डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
जन्माष्टमी का आध्यात्मिक महत्व
जन्माष्टमी केवल एक धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि हिंदू दर्शन के अवतारवाद सिद्धांत की सजीव व्याख्या है। भागवत पुराण (दशम स्कंध) में कहा गया है—
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति, तदा धर्मसंस्थापनार्थाय भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।”
कंस का अत्याचार, भय और अन्याय से त्रस्त जनता, और देवताओं की प्रार्थना—इन सभी ने श्रीकृष्ण अवतार की पृष्ठभूमि तैयार की।
भागवत पुराण के विशिष्ट प्रसंग और उनके दार्शनिक अर्थ
(क) कारागार में जन्म
श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की कारागार में, आधी रात को, वसुदेव और देवकी के यहाँ हुआ।
दार्शनिक संकेत:
अंधकार = अज्ञान का प्रतीक।
कारागार = कर्म और माया के बंधन का प्रतीक।
जन्म का समय = जब धर्म और सत्य की रोशनी सबसे अधिक आवश्यक होती है, तब ईश्वर प्रकट होते हैं।
(ख) यशोदा-नंद के घर पालन
वसुदेव द्वारा कृष्ण को यमुना पार कर गोकुल में यशोदा और नंद के यहाँ पहुँचाना।
दार्शनिक संकेत:
माता यशोदा = मातृत्व की ममता और निस्वार्थ प्रेम का प्रतीक।
यह प्रसंग दर्शाता है कि ईश्वर का पालन केवल राजमहलों में नहीं, बल्कि सरल ग्राम्य जीवन में भी होता है।
(ग) पूतना वध (दशम स्कंध, अध्याय 6)
पूतना ने विष पिलाकर बालक कृष्ण को मारने का प्रयास किया, परंतु कृष्ण ने उसका उद्धार किया।
दार्शनिक संकेत:
ईश्वर शत्रु के लिए भी मोक्षदायक होते हैं।
अधर्म का अंत और आत्मा की शुद्धि, ईश्वर के संपर्क में आने से संभव है।
(घ) गोवर्धन धारण (दशम स्कंध, अध्याय 25)
इंद्र का अहंकार तोड़ने के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की।
दार्शनिक संकेत:
प्रकृति पूजन की सनातन परंपरा का महत्व।
अहंकार के स्थान पर विनम्रता और सहयोग को अपनाना।
(ङ) रासलीला (दशम स्कंध, अध्याय 29–33)
गोपियों के साथ रास केवल नृत्य नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के दिव्य मिलन का प्रतीक है।
दार्शनिक संकेत:
सच्ची भक्ति में एकत्व की अनुभूति।
ईश्वर के साथ संबंध केवल भय या नियमों पर नहीं, बल्कि प्रेम पर आधारित है।
भगवद्गीता के श्लोक और उनका विश्लेषण
(1) निष्काम कर्म का सिद्धांत (अध्याय 2, श्लोक 47)
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
अर्थ: मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं।
संदेश: धर्म के मार्ग पर चलते हुए कर्म करें, फल की चिंता ईश्वर पर छोड़ें।
(2) धर्म की स्थापना का वचन (अध्याय 4, श्लोक 7–8)
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत…”
अर्थ: जब भी धर्म की हानि और अधर्म का उदय होता है, तब ईश्वर अवतरित होते हैं।
संदेश: जन्माष्टमी इसी दिव्य प्रतिज्ञा का उत्सव है।
समभाव का सिद्धांत (अध्याय 5, श्लोक 18)
“विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि…”
अर्थ: ज्ञानी व्यक्ति सभी में समान आत्मा को देखता है।
संदेश: जाति, वर्ग, रूप या स्थिति—इन सब से ऊपर उठकर सबमें ईश्वर को देखना।
(4) योग और आत्मसंयम (अध्याय 6, श्लोक 6)
“बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।”
अर्थ: जिसने स्वयं को वश में कर लिया, उसका आत्मा ही मित्र है।
संदेश: भक्ति के साथ आत्मअनुशासन आवश्यक है।
वर्तमान संदर्भ में जन्माष्टमी
आज के समय में, जब समाज भौतिकवाद, उपभोगवाद और नैतिक पतन से जूझ रहा है—
गोवर्धन धारण हमें पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा देता है।
पूतना वध हमें सामाजिक बुराइयों से बचने का संकेत देता है।
निष्काम कर्म हमें स्वार्थ छोड़कर राष्ट्र और समाज के लिए कार्य करने का मार्ग दिखाता है।
सनातनी आस्था का जीवंत रूप
जन्माष्टमी का उपवास, रात्रि-जागरण, झांकी सजाना, मथुरा-वृंदावन के उत्सव, महाराष्ट्र की दही-हांडी—ये सब यह प्रमाणित करते हैं कि सनातन संस्कृति में धर्म केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि जीवन जीने की शैली है।
भागवत पुराण और भगवद्गीता के संदेश मिलकर यह स्पष्ट करते हैं कि श्रीकृष्ण का जीवन केवल 5,000 वर्ष पहले का इतिहास नहीं, बल्कि आज भी जीवंत दर्शन है।
जन्माष्टमी हमें यह याद दिलाती है कि—
धर्म की रक्षा में साहस और प्रेम दोनों आवश्यक हैं।
ईश्वर का मार्ग भक्ति, ज्ञान और कर्म—तीनों का संगम है।
अधर्म चाहे कितना भी प्रबल हो, अंततः सत्य ही विजय पाता है।