रमेश शर्मा -
इतिहास के पन्नों में एक ओर आक्रांताओं के क्रूरतम अत्याचार और विध्वंस का वर्णन है तो दूसरी ओर भारतीयों के शौर्य का विवरण भी। भोपाल के समीप हुआ यह एक ऐसा युद्ध था जिसमें मुगल, निजाम हैदराबाद अवध और भोपाल नबाब की संयुक्त सेनाओं को मराठों ने पराजित किया। पेशवा बाजीराव ने 70 हजार मुगल सैनिकों से समर्पण कराया और पचास लाख रुपया युद्ध खर्चे के रूप में वसूल किये।
उन दिनों मुगल बादशाह मोहम्मद शाह दिल्ली की गद्दी पर थे। निजाम हैदराबाद, अवध, भोपाल आदि सब उनके आधीन थे, लेकिन निजाम भी मन ही मन अपनी ताकत बढ़ा रहा था। निजाम ने एक प्रकार से भोपाल रियासत को अपने आधीन कर लिया था। उधर मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव ने उत्तर भारत में अपनी धाक भी जमा ली थी। वे छत्रपति शिवाजी महाराज के उस सपने को पूरा करने के अभियान में लगे थे जो उन्होंने पूरे भारत में हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के लिए देखा था। बाजीराव के 1720 में पेशवा बनने के बाद उन्होंने उत्तर भारत पर चढ़ाई आरंभ की और उन्हें हर युद्ध में विजय मिली। युद्ध के मैदान में मुगल और उनके समर्थक उनके सामने टिक ही नहीं पाते थे। इसके दो कारण थे, एक तो औरंगजेब के मरने के बाद मुगल सत्ता कमजोर होने लगी थी और दूसरे पेशवा बाजीराव अद्भुत सेनापति थे। वे युद्ध नीति और कूटनीति दोनों में पारंगत थे। उन्होंने दिल्ली पर अनेक धावे बोले और उनका हर धावा सफल रहा।
1737 में मराठा सेना के दिल्ली में हुये हमले के बाद तो मानों बादशाह मोहम्मद शाह ने भी समर्पण ही कर दिया था, पर बादशाह के मन में मराठों के प्रति भारी खुंदक थी। बादशाह ने दिल्ली से लौटते पेशवा बाजीराव और मराठा सेना को रास्ते में घेरकर समाप्त करने का षड्यंत्र रचा। यह कार्य निजाम हैदराबाद को सौंपा गया। उन दिनों भोपाल रियासत भी निजाम के आधीन हुआ करती थी। बादशाह ने अवध के नबाब से भी बात की और राजा जयसिंह द्वितीय से भी और रणनीति बनी कि उत्तर भारत से वापस लौट रही मराठा सेना को भोपाल में घेरा जाय। भोपाल के समीप सिरोंज से लेकर दोराहे तक और रायसेन के बीच नाकाबंदी कर ली गई। निजाम हैदराबाद भोपाल आकर किले में रुक गया। इस नाकबंदी की खबर बाजीराव को लग गई थी। बाजीराव चलती हुई सेना में रणनीति बनाने और बदलने में माहिर माने जाते थे। उनकी सेना में लगभग पचास हजार सैनिक थे। उन्होंने अपनी सेना की तीन टुकड़ियाँ बनाईं, 20-20 हजार के दो दस्ते और एक दस्ता दस हजार का बनाया।
उन्होंने पहले दस्ते से सिरोंज से आगे बढ़कर धावा बोला जिसकी कमान सिंधिया के हाथ थी। दूसरे दस्ते ने आष्टा से धावा बोला, इसकी कमान होल्कर के हाथ में थी। यह युद्ध दिसम्बर 1737 के अंतिम सप्ताह में आरंभ हुआ और लगभग एक सप्ताह के भीषण युद्ध के बाद पेशवा की तीसरी सुरक्षित टुकड़ी चिमाजी अप्पा के नेतृत्व में सीधे भोपाल में घुसी और किला घेर लिया। किले के भीतर निजाम हैदराबाद, नबाब भोपाल, नबाब अवध भी मौजूद थे। किला घेरकर पानी की सप्लाई काट दी गई। कुछ विवरणों में यह भी लिखा है कि पानी में विष मिला दिया गया था। जो भी हो, विष मिलाया हो या सप्लाई काटी हो। किले के भीतर लोग प्यास से बेहाल हो गये। तब निजाम ने राजा जयसिंह द्वितीय के माध्यम से संधि का प्रस्ताव भेजा। भोपाल के समीप दोराहा नामक स्थान पर पेशवा बाजीराव और राजा जयसिंह द्वितीय के बीच यह वार्ता आरंभ हुई, जो इतिहास में भोपाल युद्ध और दोराहा संधि के रूप में जानी जाती है। यह वार्ता 7 जनवरी 1738 को संपन्न हुई जिसमें पेशवा बाजीराव ने समझौते के लिये युद्ध स्थल पर मौजूद मुगल सेना के पूर्ण समर्थन की शर्त रखी और शर्त मानली गई। यह मुगल सेना लगभग सत्तर हजार सैनिकों की एक संयुक्त सेना थी जिसमें मुगल, निजाम, अवध और भोपाल रियासतों के सैनिक थे। सबने समर्पण किया। मराठा सेना ने मुगल सेना की तोपें और कुछ हथियार जब्त किये तथा युद्ध व्यय के रूप में पचास लाख रुपया भी वसूल किया और इसके साथ ही पूरे मालवा क्षेत्र में राजस्व बसूली के अधिकार भी लिये।
इतिहास में यह युद्ध अपनी तरह का बहुत अलग था। बाजीराव जब मथुरा से चले थे तब उन्हें कल्पना भी नहीं थी कि मार्ग में उन्हे घेरने का षड्यंत्र रचा गया है। उन्हें मार्ग में सूचना मिली और उन्होने बिना किसी हलचल के अपनी सेना को तीन टुकड़ियों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़ी आरोन के रास्ते सिरोंज की ओर चली तो दूसरी देवास की ओर रवाना हुई। सेना को विभाजित करके अलग-अलग दिशाओं में पेशवा बाजीराव की रणनीति थी लेकिन जब यह समाचार भोपाल आया तो निजाम हैदराबाद को अपनी जीत आसान लगी। उसे कल्पना भी न थी कि जो सेना देवास की ओर गई है वह आष्टा के रास्ते से हमला कर सकती थी। दो दिशाओं से हुये इस हमले और तीसरी टुकड़ी द्वारा सीधे किला घेर लेने जैसी रणनीति विश्व में बहुत कम देखने को मिलती हैं।