राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ - स्थापना से शताब्दी तक

02 Oct 2025 10:33:21

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अखिलेश श्रीवास्तव
 
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 में विजयादशमी के दिन विक्रम संवत 1982 को हुई थी । तब डॉ केशव राव बलिराम हेडगेवार ने बाल और तरुण युवकों को साथ लेकर संघ का प्रारंभ किया था. पर संघ की स्थापना के पहले से ही सामाजिक कामों में लगे हुए अप्पाजी जोशी जैसे व्यक्तियों को भी साथ लिया इन सभी ने आजीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम किया। इसका उद्देश्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन था। तब से सहयोग और सहभागिता के बल पर संघ का कार्य निरंतर बढ़ता गया है। प्रतिदिन चलने वाली शाखाओं के माध्यम से बालक, युवा और प्रौढ़ अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन अनुभव करते हैं, जिससे समाज में संघ की शक्ति और स्वीकृति सतत बढ़ रही है। आज 100 वर्ष की इस यात्रा ने समाज में उत्सुकता जगाई है कि लोग संघ कार्य को जानें और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उससे जुड़ें।
 
आज आरएसएस जिस रुप में दिखता है वैसा 1925 में नहीं था। संघ के नाम का निर्णय भी संघ की स्थापना के पश्चात हुआ । अब जबकि संघ अपनी स्थापना की शताब्दी वर्ष में है । तब मन में कई सवाल उठते हैं कई प्रश्न उठना स्वाभाविक है . संघ के प्रारंभिक काल में देश की और समाज की क्या स्थिति थी उस स्थिति को यदि ध्यान में रखा जाए तो संघ की स्थापना का कारण समझने में आसानी होगी 1925 में कांग्रेस का लगभग देशव्यापी संगठन था । यद्यपि उसके अध्यक्ष हर साल बदलते रहते थे। पर सभी सूत्र गांधी जी के हाथों में थे। गांधीजी स्वाधीनता के पुरुस्कर्ता थे साथ ही अहिंसा और हिंदू मुस्लिम एकता के पुरुस्कर्ता भी थे । 1920 में लोकमान्य तिलक जी के अवसान के बाद गांधी जी कांग्रेस के सर्वे सर्वा बन गए थे। इधर डॉ हेडगेवार 1911 से 1913 तक कोलकाता में डॉक्टरी पढ़ते समय प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेता पुलिन बिहारी दास के साथ संपर्क में रहकर क्रांतिकारी कार्यों में संलग्न थे वे कोलकाता में शांतिनिकेतन में रहते थे और अनुशीलन समिति जिसके नेता उन दिनों प्रसिद्ध क्रांतिकारी त्रिलोक्य नाथ चक्रवर्ती थे, उनके निर्देश अनुसार शस्त्र संग्रह इत्यादि के काम करते रहते थे, उस समय उनके साथ ही डॉक्टर नारायणराव सावरकर जो वीर सावरकर के भाई थे वह भी रहे । जब वे कोलकाता में डॉक्टरी पढ़ रहे थे तो उनके एक सहपाठी नलिनी किशोर ने अनुशीलन समिति में भर्ती होने के उद्देश्य से उन्हें त्रिलोकनाथ चक्रवर्ती से मिलवाया था। इस बात की पुष्टि त्रिलोकनाथ चक्रवर्ती जी ने भी अपनी पुस्तक "जेले त्रिश बछर" जेल में 30 वर्ष" में की है. डॉ केशव राव बलिराम हेडगेवार के क्रांतिकारी जीवन के विषय में उन्होंने न केवल अपनी इस पुस्तक में जानकारी दी वरन डॉक्टर हेडगेवार का फोटो भी छापा। अनुशीलन समिति के प्रमुख पुलिन बिहारी दास और त्रिलोकनाथ चक्रवती को अंडमान में काले पानी की सजा हुई थी। डॉ केशव राव बड़ी मात्रा में क्रांतिकारी साहित्य गुप्त रूप से कोलकाता से नागपुर के युवाओं के लिए भेजते थे।
 
 
सन 1920 में डॉ हेडगेवार पांडिचेरी में श्री अरविंद घोष से मिले और उनसे आग्रह किया कि वे नागपुर कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष पद स्वीकार करें। डॉ केशव ने कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में गांधी जी से यह निवेदन किया कि कांग्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है इसका प्रस्ताव पारित करना चाहिए। इस अधिवेशन की व्यवस्था का दायित्व डॉक्टर हेडगेवार को ही सौंपा गया था। बाद में जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो डॉ केशव राव ने अपनी पूरी शक्ति से इस आंदोलन में सक्रियता दिखाई । मध्य प्रांत के गांव-गांव तक दौरा करके सभाओं द्वारा आंदोलन का प्रचार किया। उन दिनों वहां के जिलाधिकारी अंग्रेज सिरिलजेम्स इर्विन ने डॉक्टर हेडगेवार के ऊपर 23 फरवरी 1921 से 1 महीने तक सभा न करने और भाषण देने पर प्रतिबंध लगा दिया । यह कार्यवाही धारा 144 के अंतर्गत की गई पर डॉक्टर हेडगेवार भाषणों और सभाओं का काम करते रहे । परिणाम स्वरुप 1921 की मई में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उनके भाषणों को ब्रिटिश सरकार ने आपत्तिजनक माना । 31 मई 1921 को यह मुकदमा प्रारंभ हुआ और मिस्टर स्माइली की अदालत में 14 जून को उनकी पेशी हुई । डॉक्टर जी ने अदालत में भी उत्तेजना पूर्ण भाषण दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि 19 अगस्त को हजार हजार रुपये की दो जमानत व एक हजार का मुचलका और 1 वर्ष तक राजद्रोहात्मक भाषण ना देने का लिखित वचन देने के लिए उनसे कहा । पर उन्होंने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया और कहा कि हमें पूर्ण स्वतंत्रय चाहिए और वह लिए बिना हम चुप नहीं बैठेंगे । परिणाम स्वरूप उनके लिए 1 साल का सश्रम कारावास सुनाया गया और वे जेल के लिए विदा हो गए।
डॉ हेडगेवार आजादी की लड़ाई में लगातार सक्रिय रहे। चाहे क्रांतिकारी गतिविधियां हो या सामाजिक कार्य हो। इस बीच में देश भर के अलग-अलग लोगों से मिलते रहे.
 
डॉ. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे। अंग्रेजों की गुलामी उन्हें गहरी चुभती थी, पर वह मानते थे कि केवल स्वतंत्रता प्राप्त करना पर्याप्त नहीं है। उन्होंने सोचा कि भारत गुलाम क्यों बना, इसका मूल कारण खोजकर उसका समाधान करना होगा। आत्मजागृति, स्वाभिमान, एकता, अनुशासन और राष्ट्रीय चरित्र निर्माण को उन्होंने आवश्यक माना। इसी उद्देश्य से स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहते हुए भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।
 
उनके साथ वहां भाऊजी कावरे, अन्ना जी सोहनी, विश्वनाथ राव केलकर, बालाजी खुद्दार, बापूराव बेदी जैसे लोग थे।
 
धीरे-धीरे संगठन बड़ा और बना । आज जिस नाम से हम इस संगठन को जानते हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह 27 अप्रैल 1927 में तय हुआ। 28 मई 1926 संघ में लाठी का नियमित प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ।
 
नागपुर के बाद संघ की पहली शाखा सन 1926 में 18 फरवरी को वर्धा में शुरू हुई। जल्दी ही महाराष्ट्र के अन्य शहरों में भी विस्तार होने लगा। जहाँ 1929 में शाखाओं की संख्या 37 थी, वह 1933 तक 125 हो गई। डॉ. हेडगेवार एक पत्र के माध्यम से लिखते हैं, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य हमने किसी एक नगर या प्रांत के लिए आरंभ नहीं किया है। अपने अखिल हिंदुस्थान देश को यथाशीघ्र सुसंगठित करके हिंदू समाज को स्वसंरक्षण एवं बलसंपन्न बनाने के उद्देश्य से इसे प्रारंभ किया गया है।“
इस प्रकार धीरे-धीरे संघ बढ़ता गया और आज संघ अपने तीन दर्जन संगठनों से ज्यादा उपक्रमों के साथ समाज के काम में लगा हुआ है । आज संघ की शक्ति है वह पूरे भारतीय समाज की शक्ति है। यह शक्ति पूरे देश में दिखाई पड़ती है.
 
डॉ. साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे। इस दौरान संघ शाखाओं के द्वारा संगठन खड़ा करने की प्रणाली डॉ. साहब ने विचारपूर्वक विकसित कर ली थी। संगठन के इस तंत्र के साथ राष्ट्रीयता का महामंत्र भी बराबर रहता था। इन वर्षों में जिनसे भी उनका संपर्क हुआ, उन्होंने उनकी और उनके कार्यों की हमेशा सराहना की। जिनमें महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, विनायक दामोदर सावरकर, बी. एस. मुंजे, विट्ठलभाई पटेल, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के. एम. मुंशी जैसे नाम प्रमुख थे.
डॉक्टर हेडगेवार 1940 में नहीं रहे।
उसके बाद दूसरे सरसंघचालक के रूप में माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर श्री गुरुजी जिनका उपाख्य था सरसंघचालक बने। उसके बाद मधुकरराव दत्तात्रेय बाला साहब देवरस तीसरे सरसंघचालक बने । चौथे सरसंघचालक के रूप में प्रोफेसर राजेंद्र सिंह रज्जू भैया सरसंघचालक बने , उसके बाद के एस सुदर्शन जी सरसंघचालक बने और आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ चालक के रूप में डॉ मोहन राव भागवत जी हैं।
 
डॉ. हेडगेवार ने कहा था—“संघ कार्य केवल शाखा तक सीमित नहीं, सम्पूर्ण हिन्दू समाज ही कार्यक्षेत्र है।”
 
 
शाखाओं में पुरुषों के लिए व्यक्ति-निर्माण का कार्य होता है, तो महिलाओं के लिए यही कार्य राष्ट्र सेविका समिति करती है। सेवा, संपर्क और प्रचार विभागों सहित धर्मजागरण, ग्राम विकास, कुटुंब प्रबोधन, समरसता, गौ-संवर्धन और पर्यावरण जैसे 32+ क्षेत्रों में स्वयंसेवक, मातृशक्ति और सज्जन शक्ति मिलकर सक्रिय हैं।
 
वर्तमान में स्वयंसेवकों द्वारा विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से लगभग 1,29,000 सेवा कार्य और गतिविधियाँ संचालित हैं, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक कार्य और स्वावलंबन प्रमुख हैं।
 
वर्तमान में सम्पूर्ण भारत के कुल 924 जिलों (संघ की योजना अनुसार) में से 98.3% जिलों में संघ की शाखाएँ चल रही हैं। कुल 6,618 खंडों में से 92.3% खंडों (तहसील), कुल 58,939 मंडलों (मंडल अर्थात 10–12 ग्रामों का एक समूह) में से 52.2% मंडलों में, 51,710 स्थानों पर 83,129 दैनिक शाखाओं तथा अन्य 26,460 स्थानों पर 32,147 साप्ताहिक मिलन केंद्रों के माध्यम से संघ कार्य का देशव्यापी विस्तार हुआ है, जो लगातार बढ़ रहा है।
 
 
इन 83,129 दैनिक शाखाओं में से 59 प्रतिशत शाखाएँ छात्रों की हैं तथा शेष 41 प्रतिशत व्यवसायी स्वयंसेवकों की शाखाओं में से 11 प्रतिशत शाखाएँ प्रौढ़ (40 वर्ष से ऊपर आयु) स्वयंसेवकों की हैं। बाक़ी सभी शाखाएँ युवा व्यवसायी स्वयंसेवकों की हैं।
 
संघ चारों दिशाओं में एक साथ बढ़ रहा है। इसका अर्थ चारो दिशाओं में समाज का संगठित होना है. विजय दशमी 2025 अर्थात 2 अक्टूबर को संघ अपने सौ वर्ष पूरे कर रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए. "भारत माता की जय हो" इसी संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है और समाज से आग्रह कर रहा है कि आइए एक साथ मिलकर हम अपनी सभी चुनौतियों का समाधान करें. भारत को भारत बनाए, विश्व गुरु भारत बनाए क्योंकि भारत को ही विश्व का दिशा दर्शन करना है, तब ही पूरी दुनिया शांति के साथ रह सकेगी. भारत की दुनिया को देखने की दृष्टि न तो शासक की है न बाजार की हमारी दृष्टि विश्व बंधुत्व की है, वसुधैव कुटुम्बकम की है.
धनुष से जो छूटता है, बाण कब मग में ठहरता,
देखते ही देखते वह, लक्ष्य का ही वेध करता.
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