महिलाओं की स्थिति और भूमिका है। कहा जाता है कि संघ में महिलाओं का सम्मान और सहभागिता नहीं है। यह धारणा आश्चर्यजनक ही नहीं, बल्कि दया उत्पन्न करने वाली भी है। बिना शोध और बिना जानकारी के संसद से लेकर सोशल मीडिया तक इस तरह का भ्रम फैलाया जाता है। किंतु वास्तविकता बिल्कुल भिन्न है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने विजयादशमी, 1925 को नागपुर में की थी। उस समय पराधीन भारत में परिस्थितियों के कारण पुरुषों का ही संगठन तैयार हुआ। किंतु इसकी कार्यशैली, आत्मीयता और अनुशासन ने शीघ्र ही विभिन्न प्रांतों में विस्तार पाया। समाज में प्रत्यक्ष परिवर्तन दिखने लगा। वर्धा, महाराष्ट्र की लक्ष्मीबाई केलकर ने अपने बच्चों में शाखा जाने से हुए गुणात्मक बदलाव को देखकर हेडगेवार जी से संपर्क किया और महिलाओं व बालिकाओं के लिए भी शाखाओं की अनुमति चाही।
राष्ट्र सेविका समिति महिलाओं में राष्ट्रभक्ति, सनातन संस्कृति के प्रति सम्मान, आत्मरक्षा, अनुशासन और शारीरिक-मानसिक विकास के गुण विकसित करने का कार्य करती रही। इसकी कार्यप्रणाली – शाखाएँ, बैठकें, योजनाएँ, प्रशिक्षण वर्ग, लक्ष्य – सब संघ के समान हैं। संघ जहाँ व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण की बात करता है, वहीं समिति स्त्री को राष्ट्र की आधारशिला मानकर तेजस्वी राष्ट्र के पुनर्निर्माण की दिशा में कार्य करती है। यह संघ की दूरदृष्टि ही थी कि महिलाओं की दिशा और समस्याओं के समाधान का कार्य स्वयं महिलाएँ ही करें, क्योंकि पुरुष इस भूमिका को नहीं निभा सकते।
संघ और समिति का संबंध भाई और बहन के समान है। दोनों की जड़ें, विचारधारा और लक्ष्य समान हैं, किंतु कार्यपद्धति स्वतंत्र है। हेडगेवार जी से लेकर वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत तक, संघ का सहयोग समिति को निरंतर मिलता रहा है। 1936 में संघ की प्रेरणा से स्थापित समिति आज विश्व का सबसे बड़ा महिला संगठन बन चुकी है और लगभग 28 देशों में अपना कार्य कर रही है।
यदि इसकी तुलना विश्व के अन्य महिला संगठनों से करें तो एक है अमेरिका का National Organization for Women (NOW) जिसकी स्थापना 1966 में हुई, और दूसरा है International Council of Women (ICW) जिसकी स्थापना 1888 में हुई। इन दोनों संगठनों और राष्ट्र सेविका समिति में मूलभूत अंतर है। समिति वैश्विक कार्य होने पर भी महिलाओं के अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर जोर देती है। वहीं अमेरिकी और यूरोपीय नारीवादी संगठन अपने-अपने क्षेत्रों में सीमित रहकर केवल अधिकारों की बात करते हैं और परिवार तथा समाज की महत्ता को नज़रअंदाज़ करते हैं।
संघ से प्रेरित संगठनों में भी महिलाओं की भूमिका प्रभावी और निर्णायक रही है। भारतीय स्त्री शक्ति, जिसकी स्थापना 1988 में हुई, शिक्षा, स्वास्थ्य, आत्मसम्मान, आर्थिक स्वतंत्रता और लैंगिक समानता जैसे उद्देश्यों के लिए कार्यरत है। विद्या भारती, जिसकी स्थापना 1977 में हुई, विश्व का सबसे बड़ा गैर-सरकारी शैक्षणिक संगठन है। इसमें 95% से अधिक महिला शिक्षिकाएँ कार्यरत हैं और बालिकाओं को आत्मरक्षा व संस्कारमूलक शिक्षा दी जाती है।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में लाखों छात्राएँ सदस्यता लेकर नेतृत्व और स्वावलंबन के गुण विकसित करती हैं तथा बड़े दायित्वों का निर्वहन करती हैं। भारतीय जनता पार्टी, जिसे विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल माना जाता है, में भी महिलाओं की गरिमामयी उपस्थिति दिखती है चाहे वह सुषमा स्वराज रही हों, सुमित्रा महाजन हों, निर्मला सीतारमण हों या वर्तमान में महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू। भाजपा ने शक्ति वंदन विधेयक के माध्यम से संसद में महिलाओं की स्थिति और सुदृढ़ करने का संकल्प दिखाया है।
भारतीय मजदूर संघ, सेवा भारती, संस्कार भारती, प्रज्ञा प्रवाह, संस्कृत भारती, विज्ञान भारती जैसे अनेक संगठनों में भी महिलाओं की भूमिका संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों रूपों में सक्रिय व निर्णायक है। यदि संघ महिलाओं के प्रति दुराग्रह रखता तो उसकी दो सबसे बड़ी बैठकों – अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल और प्रतिनिधि सभा – में महिलाओं की उपस्थिति न होती।
संघ सदैव मानता आया है कि घर, समाज और राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की महती भूमिका होती है। इसलिए ऐसे किसी भी विमर्श की प्रासंगिकता नहीं रह जाती, जो केवल विरोध के लिए फैलाए गए भ्रम पर आधारित हो। सत्य को किसी प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं होती; समाज संघ और समिति के कार्यों से ही उसकी प्रामाणिकता को स्वीकार करता है।