रानी लक्ष्मीबाई : स्वतंत्रता संग्राम की धधकती ज्योति

19 Nov 2025 14:06:32

ranilaxmi bai
 
डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई का नाम केवल एक योद्धा के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे राष्ट्रभाव की प्रतीक के रूप में अंकित है जिसने विदेशी सत्ता के सामने झुकने से इंकार कर दिया। 1857 के महासंग्राम में जिस नेतृत्व, शौर्य और रणनीति का परिचय रानी ने दिया, वह उनके असाधारण व्यक्तित्व का प्रमाण है।
19 नवंबर 1828 को जन्मी ‘मनु’ बचपन से ही तेजस्वी, निर्भीक और अप्रतिम ऊर्जा की धनी थीं। झाँसी पर अंग्रेजों का कब्जा रोकने का उनका संकल्प केवल राजकीय स्वामित्व का प्रश्न नहीं था, बल्कि भारतीय अस्मिता, संस्कृति और स्वतंत्रता का प्रश्न था। रानी लक्ष्मीबाई ने यह सिद्ध कर दिया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए स्त्री और पुरुष का भेद गौण हो जाता है, केवल कर्तव्य सर्वोपरि होता है।
 
बाल्यकाल में सैन्य प्रशिक्षण
पेशवाओं के दरबार में पली मनु ने घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, तीरंदाजी, कुश्ती और युद्धकला को उसी सहजता से सीखा, जैसे कोई बच्चा खेल सीखता है। उनकी सहेलियाँ उन्हें ‘छबीली’ कहकर पुकारती थीं क्योंकि वह चंचल, हँसमुख और पराक्रमी थी।
साथ ही मनु का मन भारतीय धर्मग्रंथों, साहसिक खेलों और न्यायप्रियता में रमता था। यही गुण आगे चलकर उन्हें झाँसी का सर्वप्रिय नेतृत्व प्रदान करने वाले बने।
 
विवाह, झाँसी का शासन और अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संघर्ष
1842 में मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव से हुआ और वे ‘रानी लक्ष्मीबाई’ बनीं। वे केवल महारानी नहीं थीं, बल्कि प्रशासनिक क्षमता, करुणा और न्यायप्रियता की प्रतिमूर्ति थीं। लेकिन 1853 में महाराजा के निधन के बाद रानी ने दत्तक पुत्र दामोदर राव को उत्तराधिकारी घोषित किया। बाद में लार्ड डलहौजी ने ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ के आधार पर झाँसी को हड़पने का निर्णय ले लिया।
रानी का ऐतिहासिक प्रतिवाद गर्जना बनकर उठा और उन्होंने कहा “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।” यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि 19वीं सदी के भारत की राष्ट्रीय चेतना का उद्घोष था, जिसने भविष्य के समूचे स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा दी।
 
1857 का विद्रोह
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम दरअसल भारतीय जनता के भीतर लगातार पनप रहे आक्रोश का विस्फोट था। रानी लक्ष्मीबाई इस संघर्ष की सबसे प्रमुख धुरी बनीं।
रानी ने किले की सुरक्षा मजबूत की। सैनिकों को पुनर्गठित किया और युद्धकला में प्रशिक्षित किया। स्त्रियों को भी सेना में शामिल किया।
मार्च 1858 में अंग्रेज सेनापति ह्यू रोज़ ने झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने युद्ध के दौरान अपने नागरिकों को न केवल रक्षा प्रदान की, बल्कि अदम्य नेतृत्व दिया। युद्ध कई दिनों तक चला और रानी ने अंग्रेजों का भीषण प्रतिरोध किया।
जब किले की दीवारें तोपों से टूटने लगीं, तब रानी ने अपने पुत्र को पीठ पर बाँधकर दुश्मन सेना को चकमा दिया और कालपी की ओर निकल पड़ीं। यह दृश्य भारतीय महिला-शक्ति का सबसे पवित्र और गौरवशाली प्रतीक बन गया।
 
कालपी और ग्वालियर का संग्राम
कालपी में रानी ने तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त युद्ध लड़ा। भारी शक्ति-संतुलन के बावजूद रानी के साहस ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए।
रानी और तात्या टोपे ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। इस विजय ने अंग्रेज शासन की नींव को हिला दिया। उन्हें लगा कि यह विद्रोह अब संगठित रूप ले चुका है। ग्वालियर में रानी ने सेना का पुनर्गठन किया और निर्णायक युद्ध की तैयारी की।
जून 1858 में अंग्रेजों ने ग्वालियर पर भयंकर हमला किया। रानी ने घोड़े पर चढ़कर तलवार से अंग्रेजों का सामना किया। उनके साहस ने शत्रुओं को भी विस्मित कर दिया।
 
बलिदान : एक ऐसा अंत जो भारतीय राष्ट्रवाद का प्रारंभ बना
18 जून 1858 को ग्वालियर के समीप कोटा-की-सराय में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। वे शत्रु के हाथों जीवित नहीं पकड़ी जाए यही उनका संकल्प था। अंग्रेज सेनापति ह्यू रोज़ भी उनकी वीरता से प्रभावित हुए। उन्होंने कहा “भारत की यह रानी हमारे पुरुष सैनिकों से भी अधिक वीर थी।”
रानी का बलिदान 1857 के विद्रोह को एक अमर गौरव प्रदान कर गया। उनकी मृत्यु ने स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को बुझने नहीं दिया, बल्कि आने वाले क्रांतिकारियों को प्रेरित किया।
 
भारतीय संस्कृति, परंपरा और नारी-शक्ति की जीवित प्रतिमा
भारतीय संस्कृति के मूल में शौर्य और धर्म ऐतिहासिक रूप से रहा है। रानी का पूरा जीवन भारतीय संस्कृति की बुनियादी अवधारणा धर्म, कर्तव्य, शौर्य और आत्मसम्मान का जीता-जागता उदाहरण था।
उन्होंने सिद्ध किया कि स्त्री केवल गृहस्थी का आधार नहीं, बल्कि राष्ट्ररक्षा की सेनानायक भी हो सकती है। आज की भारतीय महिला सेना, महिला अधिकारी, खिलाड़ी सब रानी से प्रेरणा लेती हैं।
रानी लक्ष्मीबाई ने राष्ट्रवाद को केवल विचार नहीं, बल्कि आचरण का रूप दिया। उनकी लड़ाई व्यक्तिगत नहीं राष्ट्ररक्षा की लड़ाई थी।
 
रानी लक्ष्मीबाईः अमरता का दूसरा नाम
आज, जब भारत एक नए आत्मविश्वास और सांस्कृतिक स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ रहा है, रानी लक्ष्मीबाई का जीवन और उनका बलिदान और भी अधिक प्रासंगिक हो उठता है।
उनका संदेश सरल है कि स्वाभिमान पर आँच न आए, यही भारतीयता है। मातृभूमि पर संकट आए, तो प्राणों की आहुति सर्वोच्च कर्तव्य है।
रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा भारत की आत्मा में एक ज्योति बनकर सदैव जलती रहेगी। प्रेरणा, उत्साह और राष्ट्रप्रेम की वह ज्योति जो कभी बुझ नहीं सकती।
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