रमेश शर्मा
होलिकोत्सव अवध से आरंभ हुआ था, अवध की होली लगभग डेढ़ माह चलती है। समय के साथ अवध की इस होली के बहुत स्वरूप बदले, मनाने का तरीका भी बदला किन्तु उत्सव की गरिमा उल्लास और सामाजिक समरसता का संदेश यथावत है। लोक साहित्य में भले ब्रज की होली सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय हो। लेकिन संसार में होली उत्सव का आरंभ अवध से हुआ था। अवध क्षेत्र में ही हरदोई है जहाँ देवि होलिका ने प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्निप्रवेश किया था। वहाँ प्रह्लाद कुण्ड बना है और प्रतिवर्ष मेला लगता है। हरदोई अवध राज्य का अंग रहा है। इतिहास में अवध ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। सीमाएँ भी घटी बढ़ी हैं। फिर भी आज के अवध क्षेत्र में 26 जिले आते हैं। हरदोई एक जिला केन्द्र है। हरदोई में नारायण के दो अवतार हुये- पहला भगवान नरसिंह के रूप में और दूसरा भगवान वामन के रूप में, दो अवतार के कारण क्षेत्र को "हरिद्वय" कहा गया। जो अपभ्रंश होकर नाम हरदोई हो गया। होलिकोत्सव भी यहीं से हुआ और यहाँ से आरंभ होकर संसार भर में फैला है।
होलिकोत्सव के विभिन्न आयाम है। इसका आरंभ आठ दिन पहले होलिकाष्टक से होता है । गाय के गोबर से मलरियाँ बनतीं हैं। और फाल्गुन पूर्णिमा को पूजन होता है । पूर्णिमा की शाम को पवित्र स्थान चयन करके एक दंड स्थापित करके पूजन करना होता है। यह स्थान घर के भीतर चौगान या ऑगन भी हो सकता है और बाहर सार्वजनिक स्थल भी, फिर अग्नि प्रज्वलित करके गेहूँ की बालियाँ सेकीं जातीं हैं और पिछले आठ दिनों से घरों में बन रहीं गोबर की मलरियाँ अग्नि को समर्पित की जाती हैं। फिर एक दूसरे को शुभकामनाएँ देना, गले मिलना होता है। अगले दिन नृत्य गीत, चल समारोह, एक दूसरे के घर जाना, रंग डालना, गुलाल लगाना आदि। यह परंपरा पूरे संसार में एक समान है। कहीं-कहीं होलिका अग्नि में नई आई फसल की बालियाँ सेकने और आठ दिन पहले से गाय के गोबर की मलरियाँ बनाने की परंपरा विलुप्त हो गई है पर अवध के अधिकांश परिवारों में यह परंपरा अभी भी देखी जा सकती है।होलिकोत्सव में यह विभिन्न परंपराएँ और पूजन प्रक्रिया अतीत में घटीं विभिन्न घटनाओं का प्रतीक हैं और भविष्य में व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिये संदेश भी हैं।
उत्सव के पौराणिक आख्यान
होलिकोत्सव की सभी परंपराएँ अलग-अलग घटनाओं से संबंधित हैं। हर घटना की अपनी कहानी और संदेश है। पौराणिक कथाएँ अतीत की घटनाओं का प्रस्तुतिकरण तो हैं ही पर उनमें मानव समाज के निर्माण का संदेश भी है। इसलिए अनेक घटनाओं एक सूत्र में संयोजन यह होलिकोत्सव है। पौराणिक संदर्भ में पहली कथा शिव और शक्ति के मिलन से जुड़ी है, दूसरी कामदेव के भस्म होने के बाद देवि रति के पुनर्मिलन से है। इन दोनों में वासना रहित शुद्ध सात्विक और आत्मीय स्नेह मिलन का संदेश है। तीसरी कथा त्रेता युग में भगवान विष्णु द्वारा पृथ्वी के अंश धूलि वंदना की मिलती है, चौथी कथा होलिका दहन की है यही कथा सर्वाधिक प्रचलित है। लेकिन होलिकोत्सव के पूरे आयोजन में इन सभी कथाओं की झलक भी है और संसार के लोक जीवन को आदर्श बनाने का संदेश भी है।
होलिका दहन की जो कथा सर्वाधिक प्रचलित है उसके अनुसार हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र प्रह्लाद को जलाकर मार डालना चाहता था। होलिका उनकी बहन थी। होलिका के पास एक वरदानी चादर थी जिसपर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं होता था। होलिका भतीजे प्रह्लाद को लेकर चिता में बैठीं, अग्नि प्रज्वलित हुई। तभी चमत्कार हुआ वह चादर प्रह्लाद पर लिपट गई और होलिका का दहन हो गया, यह घटना अवध में घटी। इसका मूल स्थान अवध का हरदोई है बाद में इस उत्सव के आयोजन का प्रमुख केंद्र अयोध्या बना। प्रह्लाद को बचाने के लिये होलिका ने अपना जीवन उत्सर्ग किया इसलिये होली माता कहा जाता है और होली की अग्नि और राख दोनों को पवित्र माना जाता है। पूजन होलिका का बलिदान का होता है और उत्सव प्रह्लाद के बचने का मनाया जाता है। सब एक दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं। तिलक नारायण उपासना का प्रतीक है इसलिए होली पर एक दूसरे को तिलक लगाया जाता है। भगवान श्रीमन् नारायण की भक्ति की विजय की प्रतीक यह तिथि एक उत्सव के रूप में बदल गई जिसमें बसंत ऋतु का प्रभाव और नई फसलें आने का उल्लास भी जुड़ गया। और यह उत्सव कहीं दस दिन, कहीं पंद्रह दिन और कहीं डेढ़ माह तक विस्तारित हो गया। अवध से होलिकोत्सव पहले पूरे भारत में विस्तारित हुआ और अब दुनियाँ के आधे से ज्यादा देशों में होलिकोत्सव मनाया जाता है।
अवध में होलिकोत्सव परंपरा
अवध में होली अपेक्षाकृत अधिक शालीन और सात्विक होती है। अवध में होलिकोत्सव का आरंभ मंदिरों से होता है यहाँ कीचड़ आदि का प्रयोग आज भी कम होता है। अवध की होली के केन्द्र में प्रभु श्रीराम और माता सीता होती हैं जिन्हें गीतों में प्रतीक के रूप में "प्रिया" और "प्रियतम" संबोधनों का उपयोग हुआ है। अवध विशेषकर अयोध्या में यह उत्सव डेढ़ माह चलता है उत्सव का आरंभ बसंत पंचमी से, और समापन रंग पंचमी को होता है। बसंत पंचमी के दिन अयोध्या के लगभग सभी मठ मंदिर में प्रभु श्रीराम को तिलक लगाकर होलिकोत्सव का शुभारंभ हो जाता है और रंगभरी एकादशी के दिन से प्रतिदिन भगवान को अबीर गुलाल लगा कर होली गीत सुनाएं जाते हैं। ढोलक मंजीरे के साथ गाये जाने वाले गीतों में-
"ओ... केइके हाथ ढोलक सोहै, केइके हाथे मंजीरा-
राम के हाथ ढोलक सोहै, लछिमन हाथे मंजीरा।
ए... केइके हाथ कनक पिचकारी, केइके हाथे अबीरा-
भरत के हाथ कनक पिचकारी शत्रुघन हाथे अबीरा। एक अन्य गीत--
मिथिलापुर एक नारि सयानी,
सीख देइ सब सखियन का,
बहुरि न राम जनकपुर अइहैं,
न हम जाब अवधपुर का।। जब सिय साजि समाज चली,
लाखौं पिचकारी लै कर मां।
मुख मोरि दिहेउ, पग ढील
दिहेउ प्रभु बइठौ जाय सिंघासन मां।। हम तौ ठहरी जनकनंदिनी,
तुम अवधेश कुमारन मां।
सागर काटि सरित लै अउबे,
घोरब रंग जहाजन मां।। भरि पिचकारी रंग चलउबै,
बूंद परै जस सावन मां।
केसर कुसुम, अरगजा चंदन,
बोरि दिअब यक्कै पल मां... अवध की होली में इस प्रकार के अनेक गीत हैं जो मंदिरों में भी गाये जातें हैं होलिकोत्सव के सार्वजनिक आयोजन में भी, अवध की होली अपेक्षाकृत अधिक शालीन होती है। अवध में आज भी चंदन और गुलाल से होली खेलते हुये लोग मिल जायेंगे जो प्राचीन काल की होली के वर्णन में मिलता है। इसके अतिरिक्त अवध के गावों में फूलों और वेलों से प्राकृतिक रंग बनाने और उनसे खेलनै की भी परंपरा है। चंदन, गुलाल और प्राकृतिक रंग त्वचा के लिये सबसे सुरक्षित होते हैं। यहाँ कीचड़ आदि का वैसा प्रयोग नहीं होता जैसा बुन्देलखण्ड में होता है और ब्रज की लट्ठमार होली की भाँति लाठियों का उपयोग भी नहीं होता। समय के साथ कुछ बुराइयाँ आ रहीं हैं पर वे सीमित ही हैं सामाजिक रूप नहीं ले सकीं हैं। अवध के होलिकोत्सव का प्रभाव ब्रज की होली पर आज भारत ही नहीं पूरे विश्व में अवध का होलिकोत्सव सर्वाधिक चर्चा में रहता है। इसके दो कारण हैं- एक तो श्रीमद्भागवत महापुराण के दसवें स्कंध का रासोत्सव जो भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के साथ खेलते हैं। समय के साथ इस रास का विस्तार होलिकोत्सव के रूप में हो गया, और दूसरा कारण लट्ठमार होली। हालाँकि कहीं-कहीं कीचड़ लगाने, कपड़े फाड़ने, आग का अंगारा फेकने की कुछ परंपराएँ जुड़ गई हैं पर लट्ठमार होली का आयोजन ब्रज में अनूठा है जिसे देखने के लिये दुनियाँ भर का आकर्षण रहता है। ब्रज की यह लट्ठमार होली बरसाने में होती है। यह परंपरा कब जुड़ी इसकी लोक कथाएँ अलग-अलग हैं। यदि यह लट्ठमार होली परंपरा अलग कर दें तो ब्रज के होली गीतों और उत्सव मनाने की पूरे विधान पर अवध की होली की छाप बहुत स्पष्ट है। अवध की होली मंदिरों से आरंभ होती है। भगवान श्रीराम माता सीता सहित सभी प्रतिमाओं को क्रमशः चंदन रोली सहात रंग गुलाल अबीर का तिलक किया जाता है । इसी प्रकार ब्रज में होली का आरंभ भी मंदिरों से होता है। भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी को रंग गुलाल लगाकर। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक आयोजन भी पूरी गरिमा के साथ होता है कोई अशिष्टता नहीं बहुत आदर्श गीतों के साथ। चूँकि लट्ठमार होली परंपरा से इतर उत्सव मनाने की अन्य शैली समान है तो स्वाभाविक है कि किसी एक स्थान का प्रभाव दूसरे पर रहा होगा। यह प्रभाव अवध से आरंभ हुआ यह भी स्पष्ट है । होलिका दहन अवध के हरदोई में और भगवान श्रीराम का अवतार पहले हुआ यह निर्विवाद है। ब्रज के परंपरागत होली गीतों में अवधी बोली का प्रभाव है। जैसे अवध में एक होली गीत है - "अवध में होली खेंले... रामोसिया"
बिल्कुल इसी प्रकार ब्रज का एक होली गीत है-
ब्रज में होली खेलें रंग रसिया"
यह पंक्ति ब्रजभाषा से थोड़ा भिन्न है । लेकिन अवधी बोली से मेल खाती है ।
होलिकोत्सव की यह परंपरा अवध से ही आरंभ हुई और पूरे संसार में फैली। होलिकोत्सव की प्राचीनता अतीत के आख्यानों में जहाँ तक दृष्टि जाती है होलिकोत्सव का विवरण मिलता है । वर्तमान सभ्यता के पहले आर्य सभ्यता के साहित्य में तो होली का विवरण है ही मोहन जोदड़ों की खुदाई कुछ चिन्ह ऐसे भी मिले हैं मानों एक दूसरे पर पानी फेका जा रहा है । लगता है यह होलिकोत्सव के ही प्रतीक चिन्ह हों । होली का वर्णन और विवरण हर युग साहित्य रचना में मिलती है । पुराणों में भी और श्रृंगार के संस्कृत साहित्य में भी । श्रीमद्भागवत के दशवें स्कंध में रास वर्णन मानो होलिकोत्सव के नृत्य का ही रूप है । हर्षचरित की प्रियदर्शिका, रत्नावली एवं कालिदास के कुमार संभवम् , मालविकाग्निमित्रम्, में होलिकोत्सव का उल्लेख आता है वहीं ऋतुसंहार में एक पूरा सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' पर है। संस्कृत साहित्य में वसन्त के साथ होली की चर्चा है। हिन्दी साहित्य में भी चंद बरदाई, कवि विद्यापति, सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर, बिहारी, केशव, घनानंद आदि आधिकांश कवियों का प्रिय विषय होली रहा है। भारत भ्रमण पर आने वालों के विवरण में भी होलिकोत्सव का उल्लेख है । इसमें चीनी यात्री ह्वैनसाँग और मध्य एशिया के अलबरूनी भी हैं। अंग्रेज लेखकों ने भी होली का पर्याप्त वर्णन किया है । महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। साहित्य की सभी प्रस्तुति में बसंत का पर्याय होली है और इसे अनुराग और प्रीति माना गया है । आगे चलकर यह सात्विक अनुराग का प्रतीक राधा कृष्ण के बीच खेली गई होली बनी । अनेक सूफी संतों और बहादुर शाह जफर शायरों ने भी होलीगीत लिखे हैं । आधुनिक हिन्दी साहित्य और फिल्मी गीतों में होली का पर्याप्त प्रस्तुतिकरण हुआ है। होलिकोत्सव की व्यापकता होलिकोत्सव अब भारत में ही नहीं विश्व के अनेक देशों में भी मनाया जाता है । भारत के सभी पड़ौसी देशों नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, सुरीनाम, मारीशस, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, ट्ररीनाड आदि देशों के साथ अमेरिका, फ्रांस ब्रिटेन जर्मनी आदि देशों में भी प्रवासी भारतीय होलिकोत्सव मनाते हैं। काठमांडू में तो यह उत्सव एक सप्ताह तक चलता है । अनेक कैरिबियाई देशों में बिल्कुल भारत की भाँति हर्ष उल्लास और नृत्य गीतों के साथ यह होली उत्सव मनाया जाता है। यहाँ होली को फगुआ के नाम से जाना जाता है । इसकी शुरुआत करने वाले भारतीयों के वे पूर्वज हैं जो अंग्रेजीकाल में श्रमिकों के रूप में वहाँ ले जाय गये थे । विषमता और विपरीत परिस्थिति में उन लोगों ने अपनी त्यौहार परंपराएँ संजों कर रखीं और अपने त्यौहार अपने ढंग से मनाते हैं। वहाँ उनके द्वारा गाये जाने वाले गीत स्थानीय भाषा में तो हैं पर उनका मूल भाव वही है जो भारतीय होली गीतों का है । मारिशस, गुआना और सूरीनाम के महत्वपूर्ण त्यौहारों में होलिकोत्सव की गणना होती है । गुआना में होली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है। होलिकोत्सव का सामाजिक संदेश भारत की कोई भी परंपरा निरर्थक नहीं है । व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण का उद्देश्य इन उत्सव परंपराओं में निहित है । होलिकोत्सव की कथाओं और मनाने की रीति में भी यही उद्देश्य है । होलिकोत्सव की आरंभिक दोनों कथाएँ जो शिव और पार्वती के मिलन और कामदेव के भस्म होने की हैं, इनमें वासना रहित प्रेम और मिलन के उल्लास का सात्विक स्वरूप है । वासना रहित सात्विक प्रेम जीवन में ऊर्जा देता है तो वासना जीवन का ह्रास करती है । नारायण द्वारा धूलि की वंदना और शिव द्वारा धूमि को माथे पर धारण करना सूक्ष्मतम पदार्थ के महत्व के स्मरण का प्रतीक है । इसी स्मृति को दूसरे दिन धुलेंडी के नाम से जाना जाता है । एक दूसरे को रंग गुलाल लगाकर गले मिलने का संदेश समाज के समरस स्वरूप का है । समाज में कोई क्षण ऐसा अवश्य हो जब न कोई छोटा हो, न कोई बड़ा, न निर्धन, न धनी, न उम्र का कोई बंधन और न रंग रूप का । पूरा समाज एक रंग में। सब एक दूसरे को देखकर आनंदित हों। सबसे महत्वपूर्ण है व्यक्ति के निर्माण का । व्यक्ति का निर्माण गर्भाधान से ही आरंभ होता है । गर्भादान संस्कार के समय माता के भाव क्या हैं, पिता के भाव क्या हैं और किस वातावरण में बच्चे की परवरिश की जाती है । हिरण्यकश्यपु के गर्भ धारण करते समय माता दिती के भाव और पिता कश्यप ऋषि की रोषभरी खीज पुत्र में देखी गई। वहीं गर्भादान के समय माता कयादू का मन मानस और उनके द्वारा हिरण्यकश्यपु के मानस की तैयारी पुत्र प्रह्लाद में स्पष्ट है। यह त्यौहार नयी फसल के आने पर मनाया जाता है । फसल के लिये कठोर परिश्रम लगता है । तब उपलब्धि होती है । अर्थात उत्सव नृत्य गीत का आयोजन परिश्रम के सफल परिणाम के बाद ही होना चाहिए।