रमेश शर्मा
जिस प्रकार भगवान श्रीराम का पूरा जीवन पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों की रक्षा के आदर्श से भरा रहा, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह शताब्दी यात्रा भी रामजी की भाँति ध्येयनिष्ठ संकल्प और संघर्ष से युक्त रही।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब अपनी शताब्दी यात्रा पूरी कर रहा है। संघ की इस सौ वर्षीय यात्रा में अनेक उतार-चढ़ाव आए। तीन बार तो प्रतिबंध लगे, लेकिन संघ के संकल्प में कोई अंतर नहीं आया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 विजयदशमी को हुई थी। उस दिन अंग्रेजी तिथि 27 सितंबर थी। संघ रचना के संकल्पक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने संघ की स्थापना वर्ष के लिए विजयदशमी का दिन ही निश्चित किया और प्रतिवर्ष विजयदशमी को ही स्थापना दिवस मनाने की परंपरा आरंभ की। उन्होंने स्थापना दिवस मनाने में विक्रम संवत पर ज़ोर नहीं दिया। उन्होंने 1925 ही रखा, लेकिन 27 सितंबर के स्थान पर विजयदशमी ही सुनिश्चित की, ताकि प्रतिवर्ष स्थापना दिवस आयोजन के साथ विजयदशमी का ध्येय विस्मृत न हो। ध्येय का स्मरण ही संघ की केन्द्रीभूत चेतना है, जो संघ को सतत सक्रिय और संकल्पवान बनाए हुए है।
विजयदशमी की यह तिथि असत्य पर सत्य की विजय की प्रतीक है। हमें प्रतिवर्ष यह तिथि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी की मर्यादा, संकल्प, संघर्ष और मानवीय मूल्यों की स्थापना करने के अभियान का स्मरण कराती है। विजयदशमी आसुरी शक्तियों के शमन और समाज में सात्विक मूल्यों की प्रतिष्ठापना की तिथि है। बलपूर्वक स्त्रियों का हरण करना, दूसरे की संपत्ति और राज्य पर अधिकार करना, यज्ञ-हवन-पूजन स्थलों का विध्वंस करना, छल-बल से मानव समाज को दास बनाना और निर्दोष नागरिकों की हत्या करना आसुरी शक्तियों का स्वभाव रहा है। रामजी ने ऐसी शक्तियों का शमन करके मानवीय मर्यादा की स्थापना की थी। रामजी के कार्य अथवा उनके द्वारा किए गए युद्ध साम्राज्य विस्तार के लिए नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए थे। ठीक इसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह शताब्दी यात्रा रही है।
संघ की स्थापना के पीछे डॉक्टर जी का उद्देश्य राजनीति करना नहीं था। वे राजनीति में थे और सम्मानजनक स्थिति में भी थे। लेकिन स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उन्होंने भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक मूल्यों का निरंतर ह्रास देखा। वे भारत में एक स्वाभिमान-संपन्न समाज और संस्कृति-संपन्न राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे। इसी ध्येय की पूर्ति के लिए उनके मन में एक ऐसी रचना करने का विचार उठा, जो अपने लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र और समाज के लिए जिए।
जिस परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व में आया, वह परिस्थिति उस परिस्थिति से बहुत भिन्न नहीं थी, जैसी त्रेता युग के उस कालखंड में थी जब रामजी ने अवतार लिया था। आसुरी शक्तियों का बोलबाला था। सनातन परंपराओं के प्रतीक यज्ञ-हवन-पूजन का दमन करने में ये सभी आसुरी शक्तियाँ सक्रिय रहती थीं। वे सीधे हमले नहीं करती थीं, अपितु कुचक्र रचती थीं। समाज में विखराव और भय का वातावरण था, जिससे समाज न तो ठीक से प्रतिकार कर पाता था और न संगठित हो पाता था। इसका पूरा लाभ आसुरी शक्तियाँ उठा रही थीं।
रामजी चाहे विद्या-अध्ययन के लिए वनक्षेत्र में महर्षि वशिष्ठ आश्रम गए हों, महर्षि विश्वामित्र के साथ निकले हों अथवा अपनी वनवास यात्रा पर निकले हों, उन्होंने ऋषि आश्रमों से लेकर समाज के सभी वर्गों से संपर्क किया और सबको एकजुट करके उनकी अपनी संस्कृति के अनुरूप जीवन जीने को प्रेरित किया। महर्षि अत्रि से संवाद हो अथवा माता शबरी का आश्रम, रामजी ने सबको एक सूत्र में पिरोया। बिल्कुल यही शैली संघ-रचना में है। रामजी की भाँति संघ का उद्देश्य भी अपना प्रभाव बढ़ाना अथवा सत्ता का मार्ग बनाना नहीं, अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक भाव का जागरण करना था, जैसा रामजी ने अपने पूरे जीवन भर किया।
संगठित समाज, आत्मबोध का जागरण ही संघ-स्थापना का ध्येय
किसी भी विशाल वटवृक्ष का अंकुरण अकस्मात नहीं होता। इसके लिए धरती के गर्भ में लंबे समय तक कुछ रासायनिक और वानस्पतिक प्रक्रियाएँ चलती हैं, तब जाकर किसी विशाल वटवृक्ष का अंकुरण होता है। ठीक यही पृष्ठभूमि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उदय की रही है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी के मन में संघ को आकार देने का विचार अकस्मात नहीं आया था। उनके परिवार में स्वत्व, स्वाभिमान और राष्ट्रभाव के लिए समर्पित वातावरण था और भारतीय समाज-जीवन की विसंगतियाँ भी थीं। पराधीन भारत में कुछ ऐसी शक्तियाँ प्रबल हो रही थीं, जो पूरी सनातन संस्कृति और परंपराओं का रूपांतरण करने में जुटी थीं। उनके षड्यंत्र इतने प्रबल और छलयुक्त थे कि सनातन समाज के मनीषी या तो उनसे भ्रमित हो रहे थे अथवा असहाय अनुभव कर रहे थे। इस वातावरण से डॉक्टर जी का मन सदैव बेचैन रहता।
कोई कल्पना कर सकता है उस बालक की मनोदशा और मन में उठ रहे देशाभिमान के विचारों की, जो केवल बारह वर्ष की आयु में अपने समवयस्क सहपाठियों को एकत्र करके ब्रिटिश सत्ता के प्रतीक यूनियन जैक को उतारकर भगवा ध्वज फहरा दे। यह साहस करने वाले डॉक्टर केशव हेडगेवार जी ही थे।
बड़े होकर डॉक्टरी पढ़ने कलकत्ता गए तो वहाँ अपनी पढ़ाई के साथ अनुशीलन समिति से जुड़े और क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। जिन दिनों वे कलकत्ता में थे, वहाँ उन्होंने तीन प्रकार का वातावरण देखा एक ओर समाज को बाँटकर अपनी पैठ जमाने के लिए मिशनरियों की सक्रियता, दूसरी ओर कट्टरपंथी तत्वों द्वारा छल-बल से समाज का मतांतरण, और तीसरी ओर केवल प्राण बचाने और पेट भरने के लिए सनातन समाज के सामान्य जनों का संघर्ष।
इन मानसिक वेदनाओं के साथ पढ़ाई पूरी करके नागपुर लौटे और कांग्रेस से जुड़कर स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हुए। लेकिन कुछ बातों पर उनके और कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं में मतभेद हुए।
डॉक्टर जी कांग्रेस के एक प्रस्ताव की उस कंडिका से सहमत नहीं थे, जिसमें मुस्लिम लीग को स्थानीय असेंबलियों के आंतरिक चुनाव में धार्मिक आधार पर एक-तिहाई सीटें देने पर सहमति दी गई थी। यह बात 1916 की है। डॉक्टर जी इसे मुस्लिम लीग का एक षड्यंत्र मानते थे। लीग के चुनाव लड़ने या न लड़ने पर उन्हें आपत्ति नहीं थी, पर वे लीग के उस कट्टरपंथ को देशहित के लिए नुकसानदेह मानते थे, जिसकी ध्वनि लीग के नेताओं के कार्यों से झलक रही थी। समय के साथ उनकी यह आशंका सही भी निकली।
दूसरा, पूर्ण स्वराज्य की माँग को लेकर कांग्रेस में मतभेद थे। कांग्रेस में एक बड़ा समूह ऐसा था जो आंदोलन को केवल नागरिक सम्मान और समान अधिकार तक सीमित रखना चाहता था और पूर्ण स्वराज्य की माँग के पक्ष में नहीं था। डॉक्टर जी ने कांग्रेस के पूना प्रांतीय अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा, जो पारित न हो सका। यह 1920 की बात है।
फिर भी कांग्रेस के आह्वान पर हुए असहयोग आंदोलन में डॉक्टर जी बढ़-चढ़कर सहभागी बने, गिरफ्तार हुए और जेल गए। इसी बीच कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन के साथ खिलाफत आंदोलन भी जोड़ लिया। डॉक्टर जी खिलाफत आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि खलीफा परंपरा का संबंध भारत से नहीं था। खलीफा का केन्द्र तुर्की था। वह एक ऐसा धार्मिक शासक था जिसका घोषित उद्देश्य पूरी दुनिया में इस्लाम का निजाम स्थापित करना था। अंग्रेजों ने वह सत्ता समाप्त कर दी थी।
लेकिन भारत में सक्रिय कट्टरपंथियों ने कांग्रेस को अपने पक्ष में कर लिया। उनके तीन उद्देश्य थे, अंग्रेजों पर दबाव बनाना, पूरे भारत के मुसलमानों को एकजुट करना और कांग्रेस के माध्यम से उन लोगों को तटस्थ करना, जो भारत के सनातन मूल्यों की स्थापना के लिए सक्रिय थे।
कांग्रेस में लाला हंसराज, स्वामी श्रद्धानंद, सावरकर जी, लाला लाजपत राय, डॉक्टर मुंजे आदि अनेक ऐसे विचारक थे, जो सनातन परंपराओं को पुनर्प्रतिष्ठित करने और मतांतरण के विरुद्ध थे। लेकिन असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन के जुड़ जाने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं की यह धारा असहज हुई और कट्टरपंथियों का मनोबल बढ़ा।
इसे मालाबार, पेशावर, ढाका और चटगाँव आदि स्थानों में हुई हिंसा से समझा जा सकता है। ये घटनाएँ साम्प्रदायिक हिंसा नहीं थीं, बल्कि एकतरफा हमले थे। हिन्दुओं का नरसंहार हुआ, फिर भी चारों ओर चुप्पी रही। पीड़ितों के पक्ष में कोई सामने नहीं आया।
1906 में मुस्लिम लीग के गठन के बाद ऐसी हिंसा शुरू हुई थी, जो 1921 के बाद बढ़ी। 1924 तक तो मानो एकतरफा हिंसा की बाढ़ ही आ गई थी। देश भर में हुई ऐसी हिंसा का विवरण इतिहास के पन्नों में उपलब्ध है। भयग्रस्त समाज का पलायन अथवा प्राणरक्षा के लिए स्वत्व से विस्मृत होकर मतांतरण की घटनाएँ बढ़ने लगी थीं। मानो समाज का स्वाभिमान कहीं लुप्त हो गया था।
ऐसा नहीं था कि तब सनातन सेवकों ने आवाज न उठाई हो। तब भी भारत के हर हिस्से से स्वाभिमान जागरण का आह्वान हुआ था। अनेक महापुरुष आगे आए। लेकिन असंगठन अथवा आंतरिक भय के चलते समाज का मनोबल वैसा जाग्रत न हुआ, जैसी आवश्यकता थी।
ये समस्त परिदृश्य डॉक्टर जी के सामने थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ समाज-जीवन में स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का संकल्प लिया और 1925 विजयदशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ साकार स्वरूप में आया।
रामजी की भाँति आदर्श समाज-रचना के लिए समर्पित रही संघ की शताब्दी यात्रा
रामजी के जीवन में तीन आयाम हैं, दो वनयात्राएँ और तीसरा अपने राज्याभिषेक के बाद का जीवन। तीनों परिस्थितियाँ भले ही भिन्न रही हों, लेकिन रामजी का लक्ष्य तीनों में समान रहा।
महर्षि विश्वामित्र के साथ पहली वनयात्रा में और फिर अपने वनवास काल में रामजी ने आसुरी शक्तियों का दमन कर समाज जीवन में आदर्श मूल्यों का वातावरण रचा। सभी समाज समूहों, वर्गों और वन क्षेत्रों के रहने वाले समाज-जन को गले लगाकर समरसता का वातावरण बनाया और सबको अपने आत्माभिमान के साथ संगठित रहने के लिए प्रेरित किया।
रामजी का यह अभियान अपने राज्याभिषेक के बाद भी रहा। उन्होंने सात्विक सनातन परंपराओं की स्थापना और मर्यादित मानवीय जीवन-विकास के लिए शत्रुघ्न जी एवं लक्ष्मण जी के नेतृत्व में अनेक दल पूरे भारत में रवाना किए। ये अभियान राज्य विस्तार के लिए नहीं थे, बल्कि संपूर्ण धरती को आसुरी शक्तियों के प्रभाव से मुक्त कर सनातन परंपराओं की स्थापना के लिए थे।
यही चिंतन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। डॉक्टर जी ने केवल संघ की स्थापना के लिए ही रामजी की विजय की प्रतीक विजयदशमी तिथि का चयन नहीं किया, बल्कि संघ की कार्यशैली में भी ऐसे संस्कारों का बीजारोपण किया, जो भारत राष्ट्र में उन्हीं आदर्श मूल्यों की स्थापना करें, जिनके लिए रामजी ने अवतार लिया था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी शताब्दी यात्रा भी इसी संकल्पना से युक्त है। संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक और कार्यकर्ता मानो राजकाज का सैनिक है और सनातन संस्कृति तथा मानवीय मूल्यों की संस्थापना के अभियान के लिए समर्पित है।
संघ-रचना का ध्येय भारतीय जीवन में स्वत्व का बोध कराकर भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा करना रहा है। संघ कार्यकर्ताओं को यह ध्येय सदैव स्मरण रहे, इसलिए डॉक्टर जी ने प्रतिवर्ष संघ का स्थापना दिवस स्मरण कराने की परंपरा आरंभ की, जो संघ की इस पूरी शताब्दी यात्रा में प्रतिबिंबित भी है।
विषमताओं से विचलित नहीं हुआ संघ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस शताब्दी यात्रा में अनेक उतार-चढ़ाव आए। तीन बार तो प्रतिबंध भी लगे। गाँधी जी की हत्या का बहाना लेकर तो मानो संघ के दमन का एक अभियान ही चला। संघ कार्यकर्ताओं पर हमले हुए, कहीं-कहीं तो ज़िंदा जलाया गया। आपातकाल की गिरफ्तारियों के बाद पुलिस द्वारा संघ परिवारों की प्रताड़ना की कहानियाँ आज भी रोंगटे खड़े कर देती हैं।
केरल एवं उत्तर-पूर्व के प्रांतों में संघ कार्यकर्ताओं पर आज भी हमले होते हैं। पर संघ ने कभी कोई प्रतिकार नहीं किया। वह राष्ट्र और समाज जागरण के अपने अभियान पर निरंतर है। विषमताओं से संघ कभी विचलित नहीं हुआ और न ही विपरीत परिस्थिति में अपने लक्ष्य से अलग हुआ।
अपितु संघ के स्वयंसेवक हर संकट के बाद अधिक संकल्पवान होकर सामने आए। यही कारण है कि संघ ने वैश्विक स्वरूप ग्रहण कर लिया है और वह संसार का सबसे विशाल सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है। वह अपने कार्यकर्ताओं के मन में उसी प्रकार बसता है, जैसे रामजी अपने भक्तों के हृदय में।
अपनी पहली शताब्दी यात्रा पूरी करने के साथ अब संघ प्रत्येक भारतवासी को राष्ट्र-निर्माण की यात्रा में जोड़ने का संकल्प लेकर दूसरी शताब्दी यात्रा आरंभ करने की तैयारी कर रहा है।