संविधान निर्माताओं की दृष्टि पर इंदिरा गांधी का कुठाराघात

28 Jun 2025 12:19:21

constitution

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

 
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगाए गए क्रूर आपातकाल (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) के दौरान न केवल नागरिक स्वतंत्रताओं का हनन हुआ, बल्कि संवैधानिक मूल्यों और प्रक्रियाओं से भी खुले आम छेड़छाड़ की गई। ये वह समय था जब संविधान और लोकतंत्र की हत्या कर दी गई थी। ‌उस समय संविधान में 42 वां संशोधन -1976 कर सेक्युलरिज्म, समाजवादी शब्द संविधान की उद्देशिका (Preamble) में जोड़े गए। जोकि 3 जनवरी 1977 से लागू हुए। जबकि हमारे संविधान निर्माता इन दोनों शब्दों के पक्ष में कभी नहीं थे।
इस संशोधन के जरिए जोड़े गए शब्दों की वैधता और औचित्य पर वर्षों से प्रश्न उठते रहे हैं। यह जानना आवश्यक है कि संविधान निर्माताओं ने इन शब्दों को प्रारंभिक संविधान में सम्मिलित क्यों नहीं किया था, और क्या 1977 का यह संशोधन वास्तव में लोकतांत्रिक भावना के अनुरूप था?
संविधान सभा में प्रो. के.टी. शाह संविधान में सोशलिस्ट एवं सेक्युलर शब्द जोड़ने का प्रस्ताव लेकर गए थे।‌ उस समय संविधान निर्माण की प्रारुप समिति के अध्यक्ष बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने उनके प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था। प्रोफेसर के.टी शाह ने 15 नवंबर,1948 को संविधान सभा से प्रस्तावना में मुख्यतः तीन शब्द - निरपेक्ष धर्म, संघीय और समाजवादी को शामिल करने की मांग की थी लेकिन कई अन्य सदस्यों के साथ ही डॉ. अंबेडकर ने भी इन्हें शामिल करने से अस्वीकार कर दिया था।
डॉ अंबेडकर ने कहा था “श्रीमान् उपाध्यक्ष महोदय, मुझे खेद है कि मैं प्रो. के.टी. शाह का संशोधन स्वीकार नहीं कर सकता। संक्षेप में मेरी दो आपत्तियाँ हैं। पहली आपत्ति तो यह है, जैसा कि मैं प्रस्ताव के समर्थन में सदन में दिये अपने उद्घाटन भाषण में कह चुका हूँ कि संविधान राज्य के विभिन्न अंगों के कार्यों को विनियमित करने वाली एक क्रियाविधि मात्र है। यह कोई ऐसा तंत्र नहीं है जिसके माध्यम से किसी दल के किन्हीं सदस्यों को पदासीन कर दिया जाता है। राज्य की नीति क्या हो, समाज को सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से किस प्रकार व्यवस्थित किया जाये, ये ऐसे मसले हैं जो स्वयं लोगों द्वारा समय तथा परिस्थितियों के अनुसार तय किए जाने चाहिए। संविधान स्वतः यह निर्धारित नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना लोकतंत्र को पूरी तरह से नष्ट करने जैसा होगा। यदि आप संविधान में यह व्यवस्था करते हैं कि राज्य का सामाजिक स्वरूप एक विशेष प्रकार का होगा तो मेरी दृष्टि में, आप लोगों से अपने सामाजिक स्वरूप तय करने की आजादी छीन रहे हैं जिसमें वे रहना चाहते हैं। आज यह बिल्कुल सम्भव है कि अधिकतर लोग यह मान लें कि समाज की समाजवादी व्यवस्था समाज की पूंजीवादी व्यवस्था से बेहतर है। परंतु पूर्णतः यह भी संभव हो सकता है कि चिंतनशील लोग सामाजिक व्यवस्था के कुछ दूसरे स्वरूप ईजाद कर लें जो आज या कल की समाजवादी व्यवस्था से बेहतर साबित हो। इसलिए मैं नहीं समझता कि संविधान को लोगों को एक विशेष रूप में रहने के लिए बाध्य करना चाहिए और इसके बारे में तय करने का अधिकार लोगों पर ही छोड़ देना चाहिए जिसकी वजह से संशोधन का विरोध किए जाने का यह पहला कारण है।
दूसरा कारण है कि संशोधन बिलकुल अनावश्यक है। मेरे माननीय मित्र प्रो. शाह ने इस तथ्य का ध्यान नहीं रखा है कि संविधान में सम्मिलित मूल अधिकारों के अलावा हमने दूसरी धाराओं का भी प्रावधान किया है जो राज्य नीति निर्देशात्मक सिद्धांतों से संबंधित हैं। यदि मेरे माननीय मित्र भाग IV में समाविष्ट अनुच्छेदों को पढ़ें तो वह पायेंगे कि विधायिका और कार्यपालिका दोनों को ही संविधान द्वारा नीति के स्वरूप के बारे में कुछ जिम्मेवारियाँ सौंपी गई हैं।”
(बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खण्ड 27 - प्रकाशक, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकार)
इसी प्रकार लोकसभा में सेक्युलर स्टेट नाम लेने पर जब एक सदस्य ने प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से सेक्यूलर स्टेट का मतलब पूछा तो उन्होंने अर्थ बताने के स्थान पर सदस्य को डाँटकर शब्द कोश देखने के लिए कह दिया था। उस समय 'सेक्युलर' और 'समाजवाद' दोनों शब्द संविधान की शब्दावली में कहीं नहीं थे। यानी डॉ अंबेडकर से लेकर पंडित नेहरू और संविधान सभा के अधिकांशतः सदस्य इन दोनों शब्दों के पक्ष में नहीं थे। क्योंकि वो संविधान की उद्देशिका में इन शब्दों का कोई औचित्य नहीं मानते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि संविधान के मूल अधिकारों और नीति निर्देशों समेत संवैधानिक उपबंधों ये समस्त भावनाएं अंतर्निहित हैं। अतएव इन शब्दों का संविधान में उल्लेख करना संविधान निर्माताओं ने औचित्य नहीं समझा। वहीं ये तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे संविधान का निर्माण उस समय की स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया था। जब भारत का विभाजन नहीं हुआ था। अर्थात् संविधान निर्माताओं की दृष्टि को उपेक्षित कर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान अपने मनचाहे संशोधन किए। क्या ये संशोधन तुष्टिकरण के लिए किए गए थे? क्या इन संशोधनों के पीछे विदेशी प्रभाव था? क्या अब इन दोनों शब्दों को संविधान की उद्देशिका से पुनः नहीं हटाया जा सकता है? ये कुछ बड़े सवाल हैं जिनके ज़वाब समय के पाले में हैं।
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