डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
भारत की सभ्यता का केंद्र हमेशा नगरों या राजधानियों में नहीं रहा, बल्कि उसके वनों, पर्वतों, नदियों और ग्रामों में रहा है। यही वह धरती है जहाँ मानव और प्रकृति का संबंध धार्मिक नहीं, बल्कि आत्मीय और पारिवारिक रहा है। इसी परंपरा के प्रतिनिधि हैं हमारे जनजातीय समाज - जो भारत की सबसे प्राचीन और मूल सांस्कृतिक इकाई हैं।
जब विदेशी आक्रमणकारियों ने इस पावन भूमि पर धर्मांतरण, शोषण और अपसंस्कृति थोपने का प्रयास किया, तब यही जनजातीय समाज भारत की रक्षा-रेखा बना। उन्होंने अपनी भूमि, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए शताब्दियों तक युद्ध लड़ा।
भारत सरकार द्वारा 15 नवम्बर को “जनजातीय गौरव दिवस” घोषित करना केवल एक तिथि का सम्मान नहीं, बल्कि उस राष्ट्रात्मा के पुनर्जागरण का प्रतीक है, जिसकी रक्षा में भगवान बिरसा मुंडा जैसे महापुरुषों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया।
जनजातीय गौरव दिवस की आवश्यकता - पहचान, अस्मिता और आत्मगौरव का पुनर्जागरण
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास यदि ध्यानपूर्वक पढ़ा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि जनजातीय समाज के योगदान को प्रायः उपेक्षित किया गया। न तो विद्यालयों के इतिहास ग्रंथों में उनका उल्लेख मिलता है, न ही राष्ट्रीय स्मारकों में उनके बलिदान को यथोचित स्थान दिया गया। परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि यदि जनजातीय प्रतिरोध न होता, तो भारत का भूगोल और धर्म-आधारित स्वरूप दोनों ही मिट चुके होते। इसलिए जनजातीय गौरव दिवस की आवश्यकता केवल स्मरण के लिए नहीं, बल्कि चेतना के लिए है।
यह दिवस तीन स्तरों पर अत्यंत आवश्यक है - ऐतिहासिक पुनर्स्मरण - जनजातीय योद्धाओं के योगदान को भारत की राष्ट्रीय चेतना में पुनः प्रतिष्ठित करना।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण - उनकी लोक परंपरा, गीत, नृत्य, पूजा-पद्धति और जीवन-मूल्यों को सनातन संस्कृति के अंग के रूप में पुनर्स्थापित करना।
राष्ट्रीय एकात्मता - यह दिवस यह संदेश देता है कि भारत की एकता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भी है।
भगवान बिरसा मुंडा - धरती आबा का जन्म और जीवन दर्शन
भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखंड के रांची जिले के उलिहातु गाँव में हुआ।
गरीबी, अन्याय और शोषण के वातावरण में पले इस बालक में असाधारण नेतृत्व क्षमता थी।
बचपन से ही वे मिशनरी स्कूलों में धर्मांतरण के षड्यंत्र को समझ गए। उन्होंने अपने समाज से कहा - “हमारे पूर्वजों ने धरती, जल और जंगल को पूज्य माना है, यही हमारा धर्म है। हमें किसी विदेशी भगवान की आवश्यकता नहीं है।” उनकी यह वाणी तत्कालीन ब्रिटिश और मिशनरी सत्ता के लिए चुनौती बन गई। बिरसा ने धीरे-धीरे अपने चारों ओर एक चेतना का वलय रचा, जो धर्म-संरक्षण और भूमि-संरक्षण का प्रतीक था।
जनजातीय संघर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - मुगल और अंग्रेज़ी काल
जनजातीय प्रतिरोध की परंपरा बिरसा से बहुत पहले आरंभ हो चुकी थी।
मुगल काल में जबरन कराधान, इस्लामीकरण और मंदिर विध्वंस के विरोध में गोंडवाना की रानी दुर्गावती, भील, संथाल, खासी, नागा और कोल जनजातियाँ लगातार संघर्षरत रहीं। अंग्रेज़ी शासन के दौरान ये विद्रोह और संगठित हो गए।
कुछ प्रमुख जनजातीय विद्रोह जिन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता को हिला दिया —
संताल हूल (1855) – सिद्दो और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में।
भील विद्रोह (1818) – ब्रिटिश राज और सामंती कर नीति के विरुद्ध।
कोल विद्रोह (1831) – जमींदारी और धर्मांतरण के विरोध में।
खासी विद्रोह (1829) – डेविड स्कॉट के उपनिवेशी शासन के विरुद्ध।
इन सभी विद्रोहों का सार था — स्वधर्म, स्वभूमि और स्वराज की रक्षा, और यही भाव आगे चलकर बिरसा मुंडा के नेतृत्व में “उलगुलान” के रूप में प्रकट हुआ।
बिरसा मुंडा का आंदोलन — उलगुलान की चेतना
सन् 1899 में बिरसा मुंडा ने अपने अनुयायियों के साथ “उलगुलान” (महासंग्राम) का बिगुल बजाया।
यह कोई साधारण विद्रोह नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक क्रांति थी जिसमें जनजातीय समाज ने अपनी अस्मिता का उद्घोष किया। उन्होंने कहा —
“अबुआ दिशुम अबुआ राज” अर्थात हमारा देश, हमारा राज।
इस आंदोलन के तीन प्रमुख उद्देश्य थे - अंग्रेज़ी शासन और जमींदारी प्रथा का अंत। जनजातीय भूमिऔर प्राकृतिक संपदा की पुनः प्राप्ति और धर्मांतरण और सांस्कृतिक विघटन का विरोध। ब्रिटिश सत्ता इस आंदोलन से भयभीत हो गई। 1900 में बिरसा को गिरफ्तार कर रांची जेल में बंद कर दिया गया। 9 जून 1900 को मात्र 25 वर्ष की आयु में उन्होंने जेल में प्राण त्याग दिए। ब्रिटिश सरकार ने उनकी मृत्यु को “रोग” बताया, परंतु इतिहास जानता है कि वह एक सांस्कृतिक योद्धा का बलिदान था।
बिरसा मुंडा की विचारधारा — धर्म, स्वराज और समरसता का संगम
बिरसा मुंडा का जीवन दर्शन भारतीय संस्कृति के तीन प्रमुख सूत्रों से जुड़ा था —
1. धर्म (सनातन मूल्य) — उन्होंने प्रकृति, ईश्वर और मानव के समरस संबंध को धर्म का आधार माना।
उनके लिए धरती माँ थी, जंगल मंदिर था, और श्रम पूजा थी।
2. स्वराज (राजनैतिक स्वतंत्रता) — उनका “अबुआ राज” गांधी के “संपूर्ण स्वराज” का पूर्वाभास था।
3. समरसता (सामाजिक एकता) — बिरसा ने जाति, गोत्र और वर्ग के भेद मिटाकर एकता का संदेश दिया।
धरती आबा बिरसा कहते थे -
"ईश्वर ने हमें अलग नहीं बनाया, हम सब एक ही मिट्टी से बने हैं।” उनकी यह भावना भारतीय समरसता की जड़ में निहित सनातन दृष्टि को पुष्ट करती है।
स्वतंत्रता पूर्व राष्ट्ररक्षा में जनजातीय योगदान-
भारत की स्वतंत्रता से बहुत पहले जनजातीय समाज ने “स्वराज” का अर्थ आत्मनिर्भरता, आत्मगौरव और आत्मसंरक्षण के रूप में समझ लिया था। मुगल आक्रमणों से लेकर अंग्रेज़ी शासन तक - जनजातीयों ने धर्मांतरण के हर प्रयास को अस्वीकार किया और वन और भूमि पर अपने अधिकार की रक्षा की। साथ ही अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभावों से बचाए रखा। उनके संघर्ष ने भारतीय राष्ट्र को वह आत्मबल दिया, जिसके बिना 1857 की क्रांति या 1947 की स्वतंत्रता संभव नहीं होती। जनजातीय समाज ने “राष्ट्र के अस्तित्व और अस्मिता” की रक्षा की यही उनका सनातन धर्म था।
जनजाति गौरव दिवस : राष्ट्र की आत्मा का पुनर्जागरण
15 नवम्बर का यह दिवस केवल भगवान बिरसा मुंडा की जयंती नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा के पुनर्जागरण का पर्व है। यह हमें स्मरण कराता है कि - “भारत की स्वतंत्रता केवल अंग्रेज़ों से राजनीतिक मुक्ति नहीं थी, बल्कि वह सांस्कृतिक और धार्मिक पुनर्जन्म थी।” आज जब भारत अमृत काल में प्रवेश कर चुका है, तब जनजातीय समाज के योगदान को पुनः स्मरण करना राष्ट्रधर्म है।
बिरसा मुंडा का जीवन हमें प्रेरित करता है कि —
हम अपने धर्म, भूमि और संस्कृति की रक्षा करें, विकास के साथ परंपरा का संतुलन बनाए रखें,
और भारत को “एकात्म मानवता” के आदर्श पर आगे बढ़ाएँ। धरती आबा बिरसा मुंडा अमर रहें!
उनका जीवन आज भी हर भारतीय के लिए यह संदेश देता है - “धरती हमारी माँ है, उसकी रक्षा ही सच्चा धर्म है।”