रमेश शर्मा
स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे भारत की ऐसी ऋषि परंपरा के वाहक रहे हैं, जिन्होंने अपनी साधना, तपश्चर्या और सेवा-संकल्प से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी को कीर्तिमान स्वरूप प्रदान करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज यदि भारतीय जनता पार्टी ने अपने जनसमर्थन और संगठनात्मक स्वरूप में पूरे विश्व में सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में आकार लिया है, तो इसके पीछे कुशाभाऊ ठाकरे जैसे तपोनिष्ठ, ऋषि-तुल्य विभूतियों की साधना ही रही है।
कुशाभाऊ ठाकरे जी का जन्म 15 अगस्त 1922 को मध्यप्रदेश के धार नगर में हुआ था। आज उनकी शताब्दी वर्ष की पूर्णता की तिथि है। विक्रम संवत की दृष्टि से यह तिथि संवत् 1979, भाद्रपद माह, कृष्ण पक्ष की अष्टमी थी। यह अष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के अवतार की तिथि है, जिसे जन्माष्टमी कहते हैं। तपस्या और त्यागमय जीवन के साथ संस्कृति, समाज और राष्ट्रसेवा का व्रत उन्हें अपने परिवार के संस्कारों से मिला था।
उनके पिता डॉक्टर सुन्दरराव जी ठाकरे अपने समय के सुप्रसिद्ध चिकित्सक थे, जिन्होंने अहमदाबाद मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की डिग्री प्राप्त की थी। प्लेग और अन्य महामारियों के समय अपने प्राणों की परवाह किए बिना पीड़ितों की सेवा करने के लिए वे सुविख्यात रहे। ठाकरे जी का परिवार कोंकण के पाली गाँव का मूल निवासी था, किंतु समय के साथ उनके प्रपितामह गुजरात के मेहसाणा में आ बसे थे, जहाँ उनकी गणना एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार के रूप में होने लगी थी। पिता सुन्दरराव जी का जन्म मेहसाणा में हुआ।
सुन्दरराव जी अपने छात्र जीवन से ही स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए थे। स्वदेशी अभियान के साथ ही उन्होंने अपनी पढ़ाई की। वे मेडिकल की पढ़ाई करने अहमदाबाद मेडिकल कॉलेज गए। मेडिकल की पढ़ाई के बीच ही उनका विवाह धार के प्रतिष्ठित दिघे परिवार की बेटी शांता बाई से हो गया। पढ़ाई पूरी कर लौटने पर परिवार में संपत्ति बँटवारे को लेकर कुछ खींचतान आरंभ हुई। तब पत्नी के परामर्श से अपने हिस्से की संपत्ति भी अपने भाई विनायकराव को देकर, वे केवल एक जोड़ी कपड़ों के साथ धार आ गए।
धार में उस समय आधुनिक मेडिकल चिकित्सा पद्धति का कोई डॉक्टर नहीं था, इसलिए उन्हें अपना प्रतिष्ठित स्थान बनाने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। महाराजा धार ने भी उनका स्वागत किया। कुशाभाऊ जी का जन्म यहीं धार में हुआ। उनकी आभा अत्यंत सौम्य और आकर्षक थी। उनका जन्म जन्माष्टमी को हुआ था, इसलिए उनके नाना ने इस नन्हे बालक को ‘कृषा’ कहकर पुकारा। समय बीता, नामकरण संस्कार का अवसर आया और उनका नाम शशिकांत रखा गया। नाम भले ही शशिकांत रखा गया हो, पर वे प्रचलन में ‘कृषा’, ‘कुशा’ और कुशाभाऊ के नाम से ही जाने गए।
समय के साथ वे बड़े हुए। धार के विद्यालय में उनकी शिक्षा आरंभ हुई। तब उनका पूरा नाम “शशिकांत सुन्दरराव ठाकरे” अंकित किया गया। उनका छात्र जीवन इसी नाम से रहा। औपचारिक रूप से भले ही उनका नाम शशिकांत ठाकरे रहा हो, पर घर, बाहर और विद्यालय के मित्रों के बीच उनकी पहचान कुशाभाऊ नाम से ही प्रतिष्ठित रही।
स्वदेशी आंदोलन के प्रबल समर्थक और गांधीजी के खादी आंदोलन में सहभागी रहे पिता डॉक्टर सुन्दरराव का जुड़ाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हो गया था। इस कारण परिवार में संघ-विचार का वातावरण था। कुशाभाऊ जी किशोरावस्था में ही संघ और संघ-विचार से परिचित हो गए थे और उनका शाखा जाना आरंभ हो गया। 1939 में कुशाभाऊ जी ने धार से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। पिता अपने पुत्र को अपनी ही भाँति डॉक्टर बनाना चाहते थे, इसलिए आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें ग्वालियर भेज दिया गया।
कुशाभाऊ जी कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, इसलिए ग्वालियर में उन्हें सरलता से प्रवेश मिल गया। उन्होंने 1941 में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की और मेडिकल में दाखिला भी ले लिया। किंतु नियति ने उनके लिए कुछ और ही कार्य निर्धारित कर रखा था। वे संघ-विचार में पूरी तरह ढल चुके थे, शाखा के नियमित स्वयंसेवक थे। उन्होंने 1942 में संघ के शिक्षा वर्ग में प्रशिक्षण लिया और अपना पूरा जीवन राष्ट्र, संस्कृति और संघ को समर्पित कर दिया। उन दिनों संघ के शिक्षा वर्ग को “ओटीसी” नाम से जाना जाता था।
ओटीसी के बाद ठाकरे जी ने अपनी पढ़ाई छोड़कर संघ के प्रचारक बनने का निर्णय लिया। पढ़ाई छोड़कर संघ का प्रचारक बनने की अनुमति उन्होंने परिवार से माँगी, जो सहज ही मिल गई। इस प्रकार 1942 से उनका संघ जीवन पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में प्रारंभ हुआ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें मालवा और मालवा से लगे राजस्थान के क्षेत्रों में संघ विस्तार का कार्य सौंपा। उन्होंने नीमच को अपना केंद्र बनाया और धार, झाबुआ, रतलाम, मंदसौर, राजगढ़, शाजापुर से लेकर चित्तौड़ तक निरंतर प्रवास किए। उज्जैन, धार, झाबुआ, शाजापुर, रतलाम, मंदसौर आदि जिलों में शायद ही कोई गाँव ऐसा हो जहाँ ठाकरे जी ने संपर्क न किया हो। जहाँ जो साधन मिला (साइकिल, बस या बैलगाड़ी) उसी से यात्रा करते रहे।
हनुमान जी का यह वाक्य कि “रामकाज कीजै बिना मोहि कहाँ विश्राम” मानो ठाकरे जी का जीवन मंत्र था। अंतर केवल इतना था कि ठाकरे जी का संकल्प था “संघ कार्य कीजै बिना मोहि कहाँ विश्राम।” सुन्दर लाल पटवा, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा और कैलाश जोशी जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्तित्वों को उनकी युवा अवस्था में ठाकरे जी ने ही संघ से जोड़ा। 1947 में सुन्दर लाल पटवा को संघ कार्य के लिए प्रचारक के रूप में तैयार करने का कार्य भी ठाकरे जी ने ही किया। 1951 में जब जनसंघ का गठन हुआ, तब पटवा जी को मालवा में जनसंघ विस्तार का दायित्व भी ठाकरे जी ने ही सौंपा।
समय अपनी गति से चलता रहा। संघ और जनसंघ का कार्य भी गति पकड़ता गया। परिवार की एक शाखा इंदौर आ गई, जिससे संघ कार्य में उन्हें पारिवारिक सहयोग अवश्य मिला, किंतु यह सत्य है कि ठाकरे जी ने स्वयं कभी परिवार से सहायता नहीं ली। वे पाँच भाई और एक बहन थे। समय के साथ परिवार का विस्तार हुआ, पर सभी सामान्य जीवन जीते रहे।
ठाकरे जी के संगठन-समर्पण का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि 1953 में जब उनकी माता शांता बाई मरणासन्न थीं, तब संदेश मिलने के बाद भी वे धार नहीं जा सके और केवल अंतिम संस्कार में ही पहुँचे। यह उनकी साधना का ही प्रभाव था कि मालवा क्षेत्र में संघ और जनसंघ की जड़ें गहरी हुईं और इस क्षेत्र से बड़ी संख्या में प्रचारक निकले।
मध्यप्रदेश में जनसंघ की स्थापना के बाद उन्होंने पूरे प्रदेश की यात्राएँ कीं। उस समय छत्तीसगढ़ भी मध्यप्रदेश का ही अंग था। मुरैना से बस्तर और झाबुआ से रीवा तक ऐसा कोई नगर या कस्बा नहीं था जहाँ उन्होंने यात्रा न की हो और कार्यकर्ता न खड़े किए हों। वे जनसंघ और बाद में भाजपा के लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर रहे जैसे संगठन मंत्री, महामंत्री और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी। किंतु पद उनके लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहे। उनकी जीवनशैली सदैव एक-सी रही।
आपातकाल में वे मीसा में निरुद्ध रहे। जेल में रहते हुए भी उन्होंने कार्यकर्ताओं को ढाढ़स बँधाया और गीत-भजन में लगाए रखा। जनता पार्टी के कालखंड में भी उन्होंने संयम और संतुलन बनाए रखा। अंततः 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। 1984 और 1985 के चुनावों के बाद जनहित के मुद्दों पर आंदोलन की रणनीति उन्होंने ही तैयार की, विशेषकर किसानों के प्रश्न पर।
राजनीतिक उतार-चढ़ाव चाहे जैसे रहे हों, ठाकरे जी की जीवनशैली और विचारों में कभी परिवर्तन नहीं आया। वे संघ प्रचारक रहे हों या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, सदैव एक-सी शैली में जिए। सेवा और संगठन विस्तार ही उनका ध्येय रहा। 28 दिसंबर 2003 को उनका शरीर पंचतत्त्व में विलीन हुआ, पर वे आज भी संगठन की स्मृतियों, चेतना और प्राणशक्ति में जीवित हैं और सदैव रहेंगे।