"बचेंगे तो और भी लड़ेंगे." - बलिदान दिवस - दत्ता जी शिंदे

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    10-Jan-2025
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Datta ji Shinde
 
रमेश शर्मा -
 
भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष साधारण नहीं है इसमें असंख्य बलिदान हुये हैं और सबसे बड़ी त्रासदी यह कि बाह्य आक्रमणकारियों की सहायता हमारे ही घर में रहने वाले कुछ भेदियों ने की है। विदेशी आक्रांता यदि भारत में सफल हुये हैं तो ऐसे लोगों की सहायता लेकर ही। कितने महानायक ऐसे हैं जिनका बलिदान स्थानीय और आत्मीय कहे जाने वाले विश्वासघातियों के रहते ही हुआ है। मराठा सेना नायक दत्ता जी शिन्दे के साथ भी ऐसा ही हुआ। भारत पर जब अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ और मुगल बादशाह ने मानों समर्पण कर दिया और हमलावर ने लूट और हत्याओं का तांडव किया तब मराठों की फौज राष्ट्र रक्षा के लिये दिल्ली पहुँची। पहले रूहेलखंड का सूबेदार नजब खां तटस्थ रहा जैसे मानों अहमदशाह अब्दाली को मार्ग दे रहा हो लेकिन दत्ता जी के पहुँचते ही वह अब्दाली से मिल गया और उसकी सेना खुलकर मराठों से मोर्चा लेने लगी।
 
 
अहमदशाह अब्दाली विश्व प्रसिद्ध लुटेरे और हत्यारे नादिरशाह का वंशज था। यह वही नादिरशाह था जिसने दिल्ली में कत्ले-आम कराया था। अहमदशाह ने भी भारत पर 6 बार हमले किए और उसका हर हमला हत्याकांड, स्त्रियों के अपहरण और लूट से भरा है। उसने कैसी लूट की होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन दिनों पंजाब से दिल्ली तक एक कहावत मशहूर हो गयी थी कि "जितना खा लो पी लो पहन लो वही अपना है, बाकी तो अहमदशाह ले जायेगा"। यह भारतीय इतिहास का वह काल-खंड है जब मुगल साम्राज्य विखर रहा था और उसे राज्य संचालन के लिये या तो मराठों की सहायता लगती थी या रुहेलों की। मराठा मुगल साम्राज्य की सहायता तो करते लेकिन इसके बदले में आर्थिक लाभ लेते और उससे मंदिरों का जीर्णोद्धार भी करते।
 
 
आज के उत्तर प्रदेश और पंजाब के अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार इसी काल में हुआ जिसमें मथुरा और बनारस के मंदिर भी शामिल हैं। लेकिन रुहेलों को यह बात पसंद न थी इसलिये वे मराठों से ईर्ष्या रखने लगे थे। रुहेलों का मराठों से ईर्ष्या रखने का एक कारण और था, वह था पेशावर और लाहौर की जीत। वस्तुतः पेशावर और लाहौर पर अफगानों ने अधिकार कर लिया था। उनका अधिकार हटाने के लिये पेशवा ने अठारह हजार सैनिकों की सेना के साथ दत्ता जी को उत्तर भारत भेजा। मराठों ने जीत दर्ज की और पंजाब तथा सिंध में पुनः सनातनी राज्य की स्थापना की, यह परिवर्तन सात सौ साल बाद हुआ था। सिंधु सम्राट जयपाल के अंतिम वंशज त्रिलोचनपाल थे उनका बलिदान मेहमूद गजनवी के साथ युद्ध में 1020 ईस्वी में हो गया था तब से इस क्षेत्र में सत्ताएं बदलीं शासक भी बदले पर सनातनी सत्ता बहाल न हो सकी। यह काम अब दत्ता जी के नेतृत्व में सन् 1758-59 के बीच लगातार युद्ध में मराठों की सेना ने किया था।
 
 
मराठों के इस अभियान में अहमदशाह अब्दाली का पुत्र भी मारा गया था। दत्ता जी अपना अभियान पूरा करके ग्वालियर लौट आये। अहमद शाह ने पहले मराठों की सेना को लौटने की प्रतीक्षा की। इस प्रतीक्षा में वह चुप नहीं बैठा और उसने गजनी और आसपास के इलाकों में ऐलान कराया कि लूट के लिये चलना है। लूट और स्त्रियों के हरण का लालच देकर उसने साठ हजार की फौज एकत्र की। इधर रुहेलों को मजहब का वास्ता देकर तोड़ा। इतनी तैयारी करके अब्दाली ने हमला बोला। अब्दाली के इससे पहले जो हमले हुये उनमें रुहेलो और मराठों ने मिलकर ही मोर्चा लिया था और अब्दाली वापस लौटने पर विवश किया था लेकिन इस हमले में यह बात न रही। नजब खां रुहेला भीतर से तो अब्दाली से मिल गया था लेकिन बाहर से उसने दत्ता जी को सहयोग का आश्वासन दिया। उसके आश्वासन पर दत्ता जी केवल ढाई हजार की सेना के साथ ग्वालियर से रवाना हुये, तब तक अब्दाली पंजाब में लूट मार करता हुआ दिल्ली आ धमका था।
 
 
दत्ता जी यह तो जानते थे कि अब्दाली की सेना कई गुना है लेकिन रुहेलों और मुगलों की सेना के सहयोग की उम्मीद थी पर वहीँ नजब खाँ के माध्यम से अब्दाली ने बादशाह को तटस्थ कर लिया था। वह दत्ताजी से अपने पुत्र की मौत का बदला लेना चाहता था। सेना कम होने के बाबजूद दत्ता जी का वीरभाव तनिक भी विचलित न हुआ। वे छापामार युद्ध में भी पारंगत थे इसलिए दिल्ली की ओर तेजी से आगे बढ़े। उन्हें अपने पूर्वजों के वीरभाव और विजय परंपरा का अनुसरण करना था। वे राणों जी शिंदे के पुत्र थे, राणों जी पेशवा बाजीराव के बाल सखा थे। पेशवा बाजीराव ने ही तीन मराठा सरदारों होल्कर, पंवार और राणोजी सिंधिया को उत्तर भारत भेजा था। राणों जी ने पहले अपना केन्द्र उज्जैन बनाया था बाद में ग्वालियर और मथुरा। मराठों ने ही मुगल बादशाह को पराजित कर मालवा और राजस्थान में राजस्व वसूली अधिकार लिये थे। जो दत्ता जी के नेतृत्व में संचालित हो रहा था।
 
 
मराठों ने अपना केन्द्र ग्वालियर बना लिया था पर उनकी सीमा मथुरा तक लगती थी। उनकी सीमा से लगा इलाका था रूहेलखंड, इतिहास में रूहेलखंड का वर्णन ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से मिलता है। सामान्यत: रूहेलखंड की सीमा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से तक्षशिला तक फैली थी यह कोई दस हजार वर्गमील क्षेत्र था। इसमें कुछ क्षेत्र राजस्थान और सिन्ध का भी शामिल था, यह माना जाता है एक समय मगध सम्राट चंद्रगुप्त ने इस क्षेत्र को सैन्य शक्ति के रूप में विकसित किया था। रुहेले का एक अर्थ योद्धा भी होता है, यह व्यवस्था सिकन्दर के आक्रमण के अनुभव के बाद आचार्य चाणक्य के परामर्श से लागू की गई थी। धीरे धीरे कुछ क्षेत्र टूटे और रूहेलखंड एक स्वतंत्र रियासत के रूप में अस्तित्व में आ गया। सल्तनत काल में दिल्ली के सुल्तानों को सबसे बड़ा प्रतिरोध इसी इलाके से झेलना पड़ा। फिर अलाउद्दीन खिलजी के समय दमन और धर्मांतरण का अभियान चला।
 
 
दिल्ली की सत्ता भले बदली हो पर रुहेलखंड का दमन न रुका। इसके साथ अफगानिस्तान से पठानों को भी लाकर बसाने का काम भी तेज हुआ और इन दोनों कामों से पूरे रूहेलखंड का रूपान्तरण हो गया। इस बदलाव के साथ रुहेले जो कभी दिल्ली की सत्ता के सिरदर्द हुआ करते थे अब दिल्ली सल्तनत के वफादार माने जाने लगे। जय हुई हो या पराजय लेकिन रुहेलों ने हर हमले में मुगलों के पक्ष में ही युद्ध किये थे उन्हे दरवार में भी एक सम्मान जनक स्थान भी प्राप्त था। दत्ता जी रुहेलों के इतिहास और मनोवृत्ति से अवगत थे इसलिये उन्होंने रुहेलों के आश्वासन पर बिल्कुल संदेश न किया और तेजी से दिल्ली बढ़ आये। वे रुहेलों की नियत में खोट को समझ ही न पाये। इतिहासकारों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि दत्ताजी के पास चालीस हजार की फौज थी फिर भी वे केवल ढाई हजार सैनिकों के साथ रवाना हो गये।
 
 
वे दिल्ली के पास बुराड़ी घाट नामक स्थान पर पहुंचे और वहाँ घिर गये। उन्हें वहाँ घेरने की रणनीति रुहेलों ने ही बनाई थी। वे अपनी पगड़ी में कन्हैया जी को रखते थे, उन्हे हालात समझते देर न लगी। उन्होंने पगड़ी से कन्हैयाजी को निकाला और अपने भाई माधवराव को देकर निकल जाने को कहा। उनके साथ जितने सैनिक आये थे सबने जी तोड़ युद्ध किया परन्तु उनके सामने बीस हजार पठानों की सेना और आठ हजार रुहेलों की सामने थी। किसी सैनिक ने पीठ न दिखाई सबने सीने पर वार झेले और बलिदान हुये। दत्ताजी भी बुरी तरह घायल होकर भूमि पर गिर पड़े। तभी नजब खां आया और उसने घायल दत्ताजी का शीश काटकर अहमदशाह अब्दाली को जाकर दिया। यह 10 जनवरी 1760 का दिन था। इस तरह अपने जीवन की अंतिम श्वांस तक मराठों ने भारत भूमि को आक्रमणकारी से बचाने की कोशिश की। इनके बलिदान के बाद ही अब्दाली ने लूट शूरू की। इस घटना से बादशाह इतना भयभीत हो गया था कि उसने न केवल नगर बल्कि महल में भी लूट की अनुमति दे दी। हमलावरों ने दिल्ली में जमकर लूट की स्त्रियों का हरण किया। इतिहासकार लिखते हैं कि मुगल खानदान की भी कोई स्त्री ऐसी न बची जिसके साथ अनाचार न हुआ हो ।