सुरेश हिन्दुस्थानी
मामाजी यानी श्री माणिकचंद वाजपेयी, जिनका पूरा जीवन राष्ट्रीय विचार के लिए समर्पित रहा। आज की पीढ़ी के लिए उनका जीवन-दर्शन स्वयं एक विचार है। जुझारू पत्रकार और लेखक मामाजी से राष्ट्रीय विचारधारा से जुड़ा कौन व्यक्ति अपरिचित होगा! माणिकचंद वाजपेयी, उपाख्य ‘मामाजी’, ने समाज के अनेक क्षेत्रों में मौन तपस्वी की भांति अनथक कार्य किया और हर जगह आत्मीय संबंध जोड़े। उनका हर कार्य, यहां तक कि उनके प्रत्येक शब्द, आज की पत्रकारिता के लिए प्रेरणा हैं।
तन समर्पित, मन समर्पित और जीवन समर्पित की राह को अंगीकार करने वाले ऋषि-तुल्य पत्रकार मामाजी ने अपने आलेखों के माध्यम से समाज, जीवन और लेखकों को दिशा प्रदान की। हम जैसे अनेक लेखक उनके लेखों को बार-बार पढ़कर प्रेरणा और दिशा प्राप्त करते रहे हैं। ‘समय की शिला पर नाम’ से प्रकाशित उनके आलेख आज भी अनुकरणीय शिलालेख हैं। वास्तव में मामाजी का लेखन केवल कागज़ी लेखन नहीं था, वे हर लेख को जीवंतता के साथ रचते थे। जैसे भाग्य का लिखा कोई मिटा नहीं सकता, वैसे ही मामाजी के लेखन की जीवंतता को कोई मिटा नहीं सकता। उनके लेखों को पढ़ना अपने आप में किसी राष्ट्रीय सम्मान की प्राप्ति जैसा है।
सरल, मृदुभाषी, अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले मामाजी प्रचार से कोसों दूर रहते थे। उनकी पहचान ही उनकी लेखनी थी जो न जाने कितने संपादकीय लेखों, आलेखों और तीन अनुपम पुस्तकों के शब्द-शब्द में उनके जीवट व्यक्तित्व को झलकाती है। ऋषि-तुल्य मामाजी का स्मरण करना हम सबके लिए सौभाग्य की बात है। वास्तव में मामाजी को आधुनिक पत्रकारिता को दिशा देने वाला ऋषि कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

महाविद्यालयीन पढ़ाई पूरी करने के बाद 1944 में मामाजी ग्वालियर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गए। 1953 में संगठन के आदेश पर भारतीय जनसंघ के संगठन मंत्री के रूप में कार्य किया। 1966 में विजयादशमी के दिन स्वदेश (इंदौर) समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और मामाजी संपादक के रूप में उससे जुड़े। उसके पश्चात 1971 में ग्वालियर स्वदेश तथा उसके अन्य संस्करणों में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आपातकाल के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया, पर निरंकुश सत्ता उनकी लेखनी को रोक न सकी। वे इंदौर जेल में 19 माह रहे और इस दौरान जेल की कोठरी से ही संपादकीय लेख लिखकर भेजते रहे, जिन्हें पढ़कर लोकतंत्र के शत्रुओं की कुर्सी हिलने लगती थी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक यानी समाज और देश को अपना सब कुछ मानकर जीवन जीने वाले मामाजी जिस राह पर चले, वह प्रत्येक भारतवासी के लिए अनुपम उदाहरण है। वास्तव में संघमय जीवन जीना एक तपस्या है, एक साधना है। राष्ट्र और धर्म के लिए जीवन जीने की प्रेरणा देने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समाज के बीच अनेक जीवन-आदर्श दिए हैं। उन्हीं में से एक मामाजी का जीवन समाज के हर उस बिंदु को स्पर्श करता है, जहां समाज अपने सांस्कृतिक गौरव की अनुभूति करता है।
उनके भीतर का लेखक समाज की समस्याओं और राष्ट्रनिष्ठ संगठनों पर होने वाले आघातों से आहत था। इसी मनोभाव में उन्होंने ग्रंथ-लेखन भी किया। उनकी लिखी तीन पुस्तकें वस्तुतः संदर्भ-ग्रंथ बन गई हैं। 1948 में संघ पर लगे प्रतिबंध पर आधारित उनकी पुस्तक का नाम है ‘प्रथम अग्नि परीक्षा’। आपातकाल के दौरान संघ के स्वयंसेवकों के संघर्ष को उन्होंने ‘आपातकाल संघर्ष गाथा’ में संजोया। 1947 के बाद के विभिन्न कालखंडों में संघ स्वयंसेवकों के संघर्षों और बलिदानों के जीवंत वर्णन से सजी उनकी तीसरी पुस्तक का शीर्षक है ‘ज्योति जला निज प्राण की’।
1947 से पहले राजनीति और पत्रकारिता व्यवसाय नहीं, बल्कि मिशन हुआ करते थे। दुनिया के अन्य देशों में ये दोनों सामान्य पेशे थे, पर भारत में राजनीति और पत्रकारिता से जुड़ने वाले इसे मिशन ही मानते थे। हिन्दुत्वनिष्ठ विचारधारा से जुड़ी पत्र-पत्रिकाएं भले बहुत ऊँचाई तक न पहुंची हों, पर जितनी सफल हैं, वह मामा जी जैसी समर्पित विभूतियों के कारण ही संभव हुआ। राष्ट्रीयता को पुष्ट करने के लिए मामाजी का जीवन प्रेरणादायी है।
7 अक्टूबर 1919 को आगरा के निकट बटेश्वर गांव में जन्मे माणिकचंद वाजपेयी और अटल बिहारी वाजपेयी बालसखा भी रहे और एक-दूसरे के संघर्षमय जीवन के साक्षी भी।
इंदौर में मामाजी के अमृत महोत्सव के अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री और उनके बालसखा अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था “मामा जी का अभिनंदन करके लग रहा है जैसे हम अपना ही अभिनंदन कर रहे हैं।” श्री वाजपेयी ने कहा कि “छोटे से गांव बटेश्वर में जन्म लेने वाला यह बालक मनई आज ‘जगत मामा’ कैसे हो गया, इसकी कथा मर्मस्पर्शी है। इसमें संघर्ष है, राष्ट्रप्रेम है, समाजसेवा का भाव और लोकसंग्रह की कुशलता भी है। मामा जी का जीवन खुला काव्य है, जो त्याग, तपस्या और साधना से भरा है।”
उन्होंने आगे कहा “मामाजी ने अपने को समष्टि के साथ जोड़ा, व्यष्टि की चिंता छोड़ दी। देखने में साधारण हैं, पर व्यक्तित्व असाधारण। विचारधारा विशेष से जुड़े पत्रों के संपादन की चुनौती के संदर्भ में मामा जी ने अपने आचरण से दिखाया है कि विचारधारा से जुड़ा समाचार पत्र सही मार्गदर्शन भी कर सकता है और स्तर भी बनाए रख सकता है। मामा जी को काम की धुन सवार है, वे कष्ट की चिंता किए बिना निरंतर लिखते रहे हैं।”
वास्तव में मामाजी का जीवन राष्ट्रवादी ध्येय के प्रति पूर्णतः समर्पित था। भारत में कहा जाता है कि संसार में व्यक्ति भले ही न रहे, पर उसके कर्म उसे अमर कर देते हैं। जो व्यक्ति उच्च आदर्शों के साथ जीवन का संचालन करता है और केवल दूसरों की चिंता करते हुए कार्य करता है, वह समाज के लिए प्रेरणा तो देता ही है, साथ ही वंदनीय भी बन जाता है।
भले ही आज मामाजी भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके द्वारा छोड़ी गई स्वर्णिम विरासत वाली राह पर आज सैकड़ों लोग चलने को आतुर हैं। मामाजी का ध्येयमय जीवन हम सबके लिए एक ऐसा पाथेय है, जो जीवन को अनंत ऊंचाइयों की ओर ले जाने में समर्थ है।