स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गौभक्त लाला हरदेव सहाय.

64 गाँवों में हिन्दी और संस्कृत विद्यालय खोले : अकाल में आमजन के लिए खोला अपना अन्न भंडार.

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    30-Sep-2024
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lala hardev sahay
 
रमेश शर्मा.
 
 
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कुछ सेनानी ऐसे भी हैं जो स्वतंत्रता संग्राम में जितने सहभागी बने उससे कई गुणा कार्य स्वाभिमान जागरण और स्वत्व बोध जागरण के लिये किया। लाला हरदेव सहाय ऐसे ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिनका पूरा जीवन निशक्त जनों और गौरक्षा एवं सेवा में बीता। आज उनकी उनकी पुण्यतिथि है।
 
ऐसे संत प्रकृति, समाज सेवी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लाला हरदेव सहाय का जन्म 26 नवम्बर 1892 को हरियाणा प्राँत के हिसार जिला के अंतर्गत ग्राम सातरोड़ में हुआ था। उनके पिता लाला मुसद्दीलाल उस पूरे इलाके के सबसे समृद्ध साहूकार थे जिनका ब्याज पर धन देने और अनाज का कारोबार था, पर घर में भारतीय संस्कृति, परंपरा और संस्कृत का वातावरण था और परिवार आर्यसमाज से जुड़ा था।
 
घर में संतों का आना जाना भी था, उनमें स्वामी श्रृद्धानंद जी प्रमुख थे। इसलिए हरदेव जी को बालपन से ही संस्कृत, वेद, उपनिषद, पुराण आदि भारतीय परंपरा के ग्रन्थों के अध्ययन का अवसर मिला। प्रारंभिक शिक्षा हिसार में हुई और आगे पढ़ने के लिये काशी गये। यहाँ उनका संपर्क पंडित मदनमोहन मालवीय से बढ़ा। उनपर स्वामी श्रृद्धानंद जी द्वारा सनातन परंपरा के प्रति जन सामान्य में जाग्रति उत्पन्न करने का बहुत प्रभाव था। लगभग इसी दिशा में उन्होंने पंडित मदनमोहन मालवीय को काम करते देखा। उन्हें काम करने की एक दिशा मिली। बनारस से लौटे तो दो संकल्प उनके मन में थे, पहला मातृभाषा में शिक्षा का प्रबंध और दूसरा भारत को परतंत्रता से मुक्त कराने के संघर्ष में सहभागी बनना।
 
उन्होंने विद्या प्रचारणी नामक संस्था का गठन किया और अपने गाँव में हिन्दी और संस्कृत का विद्यालय खोला। 1921 में असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। वे कांग्रेस के सदस्य बने और उन्होंने इस आँदोलन में हिस्सा लिया तथा हिसार में बंदी बनाये गये। तत्पश्चात वह ३ माह जेल में रहे और लौटकर पुनः समाज सेवा में लग गये। वे अति सेवाभावी और करुणामय भावों से भरे थे। उन्होंने आसपास के गाँवों में हिन्दी संस्कृत के विद्यालय आरंभ किये। उन्हीं दिनों कोई बीमारी फैली जिससे न केवल पशु पक्षी अपितु मनुष्य पर भी मानों मृत्यु अपना शिकंजा कस रही थी। उन्होंने इस असहाय स्थिति से मुक्ति के लिये उपचार आदि का प्रबंध किया और गरीब किसानों को ऋण मुक्ति की घोषणा कर दी और उनके पास गिरवी रखी जमीन लौटा दी। निर्धन किसानों की सहायता और विद्यालय खोलने के लिये अन्य व्यवसायियों को भी तैयार किया और 1938 तक उनके द्वारा आरंभ विद्या प्रचारणी सभा द्वारा संचालित विद्यलयों की संख्या 64 हो गई थी। ये सभी विद्यालय हिन्दी और संस्कृत में संचालित होते थे । अनेक विद्यार्थियों को आगे पढ़ने के लिये काशी जाने में भी सहायता की।
 
1939 में हिसार क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा। भूख ने मानों पशु पक्षी और मनुष्य दोनों को जकड़ लिया। भूख से मौते होने लगीं। ऐसे विषम समय में लाला जी ने अपने अन्न भंडार खोल दिये और पूरे क्षेत्र में गायों के लिये के चारे पानी का प्रबंध किया। यह काम उन्होंने न केवल अपने गाँव और आसपास अपितु पूरे हिसा जिले में किया। अकाल की इस विभीषिका ने उन्हें गौसेवक भी बना दिया था। उन्होंने कर्मशील महिलाओं के लिए सूत कताई केन्द्र खोलने में सहायता की ताकि इस विषम परिस्थिति में कुछ आय की व्यवस्था हो सके। उन्होंने स्वयं भी इस देशी सूत से बने कपड़े पहनने का संकल्प लिया और इसके लिये समाज का वातावरण भी बनाया। अकाल पीड़ितों की सेवा और समाज की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति के कार्य में लगे रहने के साथ 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आँदोलन में हिस्सा लिया और जेल गये। जेल से लौटकर वे शिक्षा के प्रसार और गौसेवा के काम में लग गये। स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि में हुये भारत विभाजन की विभीषिका में आने वाले शरणार्थियों की सेवा सहायता में जुटे।
 
उन्हें आशा थी कि स्वतंत्रता के बाद गौहत्या पर प्रतिबंध लगेगा, पर ऐसा न हो सका। अपितु स्वतंत्रता के बाद जैसे ही हिसार में बूचड़खाने खुलने की घोषणा हुई। उन्होंने इसका विरोध किया और प्रधानमंत्री नेहरू जी से भेंट की पर बात न बनी तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। उन्होंने ‘भारत सेवक समाज’ से जुड़कर गोसेवा का कार्य आगे बढ़ाया। 1954 में उनका सम्पर्क सन्त प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी और करपात्री जी महाराज से हुआ और गौरक्षा आँदोलन से जुड़ गये। उन्होंने देशव्यापी जन जागरण अभियान आरंभ किया। 1955 में प्रयाग में आयोजित कुम्भ में ‘गोहत्या निरोध समिति’ का गठन हुआ। लाला जी इस संस्था के संस्थापक सदस्य थे। उन्होंने इसी कुँभ मेले में प्रतिज्ञा की कि जब तक देश में गोहत्या बन्द नहीं होती, तब तक चारपाई पर नहीं सोऊंगा तथा पगड़ी नहीं पहनूंगा"। उन्होंने गाय की महत्ता और सामाजिक उपयोगिता पर अनेक पुस्तकें लिखीं। ‘गाय ही क्यों’ नामक उनकी एक पुस्तक की भूमिका तो तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी ने लिखी थी।
 
31 जुलाई 1956 को लाला जी की अध्यक्षता में एक प्रतिनिधि मंडल ने राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद से भेंट की गौहत्या रोकने के लिये कानून बनाने का आग्रह किया । उनके आग्रह को स्वीकार कर राजेंद्र प्रसाद जी ने गौवध बंद करने पर विचार करने के लिये एक संवैधानिक बोर्ड का गठन करने की पहल की। इस बोर्ड में सेठ गोविंददास (संसद सदस्य), पं. ठाकुरदास भार्गव, सत्गुरु प्रतापसिंह जे.एन. यंगराज और आनंदराज सुराणा सदस्य बनाये गये लेकिन यह सभी कार्यवाही तो चलती रही पर गौहत्या पर प्रतिबंध का कानून न बन सका तब उन्होंने डाक्टर राजेंद्र प्रसाद जी को एक लंबा पत्र लिखा जिसमें यहाँ लिखा कि " यदि गौवध निषेध कानून नहीं बन पाई रहा तो आपको पद छोड़ देना चाहिए"।
 
समाज और गाय की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले गृहस्थ संत लाला हरदेव सहाय की निधन 30 सितम्बर, 1962 को हुआ। उनका प्रिय वाक्य ‘गाय मरी तो बचता कौन, गाय बची तो मरता कौन’ आज भी प्रासंगिक है।