जयंती - माधव सदाशिवराव गोलवलकर

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    23-Feb-2025
Total Views |

Shri Guruji
 
 
रमेश शर्मा -
 
 
कुधारणाओं के निवारण और सही मार्गदर्शन के लिये प्रकृति समय-समय पर दिव्य विभूतियाँ को संसार में अवतरित करती है जो विषमताओं और विपरीत परिस्थियों में व्यथित मानवता को एक निश्चित दिशा का संकेत करते हैं। ऐसी ही दिव्य विभूति थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर जी। जो "परमपूज्य गुरुजी" के संबोधन से जाने जाते हैं।
 
उनका जन्म 19 फ़रवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। उनके पिता श्री सदाशिव राव उपाख्य 'भाऊ जी' पहले डाकघर में कार्यरत थे फिर 1908 में शिक्षक बने। माता लक्ष्मीबाई उपाख्य 'ताई' धार्मिक, आध्यात्म और साँस्कृतिक परंपराओं की वाहक थीं। परिवार ने उनका नाम माधव रखा, पर वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। परिवार का वातावरण भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्यों के साथ आधुनिक शिक्षा का था इसलिये बालक मधु की जीवन धारा इन दोनों दिशाओं के समन्वय के साथ संवाहित हुई।
 
जो दिव्य और विशिष्ट विभूतियाँ संसार में आतीं हैं उनके जन्म के प्रथम दिन से ही असाधारणत: लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। यही असाधारण झलक बालक मधु में भी थी। माता पिता से उनकी यह विलक्षण प्रतिभा छुपी न रह सकी। जब दो वर्ष के थे पिता ने तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ कर दी थी। पिता स्वयं पढ़ाते और बालक की जिज्ञासाओं का समुचित समाधान करते। बालक मधु की स्मरण शक्ति अद्भुत थी, वे एक बार सुनकर या पढ़कर कंठस्थ कर लेते थे। ज्ञान की लालसा और उसका स्वयं विश्लेषण करने का स्वभाव ठीक वैसा ही था जैसे बचपन में स्वामी दयानन्द सरस्वती या स्वामी विवेकानंद का पढ़ने को मिलता है। समय के साथ शिक्षा और आयु आगे बढ़ी। 1922 में प्रथम श्रेणी में 'हाई स्कूल परीक्षा' उत्तीर्ण की। सन् 1924 में नागपुर के ईसाई मिशनरी 'हिस्लाप कॉलेज' से इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण की। इन दोनों परीक्षाओं में उन्होंने केवल प्रथम श्रेणी ही प्राप्त नहीं की अपितु विशेष योग्यता भी अर्जित की जिससे छात्रवृत्ति एवं पारितोषिक भी प्राप्त किया। उनके विषय अंग्रेजी और विज्ञान रहे । छात्र जीवन में वे पढ़ाई के साथ अन्य गतिविधियों में भी भाग लेते थे और बौद्धिक गतिविधियों के साथ उनकी खेलों में भी रुचि थी। कबड्डी, हाकी और टेनिस जैसे खेल उन्हे अति प्रिय थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम, कुश्ती मलखम्ब के करतबों में भी वे बहुत कुशल थे।
 
विश्वविद्यालय जीवन -
 
इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की शिक्षा के लिये माधव 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आये। उन्होने 1926 में बी.एससी. और 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें उत्तीर्ण कीं। महाविद्यालयीन परीक्षा में उनके विषय प्राणी विज्ञान था। ये परीक्षाएँ भी प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। उनकी खेल, वाद-विवाद और बौद्धिक गतिविधियाँ महाविद्यालयीन जीवन में भी उत्कृष्ट रहीं। इस प्रकार वे अपने महाविद्यालयीन जीवन में एक सर्वप्रिय छात्र रहे।
 
परिवार की पृष्ठभूमि संस्कृत और साँस्कृतिक थी। ये दोनों विधायें उनके जीवन में सदैव साथ चलीं। महविद्यालयीन जीवन में अपने निर्धारित विषयों के साथ उन्होंने इन दोनों विधाओं का भी अन्वेषण निरंतर रखा। "संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन पाठन किया। यह परिवार के संस्कार और अध्ययन की रुचि का प्रभाव था कि महाविद्यालयीन जीवन से ही उनके जीवन में आध्यात्मिक ज्योति जागृत हो गई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु चेन्नई के मत्स्यालय से जुड़ गये। पर यहाँ एक वर्ष के भीतर ही उनके समक्ष दो समस्याएँ सामने आईं, एक तो पिताश्री सेवानिवृत्त हो गये अतैव इसके परिवार में कुछ आर्थिक समस्या आई एवं दूसरे स्वयं माधव चैन्नई में बीमार हो गये। उनका उपचार दो माह चला और यह एक प्रकार से उनका पुनर्जीवन था।
 
आर्थिक कठिनाई के चलते अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस आ गये। नागपुर आकर भी ये दोनों समस्याएँ उनके सामने रहीं। एक स्वास्थ्य और दूसरी पारिवार की आर्थिक समस्या। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा, उनकी आत्मशक्ति और व्यायाम आदि से स्वास्थ्य सामान्यता की ओर बढ़ रहा था। आर्थिक स्थिति सुधारने कै लिये उन्होंने स्थानीय स्तर पर अध्ययन अध्यापन का कार्य आरंभ किया और इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदर्शन पद का प्रस्ताव मिला, जिसे उन्होने स्वीकार किया और 16 अगस्त 1931 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में पदभार ग्रहण कर लिया। यहाँ अपने निर्धारित कार्य के साथ वे युवाओं को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सक्षमता पर भी ध्यान देते बातें करते और यहीं से उन्हें गुरुजी संबोधन या उपाख्य मिला।
 
उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-शास्त्र था, पर उनकी रुचि और सक्रियता देखकर विश्वविद्यालय ने उन्हें बी.ए.कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का दायित्व भी सौंप दिया। माधव राव जी का विषय यद्यपि प्राणी विज्ञान था पर वे अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय में भी मार्ग दर्शन करते थे। पुस्तकों के लिये वे केवल पुस्तकालय के भरोसे नहीं रहते थे अपितु स्वयं भी पैसे बचाकर पुस्तकें क्रय कर लिया करते थे। बहुत कम समय में उनके पास निजी पुस्तकों का एक बड़ा संग्रह बन गया। स्थिति यह थी कि उनके वेतन का एक बड़ा भाग अपने छात्रों और मित्रों की फीस भरने अथवा उन्हे पुस्तकें देने में ही व्यय हो जाया करता था। बनारस में रहते हुये 1934 में श्रीगुरूजी ने अखंडनानंद जी से विधिवत दीक्षा लेकर उनके शिष्य बने और इस प्रकार उनके जीवन की यात्रा में एक नया आयाम जुड़ा।
 
संघ से संपर्क और प्रवेश -
 
गुरु जी ने अपने नागपुर जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ के संस्थापक डा हेडगेवार के के बारे में सुन लिया था परन्तु संघ को समझने का बीजारोपण बनारस में ही हुआ। बनारस में उनका संपर्क भैय्याजी दाणी से हुआ। भैय्या जी दाणी नागपुर के स्वयंसेवक थे डॉ॰ हेडगेवार ने उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजा था। श्री गुरूजी का संपर्क उनसे बना और गुरुजी संघ के सम्पर्क में आये। संघ की शाखा प्रारंभ हुई और उस शाखा के संघचालक गुरुजी बने। गुरुजी ने बनारस में संघ कार्य का विस्तार किया और 1937 में नागपुर वापस आ गए। नागपुर लौटकर श्री गुरूजी को डॉ हेडगेवार का सानिध्य मिला, यह 1938 का वर्ष था। यह सानिध्य मानों राष्ट्र और संस्कृति के गौरव की रक्षा के लिये मानों प्रकृति ने नियत किया था। श्री गुरुजी ने डॉ. हेडगेवार ने एक कुशल मार्गदर्शक देखा तो डॉ. हेडगेवार ने श्री गुरूजी के भीतर एक प्रेरणादायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा और इस घड़ी के बाद श्री गुरूजी का जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन विस्तार के माध्यम से राष्ट्र और संस्कृति की सेवा में समर्पित हो गया। डॉ हेडगेवार के साथ निरन्तर रहते हुए श्रीगुरूजी ने अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित कर लिया।
 
द्वितीय सरसंघचालक बने -
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्मसंयम होने के कारण से 1939 में श्री गुरूजी को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में डॉ हेडगेवार अस्वस्थ हुये, काफी उपचार के बाद भी जब स्वास्थ्य सुधार न हुआ तो डा हेडगेवार ने अपने जीवन का अन्त समय जाना और उन्होंने वहाँ उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने श्रीगुरूजी अर्थात माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ कार्य विस्तार का दायित्व सौप दाया। 21 जून 1940 को डाॅ हेडगेवार अनन्त में विलीन हो गए और श्री गुरूजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक बने। श्री गुरूजी ने देस भर में लाहौर, कश्मीर से लेकर सागर तट पर कन्याकुमारी तक यात्राएँ की। संघ कार्य का विस्तार किया और उस समय की राजनैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय परिस्थियों का सामना करने के लिये समाज को तैयार किया।
 
भारत छोड़ो आँदोलन -
 
इसी तैयारी के बीच 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ों आंदोलन का वातावरण बना। श्रीगुरुजी ने स्वयंसेवकों से इस आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने के निर्देश दिये पर कहा कि संघ के बैनर का उपयोग न हो। जहाँ जिस बैनर से आंदोलन चल रहा हो उसी के नेतृत्व में भाग लिया जाये। उनके इस निर्देश के दो कारण थे, एक तो श्रीगुरुजी चाहते थे कि आंदोलन में एकरूपता रहे और दूसरा यह कि वे संघ को पूरी तरह समाज संस्कृति और राष्ट्र सेवा का निमित्त ही बनाना चाहते थे। श्रीगुरुजी की भावना के अनुरुप स्वयं सेवकों ने भारत छोड़ो आँदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बैनर का उपयोग न करके जहाँ जो बैनर सामने था उसी के अंतर्गत योगदान दिया। विदर्भ और महाकौशल के अनेक ऐसे स्थान थे जहाँ इस आंदोलन में गोली चली और स्वयं सेवकों के बलिदान हुये। विदर्भ के चंद्रपुर और महाकौशल के जबलपुर में इस आदोलन के दौरान गोलीचालन से बलिदान होने वाले नौजवान संघ के स्वयं सेवक थे। इस आन्दोलन के दौरान मध्यप्रदेश के सीहोर में बंदी बनाए गये भाई उद्धवदास मेहता भोपाल राज्य के संघचालक थे तो ग्वालियर में बंदी बनाये गये किशोरवय अटल बिहारी बाजपेई भी स्वयंसेवक थे।
  
मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही और भारत विभाजन का दौर -
 
मुस्लिम लीग अपनी स्थापना के दिन से ही मुसलमानों के लिये पृथक राष्ट्र का अभियान चला रही थी और 1930 में मुस्लिम लीग ने बाकायदा पाकिस्तान का नाम और पूरी योजना घोषित कर दी थी। अपनी इसी योजना के अंतर्गत मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 को सीधी कार्यवाही करने की घोषणा कर दी। इस दिन मुस्लिम लीग के प्रभावी क्षेत्रों विशेषकर पंजाब और बंगाल में हिन्दुओं की हत्या का मानों ताण्डव मच गया। उस पीडित मानवता की सेवा के लिये संघ के स्वयंसेवक ही सामने आये। इस भीषण हत्याकांड के बाद एक ओर मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना यदि विभाजन के लिये जनमत बना रहे थे तो दूसरी ओर श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में भारत विभाजन के विरुद्ध डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान कर रहे थे। किन्तु अंग्रेज सरकार का समर्थन मुस्लिम लीग के साथ था और तत्कालीन अन्य वरिष्ठ नेता भी अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनःस्थिति में नहीं थे। अंततः 3 जून 1947 को भारत विभाजन की घोषणा कर दी गई। एकाएक पूरे देश का वातावरण बदल गया। इस कठिन समय में संघ के स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, पंजाब ही नहीं आसपास के सभी क्षेत्र के स्वयंसेवक पाकिस्तान के लिये घोषित भू-भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजने के कार्य में लग गये। संघ का प्रयास था कि जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है। उन कठिन दिनों में स्वयंसेवकों का अतुलनीय साहस, सेवा, समर्पण, पराक्रम, कार्यकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य है। श्री गुरूजी भी भारत के उसी भाग में घूमते रहे जो १५ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान बना दिया गया था। जितना संभव हो सकी गुरूजी के मार्गदर्शन में संघ के स्वयंसेवकों ने सेवा और सहायता की।
 
कश्मीर के भारत विलय में योगदान - 
 
भारत विभाजन के उस कालखंड में मुस्लिम लीग के प्रभाव वाले क्षेत्र में हिन्दुओं की सुरक्षा की जितनी बड़ी चुनौती थी उतना ही महत्वपूर्ण था उन राज्यों को भारत से जोड़ना जो सीमा पर थे और इसमें कश्मीर सबसे महत्वपूर्ण राज्य था। मोहम्मद अली जिन्ना तरह तरह के प्रलोभन और भय दिखाकर कश्मीर के राजा को अपनी ओर मिलाने का कार्य करने में लगा था। ऐसे में तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर रियासत के दीवान मेहरचन्द महाजन से भारत के साथ विलीनीकरण करने के लिए कश्मीर-नरेश श्री हरि सिंह जी को तैयार करने के लिए कहा था और श्री मेहरचन्द महाजन ने मध्यस्थता के लिये श्रीगुरुजी का नाम सुझाया। श्रीगुरुजी के पास संदेश भिजवाया कि वे कश्मीर-नरेश से मिलकर उन्हें विलीनीकरण के लिए तैयार करें। श्रीगुरूजी तैयार हुये, सरदार पटेल और महाजन जी के प्रयास से कश्मीर के राजा हरिसिंह और श्रीगुरुजी की भेंट की तिथि निश्चित हो गई।
 
श्रीगुरुजी 17 अक्तूबर 1947 को विमान द्वारा श्रीनगर पहुँचे। भेंट 18 अक्टूबर को प्रातः हुई। भेंट के समय 15-16 वर्षीय युवराज कर्ण सिंह जांघ की हड्डी टूटने से प्लास्टर में बंधे वहीं लेटे हुए थे। श्री मेहरचन्द महाजन भी भेंट के समय उपस्थित थे। कश्मीर-नरेश का कहना था - मेरी रियासत पूरी तरह से पाकिस्तान से घिरी है । सारे रास्ते सियालकोट तथा रावलपिण्डी की ओर से है। रेल सियालकोट की ओर से है और अनेक व्यवहारिक कठिनाइयाँ हैं। श्रीगुरुजी ने समझाया कि आप हिन्दू राजा हैं। पाकिस्तान में विलय करने से आपको और आपकी हिन्दू प्रजा को भीषण संकटों से संघर्ष करना होगा। यह ठीक है कि अभी हिन्दुस्थान से रेल के रास्ते और हवाई मार्ग का कोई सम्पर्क नहीं है, किन्तु इन सबका प्रबन्ध शीघ्र ही हो जायेगा। आपका और जम्मू-कश्मीर रियासत का भला इसी में है कि आप हिन्दुस्थान के साथ विलीनीकरण कर लें। श्री गुरूजी के समझाने पर अन्ततः कश्मीर नरेश सहमत हो गये। वे 23 अक्टूबर को दिल्ली आये और जम्मू-कश्मीर राज्य का भारतीय गणतंत्र में विलय हो गया ।
 
चीनी आक्रमण के समय श्री गुरूजी की भूमिका - 
 
1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। वह समय पूरे देश के लिये क्षोभ और शोक का था। भारतीय सेना अपने सीमित साधनों से उस आक्रमण का उत्तर देने में जुट गई। पर समाज का मनोबल बढ़ाना, भारतीय सैनिकों को सहायता पहुँचाना और युद्ध प्रभावित क्षेत्र सें सेवा सहायता का काम बड़ी चुनौती का था। इन चुनौतियों से निबटने का काम संघ ने संभाला और श्रीगुरु जी के मार्गदर्शन में संघ के स्वयंसेवक सेवा सहायता के कार्य में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू नेषभी स्वीकारा और सन् 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में के संघ के स्वयंसेवकों को भी आमंत्रण भिजवाया। संघ के गणवेषधारी स्वयंसेवकों का घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।
 
जीवन की अंतिम यात्रा - 
 
श्री गुरुजी के जीवन का समापन रांची में ही हुआ। वहाँ बिहार प्राँत के कार्यकर्ताओं के एक दो दिवसीय वर्ग का आयोजन था। वह 10-11 मार्च 1973 की तिथि थी, आयोजन में लगभग एक हजार स्वयंसेवक उपस्थित थे। कार्यक्रम में बौद्धिक दर्शन देने के बाद श्रीगुरू जी कोलकाता जाने के लिए रांची रेल्वे स्टेशन पहुंचे। कार से उतरते ही लड़खड़ा गए और अस्वस्थ हो गये। वे लगभग तीन माह अस्वस्थ रहे। रांची का आयोजन उनके जीवन का अंतिम सार्वजनिक आयोजन था। 5 जून 1973 को वे देह त्याग कर परम ज्योति में विलीन हो गये।
 
कृतियाँ एवं विचार - 
 
श्रीगुरूजी ने बंच ऑफ थॉट्स तथा वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइंड पुस्तकें लिखीं। 'बंच ऑफ थॉट्स' का हिन्दी में "विचार नवनीत" नाम से अनुवाद हुआ। उनके विचारों पर आधारित संघ द्वारा प्रकाशित "गुरूजी : दृष्टि एवं लक्ष्य" नामक पुस्तक में "हिन्दू - मातृभूमि का पुत्र" नामक एक अध्याय में लिखा है कि 'भारतीय' वही है जिनकी दृष्टि व्यापक है और भारतीय धर्मों के मानने वाले सभी मानते हैं कि ईश्वर एक ही है उसे पाने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं। इस प्रकार श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य परम् पूज्य गुरुजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पौधे को एक विशाल वटवृक्ष का स्वरूप देकर और भारत राष्ट्र में राष्ट्र भाव प्रबल करने के लिये एक सशक्त संगठन और विचार देकर अमृत्तव को प्राप्त हुये। आज वे संसार भर में फैले लाखों करोड़ों स्वयंसेवकों श्रृद्धा और आदर्श जीवन का केन्द्र हैं। कोटिशः नमन्