कुलदीप नागेश्वर पंवार -
आज दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के देश पर थोपे गए 21 महीने लंबे राष्ट्रीय आपातकाल का अर्द्धशतक पूरा हुआ। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक का यह वो समय था, जब आंतरिक अशांति के कारण की आड़ में भारतीय पत्रकारिता, लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई गई. वर्तमान परिदृश्य में केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के विरोध स्वरूप पत्रकारिता की स्वतंत्रता को लेकर ना-ना प्रकार की टिप्पणियां टीवी डिबेट्स और सोशल मीडिया पर तैरती रहती हैं। दैनिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इसे लेकर लंबे-लंबे व्यंग्यात्मक आलेख पढ़ने को मिलते है। नैरेटिव गढ़ा जाता है कि आज की पत्रकारिता बीते एक दशक से अघोषित आपातकाल से गुजर रही है। 2014 में सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पत्रकारिता के स्थापित संस्थानों पर अपने नियंत्रकों की तैनाती कर दी है। अब टीवी और समाचार में वही दिखता और छपता है, जो सरकार चाहती है।
"केंद्र सरकार लोकतंत्र की हत्या कर रही है।" "NDA सरकार के फैसले संविधान की आत्मा पर गहरी चोट है।" "पीएम एक तानाशाही शासक है।" जैसे विरोध के स्वर स्वतंत्र रुप से न केवल सोशल मीडिया बल्कि टीवी डिबेट्स, समाचार पत्रों की हैडलाइन्स और संपादकीय पृष्ठों पर सुनाई व दिखाई देते है। और इन्हीं को बोलने, लिखने और छापने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों, विचारकों और विपक्ष के नेताओं की पीड़ा है कि मोदी सरकार ने बीते एक दशक से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया है। कितने ही पत्रकारों, लेखकों, छात्रों, विचारकों को अकारण ही जेलों में ठूंस दिया है। भाजपा का यह अघोषित आपातकाल लोकतंत्र और संविधान की हत्या के समान है। इस एक शब्द पर गौर करें - आपातकाल.. इमरजेंसी.. क्या आप मेरे संकेत को समझें? हां, मानस पटल पर एक छवि उभरकर आई ना.. जिसमें पत्रकारिता, लोकतंत्र और संविधान का गला घोटते एक ब्रुटल लेडी दिखाई दे रही है?
25 जून, 1975 भारतीय लोकतंत्र का वह काला दिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने और बेटे संजय गांधी के काले कारनामों को छुपाने और अपनी साख बचाने के लिए लोकतंत्र, लोकतांत्रिक आधार स्तंभों (न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और पत्रकारिता), संविधान और संवैधानिक व्यवस्था सभी को निर्दयतापूर्वक एक साथ सूली पर लटका दिया। विपक्ष के नेताओं को पीएम इंदिरा गांधी द्वारा इस बर्बरता की आशंका पहले से ही थी। नतीजन आपातकाल की खबर लगते ही जॉर्ज फर्नांडिस, नानाजी देशमुख, सुब्रमण्यम स्वामी जैसे कुछ नेता अंडर ग्राउंड हो गए लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवानी जैसे कई नेताओं को रातों रात जेलों में ठूंस दिया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई, और समाचार पत्रों के संपादकों को स्पष्ट निर्देश जारी कर दिए गए कि इंदिरा सरकार के विरोध में कुछ भी लिखा या छापा तो सीधे जेल होगी और प्रेस के दफ्तर पर ताला ठोक दिया जाएगा। वहीं सोई हुई देश की जनता को काली अंधेरी रात में लगाए इंदिरा गांधी के इस आपातकाल की न खबर थी न समझ।
इस आपातकाल के पीछे का कारण थी इंदिरा गांधी की वही राजनीतिक अति महत्वाकांक्षा। जिसने कभी उन्हें अपने पिता पं. जवाहरलाल नेहरु तो कभी पति फिरोज गांधी (फिरोज जहांगीर) के विरोध में ला खड़ा किया। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले से इंदिरा गांधी की इस राजनीतिक अति महत्वाकांक्षा पर करारी चोट की। भ्रष्ट तरीकों के उपयोग के आधार पर न्यायालय ने मौजूदा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। इधर समाचार एजेंसी पीटीआई ने इस समाचार को जारी किया और उधर ऑल इंडिया रेडियो ने इस समाचार को पूरे देश को सुना दिया। खबर आग की तरह फैल गई। जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं के नेतृत्व में हो रहे सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों ने आग में घी का काम किया और कुछ ही समय में इंदिरा गांधी के खिलाफ विरोध चरम पर जा पहुंचा। अब इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी दूर जाते दिखाई दी। तो वहीं इसकी गाज गिरी तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल पर, मंत्री पद तो गया ही खुदमुख़्तार युवराज संजय गांधी ने जमकर फटकार लगाई सो अलग।
आज की पत्रकारिता को दरबारी और गोदी मीडिया बनाने वालों को शायद आपातकाल की पत्रकारिता से परिचय नहीं है। जब गुजराल के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने विद्याचरण शुक्ल ने इंदिरा गांधी और आपातकाल के विरोध में मुखरता से लिख रहे सभी समाचार पत्रों के संपादकों को मंत्रालय में बुलाकर दो टूक कह दिया था कि - "सरकार आपके काम से खुश नहीं है." और जब कुछ ने विरोध किया तो उन्हें सीधे धमका दिया गया कि - "फिर हम देखेंगे कि आपके साथ क्या बर्ताव करना है.." पत्रकारिता पर इंदिरा की पड़ी काली परछाई ने संपादक इस तरह आतंकित थे कि गिरफ्तारी के दौरान जयप्रकाश नारायण के आपातकाल को लेकर दिए बयान "विनाश काले विपरीत बुद्धि" को 18 महीनों तक किसी भी समाचार पत्र ने छापने का साहस तक नहीं किया। यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार था, जब संस्थानों और एजेंसियों के सामने सरकार की बात न मानने पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा था।
फिर क्या था सरकार विरोधी खबरें समाचारों से छूमंतर हो गई। संपादकों ने दबाव में आकर अखबारों को इंदिरा गांधी सरकार का मुख पत्र बना दिया। जहां थोड़ा झुकने को कहा गया, वहां वे रेंगने लगे। लेकिन आपातकाल की इस आंधी में भी पत्रकारिता का दीप निरंतर प्रकाशमयी रहा। तब भी कुछ थे, जिन्होंने पत्रकारिता की आत्मा को जीवित बनाए रखा। माणिकचंद्र वाजपेयी (मामाजी) उन्हीं पत्रकारिता के संरक्षकों में से एक है, जिन्होंने ने स्वाधीनता संग्राम से ही भारतीयता की आवाज और मूल पहचान बन चुकी पत्रकारिता की साख को बनाए रखा। लेकिन उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। सरकार ने कई सख्तियों के साथ विज्ञापन रोक दिए और उन्हें ईनाम में मिली जेल की काल कोठरी। उन्होंने 20 महीने जेल में बिताए।
वर्तमान पत्रकारिता और परिस्थितियों को आपातकाल के समकक्ष रखने वाले ये वही लोग है, जिन्हें न तो पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों, कर्तव्यों और वर्तमान चुनौतियों का ज्ञान है और नहीं आपातकाल जैसी परिस्थितियों की भयावहता, असुरक्षा और अमानवीयता का आभास। पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में विभिन्न विचारधाराओं के बोझ तले दबकर, अपने आकाओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने और उनके राजनीतिक हितों को साधते हुए, हर दिन नए नैरेटिव गढ़ने को कुछ लोगों ने पत्रकारिता समझ लिया है।
विडंबना है कि लेफ्ट-राइट-सेंटर में उलझे इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने कभी स्वयं को पत्रकारिता के मूल और गहराई को समझने, समय-काल-परिस्थिति अनुरुप उसकी महत्ता को जानकर उसे ठीक करने का जोखिम ही नहीं उठाया। अपने-अपने ब्रह्माण्ड के इन ज्ञानियों को ये समझाना होगा कि - आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), ChatGPT जैसी तकनीकी के इस दौर में वातानुकूलित कक्षों में बैठकर इंटरनेट से संगणक (कंप्यूटर) की सहायता से मनचाही कहानी बनाकर लोगों के बीच सनसनी फैलाना, भ्रामकतापूर्ण समाचारों को आकर्षक बनाकर रंगीन, मनोहारिक चित्रों के साथ छापना या मुफ्त के डेढ़ जीबी डेटा से सोशल मीडिया पर बे सिर-पैर की 10 पोस्ट फेंकना पत्रकारिता नहीं है। देश में चौथी बार आपातकाल लगाने के समान ही प्रतीत होता है। कभी इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में आहुत हुई क्रांतिकारी पत्रकारिता की तपिश को अंगीकार किया होता तो आज न लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इस तरह खोखला हुआ होता और ना ही इन्हें वर्तमान समय आपातकाल सा प्रतीत होता।