प्रेमसिंह धाकड़
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गुरु पूजन की परंपरा एक अद्वितीय और बहुआयामी उत्सव है, जो संगठन की पहचान, वित्तीय आत्मनिर्भरता और वैचारिक दृढ़ता का एक केंद्रीय स्तंभ है। इस लेख में इस परंपरा के अर्थ, इसके ऐतिहासिक उद्भव, विशिष्ट अनुष्ठानों और इसके गहन संगठनात्मक तथा दार्शनिक महत्व का विस्तृत विश्लेषण है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय, व्यक्ति पूजा से हटकर 'तत्व पूजा' की ओर एक दूरदर्शी संक्रमण को दर्शाता है, जिसने संगठन को अद्वितीय स्थिरता प्रदान की है। गुरु दक्षिणा की अवधारणा, जो इस उत्सव का अभिन्न अंग है, केवल धन संग्रह का माध्यम नहीं है, बल्कि स्वयंसेवकों में त्याग, समर्पण और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना को विकसित करने का एक शक्तिशाली साधन है। यह प्रणाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बाहरी वित्तीय निर्भरता से मुक्त रखती है, उसकी वैचारिक स्वायत्तता सुनिश्चित करती है और स्वयंसेवकों को वर्ष में कम से कम एक बार संगठन से जोड़कर उनकी प्रतिबद्धता को नवीनीकृत करती है। कुल मिलाकर, गुरु पूजन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठनात्मक लचीलेपन, वैचारिक दृढ़ता और व्यापक सामाजिक प्रभाव को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान अत्यंत पूजनीय और केंद्रीय रहा है। गुरु-शिष्य परंपरा इस भूमि की ज्ञान और आध्यात्मिक विरासत का आधारस्तंभ है, जहाँ गुरु को ज्ञान का प्रदाता, मार्गदर्शक और जीवन का उद्धारक माना जाता है। इसी परंपरा के सम्मान में गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा, जिसे आषाढ़ पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय संस्कृति में एक अत्यंत महत्वपूर्ण उत्सव है । यह पर्व विशेष रूप से महर्षि वेदव्यास को समर्पित है, जिन्हें आदिगुरु माना जाता है। महर्षि वेदव्यास ने मानव जीवन को गुणों पर आधारित करते हुए महान आदर्शों को व्यवस्थित रूप से समाज के सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने विचार और आचार का समन्वय करते हुए, न केवल भारतवर्ष बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। यही कारण है कि भगवान वेदव्यास को 'जगत् गुरु' कहा जाता है और उनके सम्मान में ही 'व्यासो नारायणम् स्वयं' का उद्घोष किया जाता है । इस दार्शनिक पृष्ठभूमि के कारण, गुरु पूर्णिमा को 'व्यास पूर्णिमा' के नाम से भी जाना जाता है। इस पावन अवसर पर, गुरुओं के प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त किया जाता है, और भगवान विष्णु तथा मां लक्ष्मी की पूजा का भी विशेष महत्व है।
भारतीय संस्कृति में गुरु की कल्पना केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक दार्शनिक अवधारणा है। 'अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन् चराचरं, तत्पदं दर्शितंयेनं तस्मै श्री गुरुवे नम:' यह श्लोक गुरु की उस भूमिका को दर्शाता है जो मनुष्य को सृष्टि के अखंड स्वरूप को समझने में सहायता करता है। यह अवधारणा बिंदु से लेकर संपूर्ण सृष्टि को चलाने वाली अनंत शक्ति, परमेश्वर तत्व तक के सहज संबंध को प्रकट करती है। इसका अर्थ यह है कि गुरु वह है जिसके चरणों में बैठकर मनुष्य से लेकर समाज, प्रकृति और परमेश्वर शक्ति के बीच के संबंधों को समझने की अनुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है । भारतीय दर्शन के अनुसार, संपूर्ण सृष्टि चैतन्ययुक्त है और चर-अचर में एक ही ईश्वर तत्व विद्यमान है। इस सत्य को समझकर, सृष्टि के संतुलन की रक्षा करते हुए और सृष्टि के साथ समन्वय स्थापित करते हुए जीना ही मानव का परम कर्तव्य है। 'सृष्टि को जीतने की भावना विकृति है-सहजीवन ही संस्कृति है' यह सिद्धांत भारतीय जीवन-दर्शन का मूल है, जो परस्पर पूरकता और त्याग पर आधारित है। त्याग, समर्पण और समन्वय ही हिन्दू संस्कृति के मूल आधार हैं, जो मानव जीवन और सृष्टि में शांतियुक्त,सुखमय और आनंदमय जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं । गुरु पूर्णिमा का पर्व भारतीय सनातन परंपरा में गुरुओं के सम्मान और महर्षि वेदव्यास के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस पारंपरिक पर्व को अपने छह प्रमुख उत्सवों में सर्वोपरि मानता है । संघ इस पारंपरिक पर्व को केवल मनाता ही नहीं, बल्कि इसे अपनी विशिष्ट वैचारिक और संगठनात्मक आवश्यकताओं के अनुरूप ढालता है। यह 'गुरु' की पारंपरिक अवधारणा को 'व्यक्ति' से हटाकर एक 'तत्व' (भगवा ध्वज) पर केंद्रित करता है।, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्वयंसेवकों और व्यापक समाज में एक सांस्कृतिक निरंतरता पैदा करता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गुरु परंपरा भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा से प्रेरणा लेती है, लेकिन इसमें एक मौलिक और दूरदर्शी परिवर्तन किया गया है। संघ किसी व्यक्ति विशेष को गुरु नहीं मानता, बल्कि एक अमूर्त 'तत्व' को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करता है, जिसका प्रतीक परम पवित्र भगवा ध्वज है। व्यक्तिगत गुरु के स्थान पर परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरु मानने का मौलिक सिद्धांत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय से ही यह रीति-नीति रही है कि संघ किसी व्यक्ति को अपना गुरु नहीं मानता । इसके बजाय, संघ 'गुरु तत्व' को ही गुरु मानता है। संघ के स्वयंसेवक परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरु रूप में पूजते हैं । संघ संस्थापक प. पूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने व्यक्ति पूजा को निषेध करते हुए भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया । यह निर्णय संघ के मूल सिद्धांतों में से एक है, जो उसे अन्य संगठनों से अलग करता है। प. पूज्य आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी का यह निर्णय अत्यंत दूरदर्शी था और इसके पीछे गहरे वैचारिक कारण थे। उनका मानना था कि व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, उसमें अपूर्णताएँ हो सकती हैं और वह सदैव एक समान अडिग नहीं रह सकता । व्यक्तिगत गुरु के चयन से भविष्य में नेतृत्व परिवर्तन, विवाद या व्यक्तिगत दोषों के कारण संगठन में विघटन का खतरा हो सकता था। इसके विपरीत, 'तत्व' सदा अटल और शाश्वत रहता है । भगवा ध्वज उसी अटल तत्व का प्रतीक है, जो किसी व्यक्ति की क्षणभंगुरता से परे है। यह निर्णय संघ को किसी व्यक्ति विशेष के प्रभाव से मुक्त रखकर उसकी वैचारिक निरंतरता और स्थिरता सुनिश्चित करता है । यह स्वयंसेवकों में एक सामूहिक पहचान और निष्ठा विकसित करता है जो व्यक्तिगत निष्ठा से परे होती है, जिससे संगठन की दीर्घकालिक वैचारिक एकजुटता और निरंतरता बनी रहती है। भगवा ध्वज को गुरु मानने के पीछे इसका गहरा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व है। यह ध्वज तपोमय एवं ज्ञाननिष्ठ भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक सशक्त और पुरातन प्रतीक माना जाता है, जो हजारों सालों से चली आ रही परंपरा का द्योतक है । इसे भगवान के आगमन चिन्ह, अग्नि शिखाओं की प्रतिकृति और राष्ट्र की आत्मा की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है।
भगवा रंग त्याग, तपस्या और बलिदान का प्रतीक है, और यह भारतीय इतिहास के कई महत्वपूर्ण क्षणों से जुड़ा हुआ है। शिवाजी महाराज, गुरु गोविंद सिंह और 1857 के स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारियों ने भी केसरिया झंडे का उपयोग किया था, जो हिंदुत्व के पुनर्जागरण का प्रतीक है । संघ की शाखाओं में इसी ध्वज को लगाया जाता है, इसका ही वंदन होता है और इसी ध्वज को साक्षी मानकर सारे कार्यकर्ता राष्ट्रसेवा और जनसेवा की प्रतिज्ञा लेते हैं । यह ध्वज राष्ट्र का संपूर्ण इतिहास, संस्कृति और परंपरा को आंखों के सामने लाता है और मन में स्फूर्ति का संचार करता है । इस प्रकार, भगवा ध्वज केवल एक झंडा नहीं, बल्कि संघ के लिए एक जीवंत आदर्श और प्रेरणा का स्रोत है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गुरु पूजन की परंपरा का सूत्रपात संघ की स्थापना के कुछ वर्षों बाद हुआ, जो इसकी संगठनात्मक संरचना और वित्तीय आत्मनिर्भरता की नींव रखने में महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी द्वारा 1925 में की गई थी। हालांकि, गुरु पूजा का कार्यक्रम विधिवत रूप से तीन साल बाद, 1928 में आरंभ हुआ, और तब से यह अनवरत चल रहा है । डॉ. हेडगेवार जी ने स्वयंसेवकों को 'गुरुपूजन का उत्सव' मनाने और अपनी श्रद्धा के अनुसार फूल तथा दक्षिणा लाने की सूचना दी थी । प्रारंभ में स्वयंसेवकों के मन में जिज्ञासा थी कि गुरु के रूप में किसकी पूजा की जाएगी। कुछ स्वयंसेवकों ने डॉक्टर जी या अन्ना सोहोनी जैसे व्यक्तियों का अनुमान लगाया था । यह जिज्ञासा इस बात का प्रमाण है कि संघ के भीतर गुरु की अवधारणा को लेकर एक नई दिशा दी जाने वाली थी।
1928 में हुए पहले गुरु पूजन के अवसर पर, डॉ. हेडगेवार जी ने अपने भाषण में स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी व्यक्ति को गुरु नहीं मानता, बल्कि परम पवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु मानता है । उन्होंने इस निर्णय के पीछे के तर्कों को भी समझाया, जिसमें व्यक्ति की अपूर्णता और तत्व की अटल प्रकृति पर जोर दिया गया। भाषण के उपरांत, सर्वप्रथम डॉक्टर जी ने स्वयं गुरु पूजन किया। तत्पश्चात, समवेत स्वयंसेवकों ने एक-एक करके भगवा ध्वज की पूजा की । इस पहले गुरु दक्षिणा समारोह में कुल 84 रुपये और कुछ आने (जैसे कि एक स्वयंसेवक द्वारा अर्पित किया गया आधा पैसा भी) जमा हुए थे । यह प्रारंभिक राशि, भले ही छोटी थी, संघ की वित्तीय आत्मनिर्भरता की एक महत्वपूर्ण शुरुआत थी।
गुरु पूर्णिमा को संघ के छह प्रमुख उत्सवों (वर्ष प्रतिपदा, विजयादशमी, मकर संक्रांति, हिंदू साम्राज्य दिवस, गुरु पूर्णिमा और रक्षा बंधन) में सर्वोपरि माना गया है । यह परंपरा तब से अनवरत चल रही है, और गुरु दक्षिणा की राशि समय के साथ कई गुना तक पहुंच गई है । यह कार्यक्रम संगठन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ उसके तात्विक अधिष्ठान को सुदृढ़ करने का एक पुण्यप्रद और समर्थ साधन सिद्ध हुआ है।
गुरु पूजन की परंपरा का सूत्रपात संघ की स्थापना के तीन साल बाद, 1928 में हुआ । यह शुरुआत केवल आध्यात्मिक या सांस्कृतिक कारणों से नहीं, बल्कि संघ की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने की एक रणनीतिक आवश्यकता के रूप में हुई थी, जिस पर 1928 में संघ के अधिकारियों के बीच चर्चा हुई थी । डॉ. हेडगेवार जी ने इसे एक ऐसे तरीके से प्रस्तुत किया जो भारतीय सांस्कृतिक परंपरा (गुरु-शिष्य) में निहित था। प्रत्येक वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी सभी शाखाओं में गुरु पूजन उत्सव मनाता है ।जिसमें स्वयंसेवक परम पवित्र भगवा ध्वज को अपना गुरु मानकर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं और उसके समक्ष समर्पण राशि भेंट करते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक अनूठी विशेषता यह है कि वह किसी से भी कोई चंदा, सदस्यता शुल्क या दान इत्यादि नहीं लेता । यह दुनिया का शायद अकेला समाजसेवी संगठन है जो आर्थिक तौर पर पूरी तरह आत्मनिर्भर है । संघ का सारा खर्च स्वयंसेवकों द्वारा गुरु पूर्णिमा पर अर्पित की गई गुरु दक्षिणा से ही चलता है । यह वित्तीय मॉडल संघ को बाहरी वित्तीय और वैचारिक दबावों से मुक्त रखता है, जिससे वह अपने उद्देश्यों को स्वतंत्र रूप से पूरा कर पाता है।
गुरु दक्षिणा केवल धन संग्रह का एक माध्यम नहीं है, बल्कि यह स्वयंसेवकों के वैचारिक और भावनात्मक एकीकरण का भी एक शक्तिशाली उपकरण है। वित्तीय योगदान को 'गुरु' (भगवा ध्वज) के प्रति 'समर्पण' के रूप में प्रस्तुत करके, यह एक भौतिक कार्य को आध्यात्मिक और वैचारिक प्रतिबद्धता में बदल देता है। यह प्रणाली संघ को न केवल वित्तीय रूप से स्वतंत्र बनाती है, बल्कि स्वयंसेवकों के बीच 'त्याग' और 'समर्पण' के मूल संघ मूल्यों को भी मजबूत करती है। गोपनीयता सुनिश्चित करती है कि योगदान का मूल्य उसकी मात्रा में नहीं, बल्कि उसके पीछे की भावना और निष्ठा में निहित हो, जिससे आंतरिक समानता और सामूहिक पहचान बढ़ती है। इस दोहरे उद्देश्य की पूर्ति से, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ऐसा संगठन बन पाता है जो अपने सदस्यों की आंतरिक प्रतिबद्धता पर पूरी तरह निर्भर करता है। यह बाहरी प्रभावों से मुक्त होकर अपने विचार को स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ा सकता है, जबकि साथ ही अपने कार्यकर्ताओं में गहरी वैचारिक जड़ें और एक मजबूत सामूहिक भावना विकसित करता है।
गुरु पूजन के अवसर पर, स्वयंसेवक भगवा ध्वज को साक्षी मानकर राष्ट्रसेवा और जनसेवा की शपथ लेते हैं । यह ध्वज केवल एक प्रतीक नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र का संपूर्ण इतिहास, संस्कृति और परंपरा को स्वयंसेवकों की आंखों के सामने लाता है और उनके मन में स्फूर्ति का संचार करता है । यह शपथ और ध्वज का साक्षी होना स्वयंसेवकों को उनके राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध करता है।