राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली अग्निपरीक्षा : संगठन, सत्य और संयम की गाथा

07 Nov 2025 14:33:03

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डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारतीय राष्ट्रजीवन में ऐसे बहुत कम संगठन हैं जिनकी नींव सांस्कृतिक चेतना और आत्मबल पर टिकी हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इनमें अग्रणी है।
 
1948-49 का कालखंड भारतीय लोकतंत्र के लिए जितना चुनौतीपूर्ण था, उतना ही संघ के लिए भी। गांधीजी की हत्या के बाद बिना किसी प्रमाण और जांच के संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। यह प्रतिबंध केवल एक संगठन पर नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा पर प्रहार था।
 
संघ के तत्कालीन स्वयंसेवक, प्रचारक और विचारक माणिकचंद्र वाजपेयी ने इसी दौर की सच्ची कहानी अपनी ऐतिहासिक कृति "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली अग्निपरीक्षा" में लिखी। यह केवल घटनाओं का वृत्तांत नहीं, बल्कि सत्य, संगठन और संयम की त्रयी का एक कालजयी उदाहरण है।
 
 
लेखक और रचनात्मक संदर्भ
माणिकचंद्र वाजपेयी भारतीय पत्रकारिता के आदर्श पुरुषों में से एक थे। वे संघ के विचारक, प्रचारक और ‘स्वदेश’ पत्र के संपादक के रूप में प्रसिद्ध रहे। उनकी लेखनी का मूल उद्देश्य राष्ट्र की दृष्टि से सत्य का उद्घाटन था, न कि किसी व्यक्ति या दल का विरोध या समर्थन।
यह पुस्तक उस समय लिखी गई जब संघ का नाम लेना भी अपराध समझा जाता था। ऐसी परिस्थितियों में लेखक का यह प्रयास साहित्यिक साहस और वैचारिक ईमानदारी का प्रतीक है। उन्होंने लिखा है कि “जब झूठ का शोर चारों ओर था, तब सत्य को बचाने का एक ही उपाय था, उसे दस्तावेज में बदल देना।”
 
 
संघ पर प्रतिबंध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ को दोषी ठहराने की राजनीतिक होड़ मच गई।
हालाँकि तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल इस तथ्य से अवगत थे कि संघ का इस घटना से कोई संबंध नहीं था, पर राजनीतिक दबावों और नेहरू की वैचारिक संकीर्णता के कारण प्रतिबंध लगाया गया।
माणिकचंद्र वाजपेयी जी लिखते हैं “संघ के खिलाफ यह प्रतिबंध न्याय नहीं, भय की उपज था।”
लेखक ने इस प्रसंग का विस्तार किया है और दिखाया है कि संघ ने इस अन्याय का प्रतिशोध नहीं लिया, बल्कि विधिसम्मत मार्ग चुना।
संघ प्रमुख गुरुजी गोलवलकर ने स्वयंसेवकों से स्पष्ट कहा कि “संघ कानून का पालन करेगा, हिंसा का नहीं।” यही क्षण था जब संघ ने अपनी पहली अग्निपरीक्षा दी।
 

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पुस्तक की विषयवस्तु और संरचना
पुस्तक की संरचना तीन प्रमुख भागों में विभाजित है, पहली घटना का क्रम और प्रतिबंध की पृष्ठभूमि, दुसरी संघ की प्रतिक्रिया, अनुशासन और आत्मबल और तीसरी राष्ट्र की दृष्टि से निष्कर्ष और आत्ममंथन।
पहले भाग में लेखक ने राजनीतिक भ्रम, मीडिया की भूमिका और शासन की नीतियों का विश्लेषण किया है। दूसरे भाग में जेलों में बंद स्वयंसेवकों की स्थिति, समाज की प्रतिक्रिया और गुरुजी के नेतृत्व की स्थिरता का चित्रण है। वहीं तीसरे भाग में लेखक निष्कर्ष देते हुए लिखते है कि “संघ पर प्रतिबंध का अंत हुआ, पर इस परीक्षा ने संघ को और अधिक सुदृढ़ बना दिया।”
 
 
वैचारिक विश्लेषण: सत्य, संयम और संगठन
वाजपेयी जी की लेखनी तीन मूल बिंदुओं पर आधारित है:
_(क) सत्य के प्रति निष्ठाः_ लेखक ने भावनात्मक अतिशयोक्ति से बचते हुए पत्रों, तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर दिखाया कि संघ को झूठे आरोपों में फंसाया गया। संघ का कोई सदस्य, शाखा या प्रचारक इस घटना में सम्मिलित नहीं था।
_(ख) संयम की शक्तिः_ यह पुस्तक सिद्ध करती है कि संघ का अनुशासन उसकी आत्मा है। हिंसा, विरोध या प्रतिशोध की जगह संघ ने सहनशीलता और संवाद का मार्ग चुना।
_(ग) संगठन का संकल्पः_ प्रतिबंध के दौरान न शाखाएँ थीं, न सभा, न प्रचार, फिर भी कार्य अविरल चलता रहा। यह उस संगठन की शक्ति थी जिसकी जड़ें संस्कार और साधना में थीं।
 
 
भाषा और शैली का विश्लेषण
माणिकचंद्र वाजपेयी का लेखन पत्रकारिता और साहित्य का संतुलित रूप है। उनकी भाषा में ओज है, पर वह उत्तेजक नहीं होती। उनके वाक्य भावनाओं की अपेक्षा तर्क और सत्य को प्राथमिकता देते हैं।
एक स्थान पर वे लिखते हैं कि “संगठन की दृढ़ता का प्रमाण तब मिलता है, जब उस पर अन्याय होता है और वह फिर भी राष्ट्र के प्रति अपना विश्वास नहीं खोता।” इस शैली ने पुस्तक को केवल इतिहास नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक दस्तावेज का रूप दिया है।
 
 
आलोचनात्मक मूल्यांकन
समीक्षात्मक दृष्टि से यह ग्रंथ तीन स्तरों पर महत्वपूर्ण है:
_(1) राजनीतिक पक्ष -_ यह पुस्तक स्वतंत्र भारत के पहले राजनीतिक पक्षपात का अभिलेख है। संघ पर लगाया गया प्रतिबंध बताता है कि जब विचारधारा सत्ता के विवेक से बड़ी हो जाती है, तब लोकतंत्र कमजोर पड़ता है। वाजपेयी जी ने शासन की नीतियों की आलोचना की, पर मर्यादा नहीं छोड़ी।
_(2) सांस्कृतिक पक्ष -_ लेखक ने संघ को भारत की सनातन परंपरा का वाहक बताया है। यह प्रतिबंध उसी सांस्कृतिक प्रवाह को रोकने का प्रयास था जो राम, कृष्ण, विवेकानंद और तिलक की परंपरा से चला आता है।
वे लिखते हैं “संघ का उद्देश्य सत्ता नहीं, संस्कार है। सत्ता जाती है, संस्कार शाश्वत हैं।”
_(3) साहित्यिक पक्ष -_ साहित्य की दृष्टि से यह ग्रंथ संघ साहित्य का पहला पत्रकारितामूलक इतिहास है। इसमें विचार, अनुभव और साक्ष्य का गहरा संतुलन है।
 
 
आज की प्रासंगिकता: इतिहास का पुनर्पाठ
आज जब संघ सौ वर्षों की यात्रा के निकट है, यह पुस्तक और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। भारत की राजनीति फिर वैचारिक संघर्षों से गुजर रही है, जहां राष्ट्र बनाम मत और संस्कृति बनाम सत्ता जैसी बहसें सामने हैं। ऐसे समय में यह पुस्तक सिखाती है कि “कठिन समय में संगठन का बल, सत्य और संयम ही सबसे बड़ा उत्तर होता है।”
यह पुस्तक नई पीढ़ी के लिए अध्ययन का विषय ही नहीं, बल्कि राष्ट्रभावना की पाठशाला है।
 
 
अग्निपरीक्षा से अविनाशी शक्ति तक
संघ की पहली अग्निपरीक्षा से निकला संगठन और अधिक तपस्वी, संगठित और वैचारिक रूप से परिपक्व हुआ। माणिकचंद्र वाजपेयी की यह पुस्तक उस तप की कथा है, जहां अन्याय का उत्तर प्रतिशोध नहीं, बल्कि सत्य का साहस था।
यह पुस्तक हर उस भारतीय के लिए है जो समझना चाहता है कि “राष्ट्रवाद कोई नारा नहीं, बल्कि आचरण की तपस्या है।”
संघ की यह अग्निपरीक्षा वास्तव में भारत की आत्मा की विजय थी और माणिकचंद्र वाजपेयी उस युग के व्याख्याकार के रूप में स्थापित होते हैं।
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