-डॉ महिमा तारे
"मैं एक साधारण स्वयंसेवक" यह मात्र पुस्तक नहीं है, न ही यह सिर्फ़ एक व्याख्यान है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सूत्र वाक्य में एक गीता के समान है।
यह पुस्तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर “श्री गुरुजी” के एक बहुमूल्य बौद्धिक वर्ग व्याख्यान का संकलन है। शाखा एक घंटे की होती है, और शाखा के दर्शन का शेष 23 घंटे स्वयंसेवक के व्यवहार में प्रदर्शन हो यह अपेक्षा एक स्वयंसेवक से की जाती है। एक स्वयंसेवक जो दिखने में भले ही साधारण हो, पर असाधारण क्षमता का धनी होता है, इसका बोध कराने के लिए ही यह पुस्तक पाथेय रूप में है।
हम जानते हैं कि अनेक स्वयंसेवक अपना परिचय देते हुए कहते हैं “मैं एक साधारण स्वयंसेवक हूँ।” इन्हीं शब्दों को इस किताब के शीर्षक के रूप में उपयोग किया गया है। इसे प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। यह एक छोटी सी पुस्तक है।
गुरुजी कहते हैं कि ‘स्वयंसेवक’ का अर्थ है स्व का समर्पण, स्वयं की आहुति। इस छोटी सी पुस्तक में गुरुजी ने बताया है कि स्वयंसेवक शाखा का संचालन कैसे करें, समाज में कैसा व्यवहार रखे, शाखा के आसपास के लोगों से कैसे संबंध बनाएँ, और व्यवहार स्नेहपूर्वक किस प्रकार होना चाहिए इन सभी बातों को बड़ी ही सरल भाषा में समझाया गया है।
पुस्तक की प्रस्तावना ही उसका संपूर्ण परिचय है। स्वयंसेवक को इसका नित्य प्रतिदिन पाठ करना चाहिए। पूजनीय श्री गुरुजी ने अपने व्याख्यान में बताया है कि स्वयंसेवक का दायित्व कितना असाधारण है, और इसे उन्होंने अत्यंत सरल तथा बोधगम्य भाषा में समझाया है। पद एक व्यवस्था है और वह परिवर्तनशील है, परंतु स्वयंसेवक होना एक स्थायी भाव है। पूजनीय गुरुजी ने यह अपेक्षा की है कि संघ का स्वयंसेवक उस तत्व को समझे जो इसमें अंतर्निहित है। वह तत्व क्या है? ध्येय के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा, समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रामाणिकता, और प्रसिद्धि की चाह न होना।
पूजनीय श्री गुरुजी ने सरसंघचालक के पद पर रहते हुए कहा था कि उनकी इच्छा है कि एक बार वह स्वयंसेवक के रूप में ही कार्य करें। हम जानते हैं कि संघ कार्य के विस्तार में वे इसके लिए समय नहीं निकाल पाए। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमने पूजनीय सुदर्शन जी को इस भूमिका में भी कार्य करते हुए प्रत्यक्ष देखा। पुस्तक को पढ़िए और उसका कृतिरूप दर्शन सरसंघचालक के दायित्व के बाद कैसे करना है, यह सुदर्शन जी ने करके दिखाया। यह पुस्तक प्रत्येक स्वयंसेवक को उसके महनीय दायित्व का स्मरण कराती है। अतः यह केवल पुस्तक नहीं है, न ही कोई बौद्धिक विलास। यह एक प्रेरणा है, एक पाथेय है।
पुस्तक का आकार भी ऐसा है कि इसे हम अपने साथ रख सकते हैं। शताब्दी वर्ष में यदि स्वयंसेवक इसका कुछ अंश भी अपने जीवन में उतारें, तो उन्हें अपने असाधारण होने का गौरव अनुभव होगा। इस पुस्तक में गुरुजी ने कहा है कि स्वयंसेवक को बुद्धिवाद नहीं करना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में “अब यदि कोई सोचता है कि मैं बड़ा बुद्धिमान हूँ और बुद्धि के बल पर दूसरे को संघ कार्य की अच्छाई समझा दूँगा और वह मान जाएगा, तो यह उसकी भूल है।” हम बौद्धिकता से किसी को संघ नहीं समझा सकते। यह अपने व्यवहार से संघ को प्रत्यक्ष दिखाने का कार्य है। संघ कैसा है, यह बताने का सबसे उत्तम और प्रभावी तरीका स्वयंसेवक और उसका व्यवहार है। स्वयंसेवक के व्यवहार पर ही संघ की प्रामाणिकता टिकी होती है।
गुरुजी आगे कहते हैं कि संघ के स्वयंसेवक को बुद्धिवाद रहित, स्वार्थ रहित और बहस रहित होना चाहिए। साथ ही दूसरों के प्रति शुद्ध प्रेम का व्यवहार, स्वयंसेवक की चारित्रिक शुद्धता और विश्वासपात्रता भी आवश्यक है। इन्हीं गुणों के कारण वह एक साधारण स्वयंसेवक से असाधारण व्यक्तित्व बन जाता है। वस्तुतः इस पुस्तक की समीक्षा असंभव है। स्वयंसेवक जितनी बार इसे पढ़ेगा, अपने लिए एक जीवन सूत्र प्राप्त करेगा और यह अनुभव करेगा कि स्वयंसेवक होना उसके जीवन का सौभाग्य है।