लोकमान्य तिलक: स्वराज्य, स्वाभिमान और सनातन राष्ट्रधर्म के अग्रदूत

23 Jul 2025 12:02:00

TILAK


- डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
भारत के स्वाधीनता संग्राम में कुछ व्यक्तित्व ऐसे रहे जिन्होंने केवल नेतृत्व नहीं किया, अपितु एक विचारधारा, एक चेतना और एक ध्येय के रूप में राष्ट्र के मानस में समाहित हो गए। उन्हीं में अग्रणी नाम है – लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक।
उनकी जयंती (23 जुलाई) केवल एक स्मृति पर्व नहीं, बल्कि वह दिन है जब राष्ट्र के आत्मगौरव, सांस्कृतिक स्वातंत्र्य और हिंदू जीवन-दर्शन के पुर्नस्थापन का बीज बोया गया।

उनका उच्चारित वाक्य –
"स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा"
– भारतीय इतिहास का वह क्षण था जब दासता से संघर्ष का उद्घोष सम्पूर्ण भारत में गूंज उठा। यह केवल नारा नहीं था, यह हिंदुस्तान की आत्मा की पुकार थी।

जीवन परिचय: शास्त्र, शस्त्र और राष्ट्रधर्म का समन्वय
लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को रत्नागिरी (महाराष्ट्र) में हुआ। वे बाल्यकाल से ही प्रखर बुद्धिमान, आत्मविहीन अनुशासनप्रिय और धर्मपरायण रहे। उन्होंने पुणे के डेक्कन कॉलेज से गणित और संस्कृत में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वे संस्कृत और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान, गणितज्ञ, दार्शनिक, पत्रकार, वकील, और राजनीति शास्त्री थे।

किन्तु इन सबसे ऊपर वे भारत माता के आज़ाद होने के स्वप्नद्रष्टा थे। उनका जीवन इस भावना का उदाहरण था कि –

 “ज्ञान केवल आत्मकल्याण के लिए नहीं, राष्ट्र के जागरण के लिए होना चाहिए।”
. स्वराज्य का दर्शन: एक वैचारिक क्रांति

लोकमान्य तिलक ने पहली बार भारतीय राजनीति में "स्वराज्य" को लक्ष्य घोषित किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा –
“कोई भी विदेशी सत्ता हमारे ऊपर शासन नहीं कर सकती क्योंकि यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हम अपने भाग्य के स्वामी स्वयं बनें।”

इस स्वराज का अर्थ उन्होंने केवल राजनीतिक सत्ता परिवर्तन नहीं माना, बल्कि उसे एक बहुस्तरीय, आत्म-गौरव आधारित संपूर्ण परिवर्तन के रूप में देखा:
राजनीतिक स्वराज्य: अंग्रेजों से पूर्ण मुक्ति
सांस्कृतिक स्वराज्य: भारतीय धर्म, परंपरा, भाषा और मूल्यों की पुनर्स्थापना
शैक्षिक स्वराज्य: ब्रिटिश शिक्षा के स्थान पर भारतीय ज्ञान-परंपरा आधारित व्यवस्था
आर्थिक स्वराज्य: स्वदेशी, ग्रामोद्योग और आत्मनिर्भरता का समर्थन
 
उनकी दृष्टि में स्वराज कोई संकुचित राष्ट्रवाद नहीं था, बल्कि ‘धर्म-संस्कार से युक्त जाग्रत राष्ट्र’ की स्थापना थी।

हिंदुत्व का उद्घोष और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

तिलक पहले राजनेता थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से हिंदू संस्कृति और राष्ट्रवाद के बीच संबंध स्थापित किया। उनके लिए हिंदुत्व कोई सांप्रदायिक अवधारणा नहीं थी, बल्कि भारत की आत्मा का सजीव स्वरूप था। उन्होंने कहा:
“हिंदू राष्ट्र के बिना भारत की कल्पना अधूरी है।”


उनके सांस्कृतिक अभियान:

गणेशोत्सव (1893): धार्मिक उत्सव को जनजागरण और राजनीतिक एकता का माध्यम बनाया।
शिवाजी महोत्सव (1895): मराठा वीर शिवाजी को हिंदवी स्वराज्य के प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित किया।
गीतारहस्य: भगवद्गीता का व्याख्यात्मक ग्रंथ जिसमें उन्होंने "कर्मयोग" को राष्ट्रधर्म से जोड़ा।

इन आयोजनों और लेखनों के माध्यम से तिलक ने भारत की उस आत्मा को पुनः जगाया जिसे वर्षों की गुलामी, जातिगत विखंडन और पश्चिमी प्रभाव ने दबा दिया था।

कर्मयोगी तिलक: पत्रकारिता और जनजागरण
तिलक ने ‘केसरी’ (मराठी में) और ‘मराठा’ (अंग्रेज़ी में) समाचारपत्रों के माध्यम से देशवासियों को राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से जाग्रत किया।

उन्होंने लिखा –
“यदि आपको स्वतंत्रता चाहिए, तो उसे कलम और कर्म दोनों से अर्जित करना होगा।”

ब्रिटिश सत्ता उनके लेखों से भयभीत थी, और इसी कारण उन्हें राजद्रोह के मुकदमों में कई बार जेल भेजा गया।
मांडले (बर्मा) की जेल में उन्होंने ‘गीता रहस्य’ की रचना की – एक ऐसी पुस्तक जो आज भी कर्तव्य और राष्ट्रधर्म के पथ पर चलने का मार्गदर्शन देती है।

राजनीतिक नेतृत्व: गरम दल के ध्वजवाहक
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उन नेताओं में थे जिन्होंने पार्टी को मांगों की राजनीति से संघर्ष की राजनीति की ओर मोड़ा।
लाल-बाल-पाल तिकड़ी:

लाल: लाला लाजपत राय
बाल: बाल गंगाधर तिलक
पाल: बिपिन चंद्र पाल

इस तिकड़ी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में "प्रत्यक्ष क्रांति" और "जन जागरण" की नींव रखी।

उन्होंने स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार आंदोलन और राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन को जन-आन्दोलन में बदल दिया। उनके नेतृत्व ने क्रांतिकारी विचारधाराओं को भी वैचारिक समर्थन दिया।

प्रमुख आदर्श वाक्य और उनका प्रभाव
“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।”


→ यह केवल स्वतंत्रता संग्राम का नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा की पुकार है।
“धर्मो रक्षति रक्षितः।”
→ यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे, तो धर्म हमारी रक्षा करेगा।
“कर्तव्य ही धर्म है।”
→ गीता के कर्मयोग को उन्होंने राष्ट्रीय कर्तव्य से जोड़ा।
इन सूत्रवाक्यों ने न केवल उनके समय के राष्ट्रवादियों को दिशा दी, बल्कि आज भी यह युवाओं के मन में राष्ट्र के लिए कर्तव्य भावना जाग्रत करते हैं।
आज के भारत के लिए तिलक की प्रासंगिकता
आज जब भारत ‘आत्मनिर्भर भारत’, ‘डिजिटल भारत’, ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ जैसे अभियानों की ओर अग्रसर है, तब तिलक की यह दृष्टि अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है:

स्वराज्य: अब केवल राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक, भाषायी, आर्थिक और तकनीकी स्वराज्य की आवश्यकता है।
हिंदुत्व: अब सांप्रदायिक नहीं, सांस्कृतिक गौरव और सहिष्णुता का मूल स्रोत है।
शिक्षा और भाषा: भारत को अपनी भाषाओं और परंपराओं के बल पर वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ना चाहिए।
राष्ट्रीय एकता: जैसे तिलक ने गणेशोत्सव और शिवाजी महोत्सव से जन को जोड़ा, वैसे ही आज भी सांस्कृतिक एकता ही सामाजिक समरसता का आधार बन सकती है।
तिलक का अमर उत्तराधिकार
1920 में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विचारधारा, प्रेरणा और आदर्श आज भी जीवित हैं। वे भारतीय राष्ट्रवाद की नींव हैं –
संघर्षशील, सांस्कृतिक, और स्वाभिमानी राष्ट्रवाद।
उनकी जयंती के अवसर पर हमें केवल उन्हें श्रद्धांजलि नहीं देनी है, बल्कि उनके बताए मार्ग पर चलकर
"सच्चे स्वराज्य की स्थापना" करनी है – जो केवल संविधान की किताब में नहीं,
बल्कि हर भारतीय के स्वभाव, व्यवहार और विचार में परिलक्षित हो।


लोकमान्य तिलक के अमर प्रेरणा सूत्र

क्रम सूत्रवाक्य अर्थ
1 स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है अधिकार मांगना नहीं, अर्जित करना होता है
2 धर्मो रक्षति रक्षितः धर्म की रक्षा करना राष्ट्ररक्षा है
3 कर्तव्य ही धर्म है राष्ट्रसेवा सर्वोपरि है
4 शास्त्र और शस्त्र दोनों आवश्यक ज्ञान और शक्ति का संतुलन
5 संस्कृति राष्ट्र की आत्मा है बिना संस्कृति के राष्ट्र अधूरा है
जय लोकमान्य!
जय हिंदुस्थान!
जय भारत माता!
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