खाद्य का अपहरण: बीज, कॉर्पोरेट सत्ता और भारत के भविष्य की लड़ाई

28 Dec 2025 12:46:54

khadya apaharan 
  
दीपक द्विवेदी
यह कोई सामान्य चेतावनी नहीं है। यह कोई अकादमिक बहस नहीं है। यह निकट आते वैश्विक खाद्यान्न संकट की स्पष्ट आहट है और भारत इस संकट के केंद्र में खड़ा दिखाई दे रहा है। आज जब दुनिया युद्ध, जलवायु परिवर्तन, महामारी और आर्थिक अस्थिरता से जूझ रही है, तब सबसे खतरनाक प्रश्न यह नहीं है कि तेल या गैस मिलेगी या नहीं, बल्कि यह है कि भोजन किसके नियंत्रण में होगा किसानों के या बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट कंपनियों के? और सच्चाई यह है कि यह नियंत्रण तेज़ी से किसानों के हाथों से फिसल रहा है।
 
भारतीय कृषि की पहचान सदियों तक बीजों की आत्मनिर्भर परंपरा से रही है। किसान अपने बीज स्वयं उगाता था, उन्हें सहेजता था और अगली फसल में उन्हीं बीजों को बोता था। ये बीज स्थानीय मिट्टी, जलवायु और रोगों के अनुसार ढले होते थे। इसी व्यवस्था ने किसान को कम लागत, स्थिर उत्पादन और पोषणयुक्त भोजन दिया। इस दौर में बीज केवल खेती का साधन नहीं थे, बल्कि किसान की स्वतंत्रता और बीज संप्रभुता का आधार थे अर्थात किसान को यह अधिकार था कि वह बीज बचाए, उपयोग करे और साझा करे। समय के साथ यह संतुलन बदलने लगा। जनसंख्या वृद्धि और खाद्यान्न संकट की आशंका के बीच अधिक उत्पादन को कृषि नीति का मुख्य लक्ष्य बना लिया गया। हरित क्रांति के बाद उच्च उपज वाले और संकर बीजों को प्रगति का प्रतीक माना गया। प्रारंभ में उत्पादन बढ़ा, पर इसके साथ खेती की लागत, रासायनिक निर्भरता और जोखिम भी बढ़ते चले गए। किसान, जो पहले बीज का स्वामी था, धीरे-धीरे हर मौसम में बीज खरीदने वाला उपभोक्ता बन गया। यहीं से किसान की बीज संप्रभुता कमजोर होने लगी।
 
इस परिवर्तन के साथ निजी और विदेशी कंपनियों का कृषि क्षेत्र में प्रवेश बढ़ा और बीजों का बाज़ारीकरण हुआ। पारंपरिक देशी बीज पीछे छूटते चले गए, जिससे किसान की आर्थिक स्थिति कमजोर हुई और खेती पर उसका नियंत्रण घटता गया। आज उत्पादन बढ़ने के बावजूद किसान असुरक्षित है और भोजन की गुणवत्ता पर भी प्रश्न उठ रहे हैं।
 
यह अध्ययन इसी पृष्ठभूमि में यह समझने का प्रयास करता है कि बीज संप्रभुता में आई यह गिरावट किसान, पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा को कैसे प्रभावित कर रही है, और क्या भारत फिर से उस दिशा में लौट सकता है जहाँ बीज किसान के हाथ में हों और कृषि स्वतंत्र व टिकाऊ बनी रहे।
 
बीज: कृषि का नहीं, सत्ता का प्रश्न
बीज केवल खेती का साधन नहीं है। बीज सत्ता है, जिसके हाथ में बीज होता है , वही तय करता है क्या उगेगा ? वही तय करता है कौन उगाएगा ? और अंततः वही तय करता है कौन खाएगा ? इतिहास गवाह है कि अनाज और बीज पर नियंत्रण हमेशा शासन और प्रभुत्व का माध्यम रहा है। फर्क बस इतना है कि आज सेनाओं की जगह कॉर्पोरेट बोर्डरूम, और हथियारों की जगह पेटेंट, कानून और अंतरराष्ट्रीय संधियाँ हैं।
 
बीज संप्रभुता: किसानों का मूल अधिकार
बीज संप्रभुता का अर्थ है , किसानों का यह अधिकार कि वे अपने बीज बचा सकें , उनका उपयोग कर सकें , उन्हें साझा कर सकें , और आवश्यकता पड़ने पर बेच सकें। यही अधिकार भारत के Seeds Act, 1968 (बीज अधिनियम, 1968) में निहित है, जिसके अनुसार बीज बौद्धिक संपदा अधिकारों (IPR – Intellectual Property Rights / बौद्धिक संपदा अधिकार) के अंतर्गत नहीं आते और उन पर किसानों का स्वाभाविक अधिकार होता है। इसी को और मजबूत करता है PPV&FR Act, 2001 (Protection of Plant Varieties and Farmers’ Rights Act – पौध किस्म संरक्षण एवं किसान अधिकार अधिनियम, 2001), जिसकी धारा 39 किसानों को यह अधिकार देती है कि वे किसी भी संरक्षित या असंरक्षित किस्म के बीज को बचाएँ, प्रयोग करें, बोएँ, साझा करें और बिना ब्रांडिंग के बेच भी सकें। भारत आज भी दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ किसानों को यह व्यापक कानूनी सुरक्षा प्राप्त है। समस्या कानून की नहीं जानकारी के अभाव और कमजोर क्रियान्वयन की है।
 
विविधता का अंत और अकाल की शुरुआत
मानव सभ्यता ने इतिहास में लगभग 6,000 खाद्य पौधों की खेती की। आज स्थिति यह है कि केवल 9 फसलें वैश्विक खाद्य उत्पादन का 65% से अधिक नियंत्रित कर रही हैं। यह आकस्मिक नहीं है। यह औद्योगिक कृषि और कॉर्पोरेट बीज मॉडल का परिणाम है। जब खेतों में विविधता मरती है, तो समाज का लचीलापन मरता है, और जब लचीलापन मरता है, तो अकाल जन्म लेता है।
चार कंपनियाँ, आधी दुनिया का पेट
1980 के दशक में वैश्विक बीज बाजार पर दस बड़ी कंपनियों का नियंत्रण 15% से भी कम था। आज केवल चार बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ Bayer (जर्मन कृषि-रसायन कंपनी) Corteva (अमेरिकी कृषि-व्यवसाय कंपनी) BASF (जर्मन रसायन कंपनी) Syngenta (स्विस कृषि-रसायन कंपनी) दुनिया के 50% से अधिक बीज बाजार को नियंत्रित करती हैं। अर्थात चार कॉर्पोरेट समूह तय कर रहे हैं कि किसान क्या बोएगा , उपभोक्ता क्या खाएगा और भोजन की कीमत क्या होगी। यह मुक्त बाज़ार नहीं, यह कॉर्पोरेट साम्राज्यवाद है।
 
रसायन, कर्ज़ और मौत का चक्र
कॉर्पोरेट बीज बिना रसायनों के नहीं चलते। ये बीज GM Seeds / GE Seeds (Genetically Modified / Genetically Engineered – आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज) होते हैं, जिन्हें उर्वरक और कीटनाशकों के सहारे ही खड़ा रखा जाता है। परिणाम खेती की लागत बढ़ती है, किसान कर्ज़ में डूबता है और असफलता की स्थिति में जीवन टूटता है, विश्व स्तर पर हर वर्ष लगभग 38.5 करोड़ लोग कीटनाशकों से प्रभावित होते हैं , और हज़ारों मौतें होती हैं। यह खेती नहीं, यह नियोजित संकट है।
 
अनुबंध कृषि: सुविधा या फंदा?
केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत Model Contract Farming Act, 2018 (आदर्श अनुबंध कृषि अधिनियम, 2018) का उद्देश्य किसानों को बेहतर दाम दिलाना बताया गया है।
इसमें किसान और कंपनी के बीच अनुबंध, विवाद निपटान तंत्र , फसल बीमा और मूल्य श्रृंखला (Value Chain – उत्पादन से बिक्री तक की पूरी प्रक्रिया) का प्रावधान है। लेकिन खतरा तब पैदा होता है जब बीज को भी अनुबंध का हिस्सा बना दिया जाए और किसान अपने ही बीज पर अधिकार खो बैठे , यदि बीज अधिकार सुरक्षित नहीं रहे, तो अनुबंध कृषि सहयोग नहीं, कब्ज़ा बन जाएगी।
 
समसामयिक चेतावनी: पेरू से उठता संकट संकेत
यह संकट केवल सैद्धांतिक नहीं है। यह अभी, इसी समय आकार ले रहा है। पेरू में हाल ही में हुई ITPGRFA – International Treaty on Plant Genetic Resources for Food and Agriculture (खाद्य एवं कृषि के लिए पादप आनुवंशिक संसाधनों पर अंतरराष्ट्रीय संधि) की वार्ताओं में भारत के नागरिक समाज संगठनों ने सरकार से आग्रह किया है कि वह प्रस्तावित समझौता मसौदे को अस्वीकार करे।
यह संधि FAO – Food and Agriculture Organization (संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन) के अंतर्गत संचालित होती है और इसके तहत MLS – Multilateral System of Access and Benefit Sharing (बहुपक्षीय पहुँच एवं लाभ-साझेदारी प्रणाली) बनाई गई है।खतरा यह है कि SMTA – Standard Material Transfer Agreement (मानक सामग्री हस्तांतरण समझौता) और DSI – Digital Sequence Information (आनुवंशिक डिजिटल अनुक्रम जानकारी) के माध्यम से भारत की पारंपरिक फसलें और उनके जीन कानूनी जैव-चोरी का शिकार बन सकते हैं।
भारत का तर्क स्पष्ट है बिना पारदर्शी लाभ-साझेदारी ढांचे और ट्रैकिंग तंत्र के सभी फसलों को MLS में डालना Biological Diversity Act, 2002 (जैव विविधता अधिनियम) और PPV&FR Act, 2001 की भावना के विरुद्ध है।
 
साफ़ सवाल, कड़वा सच
क्या भोजन मुनाफे की वस्तु है या मानव अधिकार? क्या बीज IPR (Intellectual Property Rights – बौद्धिक संपदा) बन सकते हैं या वे सामूहिक विरासत हैं? क्या किसान उत्पादक है या केवल कॉर्पोरेट ग्राहक? यदि इन सवालों के उत्तर गलत दिशा में गए, तो भारत भूखा ही नहीं रहेगा बल्कि भारत बंधक बन जाएगा।
 
अभी नहीं रुके, तो बहुत देर हो जाएगी
खाद्यान्न संकट दूर नहीं वह दरवाज़े पर है। और सबसे खतरनाक बात यह है कि जब संकट आएगा, तब न बीज हमारे होंगे, न निर्णय हमारे, और न विकल्प हमारे। बीज संप्रभुता की रक्षा आज कोई वैचारिक बहस नहीं यह राष्ट्र के भविष्य की निर्णायक लड़ाई है। यदि बीज बचे तो किसान बचेगा, तो भारत बचेगा।
 
बीज संप्रभुता का समाधान क्या है?
कानून, नीति और नवाचार के समन्वय से ही रास्ता निकलेगा ,भारत में बीज संप्रभुता की स्थिति विरोधाभासी है। एक ओर भारत के पास दुनिया के सबसे किसान-हितैषी कानून हैं, दूसरी ओर जानकारी के अभाव, कॉर्पोरेट दबाव और नीतिगत भ्रम के कारण किसान स्वयं अपने अधिकारों से वंचित होता जा रहा है।
इसलिए समाधान भी तीन स्तरों पर चाहिए कानूनी सुरक्षा का सुदृढ़ीकरण , नीतिगत सुधार और अनुबंध कृषि में संतुलनन और नवोन्मेषी।
 
जमीनी और किसान-केंद्रित उपाय
बीज अधिनियम, 1968 किसानों की ढाल है , भारत में बीज बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual Property Rights – बौद्धिक संपदा अधिकार) के अंतर्गत नहीं आते , बीज पर पूर्ण अधिकार किसान का है। पौध किस्म संरक्षण एवं किसान अधिकार अधिनियम, 2001 (पौधों की किस्मों और किसानों के अधिकार संरक्षण अधिनियम) इस अधिनियम की धारा 39 भारत में बीज संप्रभुता की रीढ़ है। यह किसानों को अधिकार देती है कि वे किसी भी बीज को बचाकर रखें प्रयोग करें और बुआई करें आपस में विनिमय और साझा करें बिना ब्रांडिंग के बेच भी सकें। समस्या कानून की नहीं, जानकारी की है।इसका समाधान: बीज अधिकार साक्षरता अभियान चलाया जाये और इसके लिए किसान कॉल सेंटर, किसान विज्ञान केंद्र ,पंचायत, सहकारी समिति, किसान मेले का प्रयोग किया जाए।
 
इसके नवोन्मेषी (Innovative) लेकिन व्यावहारिक समाधान है जैसे सामुदायिक बीज बैंक को कानूनी दर्जा दिया जाए , हर ज़िले में सार्वजनिक सामुदायिक बीज बैंक हो इन बैंकों को कानूनी संरक्षण वित्तीय सहायता और सरकारी मान्यता दी जाये। किसान उत्पादक संगठन (Farmer Producer Organization – किसान उत्पादक संगठन) को बीज संरक्षक बनाना , एफपीओ केवल विपणन तक सीमित न रहें उन्हें बीज उत्पादन , बीज संरक्षण , और स्थानीय किस्मों के संवर्धन से जोड़ा जाए। सार्वजनिक अनुसंधान को प्राथमिकता भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और राज्य कृषि विश्वविद्यालय खुले परागण वाले बीज , जलवायु-सहिष्णु किस्में ,कम लागत वाली फसलें विकसित करें जो पेटेंट के लिए नहीं, किसानों के लिए हो।
 
क्या भारत अपने पुराने बीज-गौरव की ओर लौट सकता है?
हाँ, भारत लौट सकता है, लेकिन इसके लिए केवल इच्छा नहीं, दिशा, साहस और व्यवस्था में बदलाव आवश्यक है। भारत हजारों वर्षों तक बीज-आधारित सभ्यता रहा है, न कि बाज़ार-आधारित कृषि। किसान बीज स्वयं पैदा करता था, सहेजता था, अगली फसल में बोता था और पीढ़ियों तक उसकी गुणवत्ता सुधारता था। इसी कारण बीज स्थानीय जलवायु के अनुकूल, फसलें रोग-प्रतिरोधी और भोजन पोषण व औषधीय गुणों से भरपूर होता था। बीज केवल खेती का साधन नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, संस्कृति और स्वतंत्रता का आधार था। यह संतुलन नीति-निर्मित बदलावों से टूटा। हरित क्रांति के बाद ज्यादा उत्पादन ही लक्ष्य बन गया। पोषण, विविधता और मिट्टी पीछे छूट गई। नए बीज आए, उत्पादन बढ़ा, लेकिन पोषक तत्व घटे और भोजन में विषाक्तता बढ़ी। किसान बीज-उत्पादक से बीज-ग्राहक बन गया यही सबसे बड़ा पतन है।
 
फिर भी वापसी संभव है, क्योंकि बीज पूरी तरह नष्ट नहीं हुए हैं। वे आज भी आदिवासी क्षेत्रों, छोटे किसानों और सामुदायिक बीज बैंकों में जीवित हैं। समाधान स्पष्ट है बीज को फिर से सार्वजनिक विरासत मानना, गाँव-गाँव सामुदायिक बीज बैंक बनाना, बीज और स्वास्थ्य को जोड़ना, किसान को फिर से “बीज-वैज्ञानिक” बनाना और देसी-जैविक बीजों को आर्थिक सुरक्षा देना। यह केवल कृषि सुधार नहीं, सभ्यतागत सुधार है। बीज बचेंगे तो भारत बचेगा; बीज नहीं बचे तो बाकी सब भ्रम होगा।
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