डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी 1857 में नहीं, बल्कि उससे पहले अनेक जनजातीय अंचलों में भड़की थी। इन्हीं प्रारम्भिक क्रांतिकारियों में वीर नारायण सिंह वह नाम हैं जिन्होंने न केवल ब्रिटिश शासन की क्रूर नीतियों के विरुद्ध शस्त्र उठाए, बल्कि जनजातीय समाज की रक्षा, सम्मान और अस्तित्व के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। छत्तीसगढ़ के सोनाखान क्षेत्र में जन्मे इस वीर ने अपने कर्म, साहस और नैतिक शुचिता से शासन को चुनौती दी और अंततः जनता का नायक बनकर अमर हो गए।
जन्म और प्रारम्भिक जीवन
वीर नारायण सिंह का जन्म लगभग 1795 में छत्तीसगढ़ के सोनाखान (जिला—बलौदाबाजार) में एक जमीनदार परिवार में हुआ। वे बिंझवार जनजाति के थे, जो अपनी वीरता, परिश्रम और प्रकृति-आधारित जीवन के लिए प्रसिद्ध है।बचपन से ही उनमें नेतृत्व, न्यायप्रियता और जनहित के संस्कार दिखाई देते थे। अपने पिता के निधन के बाद वे कम उम्र में ही सोनाखान के जमींदार बने और स्थानीय जनता के बीच ‘न्यायदाता’ के रूप में लोकप्रिय हो गए।
ब्रिटिश शासन का दमन और अकाल की पृष्ठभूमि
1840 के दशक में छत्तीसगढ़ में भीषण अकाल पड़ा। आम जनता भूख से तड़प रही थी, जबकि अंग्रेज अधिकारी और शोषक व्यापारी अनाज को गोदामों में भरकर मनमाना दाम वसूल रहे थे।नारायण सिंह ने जनहित में अकालग्रस्तों के लिए अपने भंडार खोल दिए। लेकिन अंग्रेज प्रशासन ने लालच और दमन की नीति अपनाकर उन पर अनाज छिपाने का झूठा आरोप लगाया और सताना शुरू किया। यह स्थिति आगे बड़े संघर्ष की आधारभूमि बनी।
विद्रोह की चिंगारी : जनता के लिए अनाज जब्त करना
जब अंग्रेज अधिकारियों ने अनाज के व्यापारी महाजनों के साथ मिलकर भूखे लोगों को अनाज से वंचित किया, तब वीर नारायण सिंह ने जन-न्याय की सबसे बड़ी मिसाल पेश की।उनके नेतृत्व में किसानों और गरीबों ने उस व्यापारी के गोदाम पर धावा बोला जो अनाज को जमाखोरी कर रहा था।नारायण सिंह ने वह अनाज जनता में न्याय व मानवता के आधार पर बाँट दिया।
यह घटना ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खुली चुनौती थी और वे छत्तीसगढ़ के प्रथम जनविद्रोही के रूप में उभरकर सामने आए।
गिरफ्तारी, पलायन और पुनः संघर्ष
अंग्रेज शासन ने उन्हें गिरफ्तार कर रायपुर जेल में कैद कर दिया।लेकिन जनता के समर्थन और उनके प्रभाव के कारण वे जेल से भागने में सफल रहे।इस घटना के बाद उन्होंने आसपास के गांवों को संगठित किया और अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष की तैयारी की।जनजातीय समुदाय, किसान, मजदूर, ग्रामीण—सब उनके पीछे खड़े हो गए।
1857 : विद्रोह का विस्तार और अंग्रेजों के लिए चुनौती
1857 के महाविद्रोह का प्रभाव छत्तीसगढ़ पर भी पड़ा और वीर नारायण सिंह इस जन-क्रांति के स्थानीय नेतृत्वकर्ता बने।उन्होंने
ग्रामों में जन-सभा करके लोगों को विदेशी शासन के अन्याय के विरुद्ध संगठित किया हथियार जुटाए अंग्रेजों की चौकियों पर हमले की योजना बनाई, सोनाखान को प्रतिरोध का केंद्र बनाया. उनके बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज घबरा उठे। उन्हें छत्तीसगढ़ का नायक, रक्षक और विद्रोह का प्रतीक माना जाने लगा।
पुनः गिरफ्तारी : विश्वासघात की दुखद कहानी
अंग्रेजों ने एक विशाल अभियान चलाकर उन्हें पकड़ने का प्रयास किया।कहा जाता है कि एक मुखबिर के धोखे के कारण उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया।जन-समर्थन से भयभीत ब्रिटिश अधिकारियों ने यह निर्णय लिया कि यदि उन्हें जीवित रखा गया तो पूरे छत्तीसगढ़ में विद्रोह की आग फैल जाएगी। इसलिए उन्होंने मृत्युदण्ड सुनाया।
एक जननायक का बलिदान
10 दिसंबर 1857 को रायपुर में उन्हें फांसी दी गई।उनकी मृत्यु किसी व्यक्ति का अंत नहीं, बल्कि एक जन-चेतना की शुरुआत थी।फांसी से पहले उनके मुख से निकले शब्द—“मेरा बलिदान जनता के अधिकारों के लिए है।”—आज भी छत्तीसगढ़ की धरती पर गूंजते हैं। उनकी शहादत पर जनजातीय समाज और किसानों में शोक और प्रतिरोध की लहर दौड़ गई।
वीर नारायण सिंह का योगदान : क्यों वे अमर हैं?
1. जनजातीय अस्मिता के महान रक्षक
उन्होंने जनजातीय समाज को एकता, संघर्ष और स्वाभिमान का मार्ग दिखाया।
2. भारत के प्रथम खाद्य-सुरक्षा सेनानी
अकाल के समय अनाज गरीबों में बाँटकर उन्होंने शासन के अन्याय को चुनौती दी।
3. ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सर्वप्रथम संगठित प्रतिरोध
छत्तीसगढ़ में 1857 से पहले ही जो विद्रोह हुआ, उसका नेतृत्व उन्होंने किया।
4. सामाजिक न्याय और लोक-हित के प्रतीक
वे जनता के संरक्षक जमींदार थे—भूख, अन्याय, शोषण के विरुद्ध खड़े होने वाले पहले नेतृत्वकर्ता।
5. प्रेरणा स्रोत
आज छत्तीसगढ़ में उनका नाम स्वाभिमान, त्याग और न्याय का पर्याय माना जाता है।रायपुर का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम भी उनके नाम पर रखा गया. वीर नारायण सिंह का जीवन केवल ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह की कथा नहीं है, बल्कि यह न्याय, मानवता और जन-स्वराज का घोषणा-पत्र है।जनजातीय समाज ने उन्हें ‘धरणीधर’, ‘जनरक्षक’ और ‘वीर-पुरुष’ के रूप में स्मरण रखा है। उनका बलिदान यह संदेश देता है कि—“जब सत्ता अन्यायी हो जाए, तब प्रतिरोध स्वयं धर्म बन जाता है।”
उनकी गाथा आने वाली पीढ़ियों को साहस, त्याग, नेतृत्व और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देती रहे.