रानी दुर्गावती: स्वाभिमान और शौर्य की अमर गाथा

05 Oct 2025 18:56:45

Rani Durgavati1
 
 
एडवोकेट सोनल दरबार
 
भारत के इतिहास में कुछ ऐसे विरले व्यक्तित्व हुए. जिनके नाम न केवल वीरता और बलिदान का प्रतीक बने, बल्कि जो अपने समय और सामर्थ्य से कहीं आगे की सोच और अद्वितीय साहस का परिचायक बने. भारत का जनजाति समाज अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं, विशिष्ट संस्कृति और श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के साथ सदैव से भारतीय सभ्यता और संसस्कृति का अभिन्न अंग रहा है. जनजाति समाज ने अपने शौर्य और बलिदान से राष्ट्र की रक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है. आज मैं इन्हीं में से एक वीर नारी वीरांगना रानी दुर्गावती जी के जीवन चरित्र को, उनकी पवित्र स्तुति को, इतिहास में उनसे जुडे़ उस स्वर्णिम पृष्ट को पुनः आलोकित करके और उनके बलिदान, पहचान आदि के विषय में लिखने से मैं अपने आपको बहुत गौरवांवित महसूस कर रही हूं.
 
हल्दी घाटी का युद्ध 18 जून 1576 को लड़ा गया था. उससे ठीक 12 साल पहले रानी दुर्गावती ने 24 जून 1564 को मुगल शासक अकबर के विरुद्ध एक अद्वितीय समरांगण के महासमर में स्वयं को आहुत कर दिया. उन्होंने मुगलों के सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय खुद को समाप्त करना बेहतर समझा. रानी दुर्गावती ऐसी वीरांगना थीं, जिन्होंने 16वीं शताब्दी में गढ़-मंडला साम्राज्य को न केवल अपनी कुशल शासन व्यवस्था से समृद्ध किया, बल्कि मुगल साम्राज्य जैसे शक्तिशाली शत्रु के सामने अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक युद्ध किया. यह लेख रानी दुर्गावती के जीवन, उनके शासन, युद्ध कौशल, सामाजिक योगदान और उनकी अमर विरासत पर विस्तृत प्रकाश डालता है, जो युगों तक भारतीय जनमानस की चेतना को 'राष्ट्राय स्वाहा' के पथ पर अग्रसर करता रहेगा.
 
प्रारंभिक जीवन: एक वीरांगना का उदय
 
कोई भी व्यक्ति या व्यक्तित्व का निर्माण एक दिन में नहीं होता. मनुष्य के जन्म की परिस्थिति, पृष्ठभूमि, पालन-पोषण, संस्कार, संघर्ष, मार्गदर्शन और आदर्श संबंधी प्रमुख कारकों से मिलाकर के किसी व्यक्तित्व के मनुष्य से एक पूजनीय लोक देवता होने की यात्रा पूरी होती है.
 
5 अक्टूबर, 1524 को उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित कालिंजर किले में रानी दुर्गावती नाम से एक नन्हीं किलकारी गुंजती है. वे चंदेल राजवंश के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की इकलौती संतान थी. चंदेल वंश जो अपनी वीरता, कला और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था, ने रानी दुर्गावती को एक समृद्ध और सशक्त परिवेश प्रदान किया. कालिंजर किला, जो उस समय मध्य भारत का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक केंद्र था. रानी के बचपन का गवाह बना. बचपन से ही रानी दुर्गावती में असाधारण गुण दिखाई देने लगे थे. उन्हें न केवल शास्त्रों और साहित्य का ज्ञान दिया गया. बल्कि युद्ध कला, घुड़सवारी, तलवारबाजी, धनुर्विद्या और शस्त्र संचालन में भी प्रशिक्षित किया गया. उनके पिता ने उन्हें एक योद्धा के रूप में तैयार किया, जिससे वे भविष्य में किसी भी चुनौती का सामना करने में सक्षम हो सकें. इसके साथ ही, रानी को कूटनीति और प्रशासनिक कौशल भी सिखाया गया, जो भविष्य में उनके शासनकाल में उनकी सबसे बड़ी ताकत बने.
 
1542 में रानी दुर्गावती का विवाह गढ़-मंडला के राजा संग्राम शाह के पुत्र दालपत शाह से हुआ. यह विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं था, बल्कि यह विवाह सामाजिक समरसता का एक अनूठा उदाहरण और चंदेल और गोंड राजवंशों का एक रणनीतिक गठबंधन था. साथ ही उन आलोचकों के लिए करारा जवाब भी जो भारतीय संस्कृति में जातिवाद और वर्ण व्यवस्था का दुष्प्रचार करते हैं. गढ़-मंडला, जो आज के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में फैला था. उस समय एक समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य था. दुर्भाग्यवश विवाह के कुछ वर्षों बाद ही रानी दुर्गावती के पति राजा दालपत शाह का निधन हो गया. उस समय उनका पुत्र राजकुमार वीर नारायण नाबालिग था, जिसके कारण रानी दुर्गावती ने गढ़-मंडला की बागडोर अपने हाथों में ली.
 
शासनकाल: गढ़-मंडला का स्वर्णिम युग
 
रानी दुर्गावती ने 1542 से 1564 तक गढ़-मंडला साम्राज्य पर शासन किया. यह वह दौर था जब भारत में कई क्षेत्रीय शक्तियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी और मुगल साम्राज्य धीरे-धीरे अपने पांव पसार रहा था. ऐसे में रानी दुर्गावती ने न केवल अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखा, बल्कि इसे समृद्ध और संगठित भी बनाया.
 
 
रानी एक कुशल प्रशासक थी. उन्होंने अपने साम्राज्य में बुनियादी ढांचे के विकास पर विशेष ध्यान दिया. सड़कों, कुओं, तालाबों, और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया गया. जिससे व्यापार और आवागमन को बढ़ावा मिला. गढ़-मंडला की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि और वन उत्पादों पर आधारित थी. रानी ने किसानों को प्रोत्साहन देने के लिए सिंचाई व्यवस्था को मजबूत किया और कर प्रणाली में सुधार किए, ताकि प्रजा पर अनावश्यक बोझ न पड़े.
 
रानी दुर्गावती ने सामाजिक समरसता पर भी विशेष जोर दिया. गढ़-मंडला में गोंड जनजाति की बड़ी आबादी थी और रानी ने उनकी संस्कृति, परंपराओं और जीवनशैली का सम्मान करते हुए, उन्हें मुख्यधारा में शामिल किया. उन्होंने जनजातीय और गैर-जनजातीय समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखा और सभी को न्यायपूर्ण शासन प्रदान किया. उनकी नीतियों ने सामाजिक एकता को बढ़ावा दिया और गढ़-मंडला को एक सशक्त साम्राज्य बनाया. रानी की कूटनीतिक बुद्धिमत्ता भी उल्लेखनीय थी. उन्होंने पड़ोसी राज्यों, जैसे - मालवा, बुंदेलखंड और रीवा, के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे. उनकी कूटनीति ने गढ़-मंडला को कई संभावित आक्रमणों से बचाया. इसके साथ ही, उन्होंने अपनी सेना को अत्यंत संगठित और शक्तिशाली बनाया. उनकी सेना में गोंड योद्धाओं के साथ-साथ घुड़सवार, पैदल सैनिक और तोपखाने शामिल थे. रानी स्वयं एक कुशल घुड़सवार और तलवारबाज थी. और उनकी युद्ध रणनीतियां उनकी सेना की ताकत को और बढ़ाती थी.
 
मुगल आक्रमण और रानी दुर्गावती का शौर्य
 
 रानी दुर्गावती के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी. मुगल साम्राज्य के साथ उनका संघर्ष.. यह समय था 16वीं शताब्दी की जब मुगल शासक अकबर भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार करने में जुटा हुआ था. गढ़-मंडला, जो अपनी प्राकृतिक संपदा (जैसे हीरे, सोना और जंगल) और रणनीतिक स्थिति के कारण महत्वपूर्ण था. जल्द ही मुगलों की नजर में आ गया. अकबर ने अपने सेनापति आसफ खान को गढ़-मंडला पर आक्रमण करने का आदेश दिया. 1564 में आसफ खान ने गढ़-मंडला पर आक्रमण शुरू किया. रानी दुर्गावती के सामने दो विकल्प थे - एक मुगलों के सामने समर्पण कर दें, दूसरा अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युद्ध करें! रानी ने दूसरा रास्ता चुना. उन्होंने अपनी छोटी लेकिन साहसी सेना को संगठित किया और मुगल सेना का सामना करने की तैयारी की.
 
अकबर की सेना ने रानी दुर्गावती पर तीन बार आक्रमण किया, लेकिन रानी ने तीनों बार उसे पराजित कर दिया. रानी दुर्गावती ने अपनी रणनीति के तहत युद्ध को जंगलों और पहाड़ी क्षेत्रों में लड़ा. जहां उनकी सेना को भौगोलिक लाभ मिला. गढ़-मंडला की घने जंगलों और उबड़-खाबड़ इलाकों ने मुगल सेना के लिए युद्ध को कठिन बना दिया. एक महिला शासक से इतनी बार हारने के बाद आसफ खान गुस्से से भर गया और 1564 में उसने एक बार फिर रानी के राज्य पर आक्रमण कर दिया. नर्रई नाले के युद्ध में रानी ने अपनी वीरता का अद्भुत प्रदर्शन किया. इस युद्ध में वे अपने प्रिय हाथी ‘सरमन’ पर सवार होकर स्वयं मैदान में उतरीं और मुगल सेना पर तीव्र आक्रमण किए. उनकी सेना ने कई बार मुगलों को पीछे हटने पर मजबूर किया. हालांकि, मुगल सेना की संख्या और संसाधन गढ़-मंडला की सेना से कहीं अधिक थे. कई दिनों तक चले इस युद्ध में रानी की सेना ने वीरतापूर्वक संघर्ष किया, लेकिन अंततः रानी घायल हो गईं. और 24 जून, 1564 को, जब रानी को अपनी हार निश्चित दिखाई दी. तो उन्होंने अपने सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए स्वयं ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली. रानी दुर्गावती ने मुगलों के हाथों बंदी बनने के बजाय आत्म बलिदान का रास्ता चुना.
 
रानी दुर्गावती की विरासत
 
रानी दुर्गावती की मृत्यु के साथ ही गढ़-मंडला का स्वर्णिम युग समाप्त हो गया, लेकिन उनकी वीरता और बलिदान की कहानी आज भी जीवित है. रानी दुर्गावती को न केवल एक शासिका और योद्धा के रूप में याद किया जाता है, बल्कि एक ऐसी नारी के रूप में भी, जिन्होंने अपने देश और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए. उनकी कहानी भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता, स्वाभिमान और साहस का प्रतीक है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रानी दुर्गावती को एक लोक नायिका के रूप में पूजा जाता है. उनके नाम पर कई विश्वविद्यालय, सड़कें और स्मारक बनाए गए हैं. जबलपुर में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय उनकी स्मृति को समर्पित है. इसके अलावा गढ़-मंडला क्षेत्र में उनकी वीरता को समर्पित कई लोक गीत और कथाएं प्रचलित है. रानी दुर्गावती की कहानी नारी सशक्तिकरण का एक जीवंत उदाहरण है. उन्होंने उस दौर में, जब महिलाओं को युद्ध और शासन जैसे क्षेत्रों में सीमित माना जाता था. तब यह साबित किया कि साहस और नेतृत्व लिंग से परे है. उनकी कूटनीति, प्रशासनिक कुशलता और युद्ध कौशल आज के योद्धाओं, नेताओं और प्रशासकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है.
 
आधुनिक प्रासंगिकता
 
आज के समय में रानी दुर्गावती की कहानी कई मायनों में प्रासंगिक है. उनकी कहानी हमें सिखाती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं माननी चाहिए. उनका जीवन हमें यह भी सिखाता है कि अपनी संस्कृति, परंपराओं और पहचान की रक्षा करना कितना महत्वपूर्ण है. वैश्वीकरण के इस युग में, जब सांस्कृतिक मूल्य और परंपराएं खतरे में है. रानी दुर्गावती की कहानी हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहने की प्रेरणा देती है. रानी दुर्गावती की कहानी नारी शक्ति का प्रतीक है. आज जब हम नारी सशक्तिकरण की बात करते हैं, तब रानी दुर्गावती का उदाहरण हमें यह विश्वास दिलाता है कि महिलाएं किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल कर सकती है. उनकी कहानी हमें यह भी सिखाती है कि सच्चा नेतृत्व केवल शक्ति में नहीं, बल्कि कर्तव्यनिष्ठा और प्रजा के प्रति समर्पण में निहित है.
 
रानी दुर्गावती भारतीय इतिहास की उन गौरवमयी नायिकाओं में से एक हैं, अकबर के नवरत्नों में से अबुल फजल ने अपनी रचना "आइने-अकबरी" में रानी दुर्गावती के बारे में लिखा है. उनसे युद्धों के इतिहास का उल्लेख करते हुए न केवल रानी दुर्गावती के शौर्य को वर्णित किया है बल्कि उनके शासनकाल की समृद्धि और उनके राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन किया है. रानी दुर्गावती की शौर्य गाथा न केवल गढ़-मंडला की कहानी है, बल्कि यह हर उस व्यक्ति की कहानी है. जो अपने देश, संस्कृति और स्वाभिमान के लिए लड़ता है. रानी मां की यह शौर्य गाथा हमें और मृत्युंजय भारत की भावी पीढ़ियों को प्रेरित, और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करती रहेगी.
 
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