दशहरा और दीवाली के बीच समरस राष्ट्र एवं समाज के बीस दिन

14 Oct 2025 16:48:05

Diwali
 
 

रमेश शर्मा

 

विजयादशमी और दीपावली के बीच के ये बीस दिन संपूर्ण समाज और राष्ट्र को एक सूत्र में समरस होने की अवधि हैं। इसका बहुत स्पष्ट संदेश लंका विजय के बाद श्रीराम जी के अयोध्या लौटने की तैयारी में भी दिया गया है, और इसे लोकजीवन में दीपावली की तैयारियों से भी समझा जा सकता है।

 

भारतीय वाङ्मय की प्रत्येक पुराण कथा, अवतारों की अवधारणा या तीज-त्योहार मनाने की परंपरा साधारण नहीं है। इसके पीछे आदर्श समाज निर्माण और प्रत्येक प्राणी तथा प्रकृति के साथ समन्वय का संदेश छिपा है। यदि “वसुधैव कुटुम्बकम” कहा गया है तो यह केवल सिद्धांत नहीं, बल्कि व्यवहारिक जीवन में उतारने का संदेश है, जो सभी तीज-त्योहारों में निहित है।

 

अब विजयादशमी के बाद दीपावली की तैयारियों के इन बीस दिनों की अवधि को ही देखें इसमें संपूर्ण समाज एक-दूसरे का पूरक और एक-दूसरे पर आधारित दिखाई देता है। मानो संपूर्ण राष्ट्र समरसता की एक माला में पिरोया हुआ है। यही कार्य श्रीराम जी ने लंका विजय के बाद किया था और यही परंपरा दीपावली की तैयारी में भी झलकती है।

 

रावण वध के बाद के बीस दिन

 

रावण वध के बाद रामजी को अयोध्या लौटने में पूरे बीस दिन लगे थेयह अवधि न तो अनावश्यक विलंब की थी, न केवल विजय का उत्सव मनाने की, बल्कि पूरे भारतवर्ष और प्रत्येक समाज को समरस बनाकर एक सूत्र में पिरोने की थी। इसका स्पष्ट उल्लेख रामचरितमानस में मिलता है।

 

रावण वध अश्विन मास के शुक्ल पक्ष दशमी को हुआ था, जबकि रामजी कार्तिक मास की अमावस्या को अयोध्या लौटे। इन दोनों तिथियों के बीच बीस दिन का अंतर है। इस अवधि में वे लंका में नहीं रुके। केवल दो दिन लंका में रहे।

 

रावण वध के बाद रामजी अपने सैन्य शिविर में रहे। उन्होंने विभीषण को आदेश दिया कि युद्ध में मारे गए रावण सहित सभी परिजनों का अंतिम संस्कार करें। इसमें एक दिन लगा। अगले दिन विभीषण का राज्याभिषेक हुआ। इसके बाद विभीषण स्वयं सीतामाता को सम्मान सहित रामजी के पास लेकर आए। वे विभिन्न भेंटों और पुष्पक विमान के साथ आए ताकि रामजी तुरंत अयोध्या लौट सकें। ये मिलाकर कुल दो दिन हुए।

 

पुष्पक विमान साधारण नहीं था वह दिव्य था, जो पवन से भी तीव्र गति से चल सकता था और जिसमें यात्रियों की असीम क्षमता थी। यात्रियों की संख्या बढ़ने के साथ उसका विस्तार भी हो सकता था। रामजी उसी संध्या को पुष्पक विमान द्वारा लंका से रवाना हुए। वे चाहते तो कुछ घंटों में ही अयोध्या पहुँच सकते थे, लेकिन उन्हें मार्ग में अठारह दिन लगे और वे कार्तिक मास की अमावस्या को अयोध्या लौट सके।

 

यह प्रश्न स्वाभाविक है कि रामजी ने पुष्पक विमान में बैठकर सीधे अयोध्या का मार्ग क्यों नहीं पकड़ा और उन्हें अठारह दिन क्यों लगे? इसका समाधान उनके लौटने के विवरण में निहित है।

 

रामजी ने लौटने के लिए उसी मार्ग का चयन किया, जिससे वे लंका गए थे। उन्होंने यात्रा के दौरान उन सभी वन्य और ग्राम्य क्षेत्रों के निवासियों से भेंट की जिनसे जाते समय मिले थे। वे उन सभी ऋषि आश्रमों में भी गए जहाँ वे पूर्व में गए थे। लौटते समय उन्होंने समाज के सभी प्रतिनिधियों से भेंट की और सबको अयोध्या आने का आमंत्रण दिया। जो समाज प्रमुख उनके साथ चलने को तैयार हुए, उन्हें अपने साथ पुष्पक विमान में बैठा लिया। इनमें भील, निषाद, किरात आदि समाजों के प्रमुख थे। रामजी ने प्रत्येक स्थान पर एक रात्रि विश्राम भी किया। इसी कार्य में उन्हें अठारह दिन लगे।

 

इन अठारह दिनों में रामजी ने पूरे भारत और सभी समाज जनों को स्वयं से जोड़ा और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प दिलाया। क्योंकि दानवी शक्तियाँ सात्विक समाज के विखराव का ही लाभ उठाती हैं। यदि समाज संगठित, जागरूक और एक सूत्र में आबद्ध है तो आसुरी शक्तियाँ कभी प्रभावी नहीं हो सकतीं। साथ ही, रामजी ने यह संदेश भी दिया कि जो लोग कठिन समय में सहयोग करते हैं, उनके प्रति सदैव आभार का भाव रखना चाहिए।

 

दीपोत्सव की तैयारी में समरसता की झलक

 

रामजी ने जो संदेश लंका से अयोध्या लौटने की यात्रा में दिया था, वही संदेश आज भी दीपावली की तैयारियों में झलकता है। यदि दीपावली केवल दीप जलाने की परंपरा होती, तो यह कार्य एक दिन में पूरा हो सकता थापरंतु दीपावली एक दिन का उत्सव नहीं हैयह पाँच दिवसीय पर्व है और इसकी तैयारियों में पूरे अठारह-बीस दिन लग जाते हैं

 

यह पाँच दिवसीय त्यौहार और उसकी तैयारियाँ संपूर्ण समाज को एक सूत्र में जोड़ती हैं। साफ-सफाई, लिपाई-पुताई, पुरानी वस्तुओं को हटाना, नई वस्तुओं की खरीदइन सभी में समाज का ऐसा कोई वर्ग नहीं है जिसकी सहभागिता न हो। घर की झाड़ू से लेकर स्वर्णाभूषण तक सभी वस्तुएँ खरीदी जाती हैं। समाज का ऐसा कौन व्यक्ति है जिसे इस दौरान भेंट नहीं दी जाती? यही तो सर्व समाज की सहभागिता और सहयोग है।

 

दीपावली की पूजा में जिन वस्तुओं को अनिवार्य बताया गया है, उनका संबंध भी समाज के विभिन्न शिल्प समूहों से है। रामजी ने श्रीलंका से लौटते समय यही संदेश दिया था कि संपूर्ण भारतीय समाज संगठित रहे, परस्पर सहयोगी बने। तभी सभ्य और सुसंस्कृत समाज आसुरी शक्तियों से सुरक्षित रह सकता है।

 

हम आज भले ही मूल उद्देश्य का स्मरण न करते हों, पर समाज को जोड़ने और जुड़ने की प्रक्रिया आज भी यथावत है। साफ-सफाई, लिपाई-पुताई से लेकर नए वस्त्र, बर्तन, आभूषण और गृह-सज्जा की वस्तुओं की खरीद तक हर कार्य में सबका श्रम और सहयोग शामिल है। हर हाथ को काम मिलता है, हर व्यक्ति दूसरे की आवश्यकता समझता है। यही तो सच्ची दीवाली है।

 

भारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों को सर्वोच्च मानती है। इसमें संसार का प्रत्येक प्राणी समाया है। त्यौहारों की परंपराएँ भी यही संदेश देती हैं कि विभिन्न समाजों और वर्गों के सभी व्यक्ति परस्पर जुड़ें और एक-दूसरे के पूरक बनें। इसमें कोई भेद नहीं, न नगरवासी का, न ग्रामवासी का, न वनवासी का।

 

भारतीय संस्कृति में न जन्म का, न वर्ग का, न वर्ण का, न जाति का भेद है। यह गुण और कर्म पर आधारित है। इसी कारण निषाद, किरात और वनवासी, सुग्रीव जैसे सभी श्रीरामजी के मित्र हैं। जो अंतर हमें दिखाई देता है, वह केवल बाहरी स्वरूप का है। जैसे हर भूमि पर अलग फल-फूल या फसल होती है, हर पर्वत पर भिन्न औषधियाँ मिलती हैं, पर सब एक-दूसरे के पूरक हैं एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं।

 

उसी प्रकार, प्राणियों की भाव-भाषा और जीवनशैली में विविधता देशकाल और परिस्थिति के अनुसार स्वाभाविक है। यही विविधता विकास की धारा बनती है, जिसके आधार पर समाज, वर्ग और उपवर्ग बने। परंतु आंतरिक रूप में सभी एक ही हैं।

 

ग्रामवासियों और वनवासियों के जो समूह आज भील, कोल, कोरकू, माड़िया, मुंडा आदि नामों से जाने जाते हैं, वे रामायण काल में भी थे। पर उनमें मानवीय सम्मान का कोई भेद नहीं था। तभी तो श्रीरामजी उनके बीच रहे और लौटते समय उनके मुखियाओं को पुष्पक विमान में अपने साथ लेकर अयोध्या आए।

 

जिस प्रकार एक ही वृक्ष की शाखाएँ अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके बीज से नया वृक्ष पनपता है, उसी प्रकार समाज का विस्तार होता है। विश्व की संपूर्ण मानवता का केंद्र-बिंदु एक ही है। यही भाव रामजी के आचरण में था, और यही संदेश दीपावली की तैयारी में भी निहित है।

 

रामायण काल को भले हजारों वर्ष बीत गए हों, दासत्व का अंधकार भी सैकड़ों वर्षों तक रहा, फिर भी भारतीय जीवन में यह परंपरा आज तक जीवित है। इसीलिए दीपावली केवल दीपोत्सव नहीं, बल्कि समूचे समाज का कायाकल्प है धन से, श्रम से, परस्पर आदान-प्रदान और भेंट-मिलाप से।

 

इस प्रकार विजयदशमी से दीपावली के बीच के ये बीस दिन संपूर्ण राष्ट्र और समाज वर्गों के परस्पर समरूप होने, एक-दूसरे के पूरक बनने और एकता की भावना को सशक्त करने की अवधि हैं।
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