रमेश शर्मा.
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में ऐसे असंख्य बलिदान हुये जिनका इतिहास की पुस्तकों में वर्णन शून्य जैसा है।जबकि उनक कार्य स्वर्णाक्षरों में उल्लेख करने लायक हैं। इनमें से एक हैं महिला क्रांति कारी प्रीति लता वोददार जिन्होंने 24 सितम्बर 1932 में अंग्रेजों की पुलिस से मुकाबला करते हुये अपना बलिदान दिया। 1857 की क्रांति के बाद वे पहली ऐसी क्राँतिकारी महिला हैं जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की भाँति लड़ते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया।
क्राँतिकारी प्रीति लता का जन्म 5 मई 1911 को बंगाल के चटगाँव क्षेत्र में हुआ था। यह क्षेत्र अब बंगलादेश में है। वे एक सामान्य परिवार से आतीं हैं लेकिन परिवार में शिक्षा का वातावरण था। पहले संस्कृत का वातावरण था फिर अंग्रेजी की शिक्षा का। परिवार में अंग्रेजी की पढ़ाई के बावजूद घर में भारत राष्ट्र और सास्कृतिक आयोजनों की बातचीत हुआ करती थी। उनके पिता नगर पालिका में क्लर्क थे लेकिन सरकार में और अंग्रेज अफसरों के व्यवहार में भारतीयों के प्रति सम्मान का भाव न था। इस बात की भी चर्चा घर में होती थी और इन सब बातों का प्रीति लता के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। प्रीति लता पढ़ने में बहुत कुशाग्र बुद्धि थीं, उन्होने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और आगे की पढ़ाई के लिये वे ढाका पहुँची। ढाका के इंडेन कालेज में दाखिला लिया व 1929 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। वे ढाका बोर्ड की प्राविण्य सूची में पाँचवे नम्बर पर रहीं। इण्टरमीडिएट के बाद कलकत्ता से दर्शन शास्त्र में डिग्री प्राप्त की लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने उनकी डिग्री रोक दी, इसका कारण यह था कि जब डिग्री लेने पहुँची तो उन्हें ब्रिटिश एम्पायर के प्रति वफादारी की शपथ लेनी थी जो उन्होंने मना कर दिया। प्रीति लता ने शपथ नहीं ली तो उनकी डिग्री रोक दी गयी अतएव वे बिना डिग्री लिये ही कलकत्ता से रवाना हुईं और चटगाँव आ गयीं।
उन दिनों चटगाँव क्षेत्र क्राँतिकारियों का बड़ा केन्द्र था। प्रीतिलता के द्वारा शपथ न लेने और डिग्री रोकने का समाचार फैल गया और वे क्राँतिकारियों के संपर्क में आ गयी। उनसे मिलने के लिये सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मास्टर सूर्यसेन ने सावित्री नामक एक महिला को भेजा। सावित्री एक साधारण-सी ग्रहणी थी पर वे क्राँतिकारियों के संपर्क का काम करतीं थीं। प्रीति लता सावित्री की सलाह पर सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी रामकृष्ण विश्वास से मिलीं। इस मुलाकात के बाद प्रीतिलता क्राँतिकारियों के बीच संपर्क का काम करने लगीं। जब राम कृष्ण विश्वास जेल गये तो वे जेल में भी मिलने गयीं। इसके बाद उनका संपर्क क्राँतिकारी सूर्यसेन से बना। तब क्राँतिकारियों का एक संगठन काम करता था "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी", प्रीतिलता इस संगठन से जुड़ गयीं। इस संगठन ने चार लोंगो का समूह बनाया, समन्वय का काम क्राँतिकारी सूर्यसेन के हाथ में था जबकि इसमें प्रीतिलता के अतिरिक्त निर्मल सेन, प्रफुल्ल सेन और अपूर्व सेन भी थे। प्रीतिलता ने युद्ध और हथियार चलाने का प्रशिक्षण क्राँतिकारी निर्मल सेन से लिया। निर्मल सेन ने ही उस दौर के अधिकांश क्रांतिकारियों को शस्त्र संचालन सिखाया था, प्रीति लता ने भी इन्हीं से सीखा।
समय के साथ यह समूह पुलिस की निगाह में आ गया और पुलिस उन्हे ढूँढने लगी। सूर्यसेन के नेतृत्व में काम कर रहे इस समूह पर पर दस हजार का इनाम घोषित किया गया। कल्पना की जा सकती है कि अंग्रेजों के लिये यह समूह कितना भयभीत करने वाला होगा कि उन्होंने 1931 में इस समूह पर दस हजार के पुरस्कार घोषित किया था। इस पुरस्कार के लालच में कुछ लोग निगरानी करने लगे और काम में कठिनाइयाँ आने लगीं। सभी क्राँतिकारी अदृश्य और छद्म वेश और नाम से अपना काम करना आरंभ किया। ये लोग घलघाट पहाड़ी पर रहकर अपना काम करने लगे, लेकिन अधिक दिनों तक छिप कर न रह सके। उनके ठिकाने का पता पुलिस को लग गया। पुलिस ने एक दिन छापा मारा । इस मुठभेड़ में क्रांति कारी अपूर्व सेन और निर्मल सेन का बलिदान हो गया लेकिन प्रतिलता और सूर्यसेन निकलने में सफल हो गये। वे अंततः सावित्री देवी के घर रहने लगे।
सावित्री अंग्रेजों के मनोरंजन क्लब में काम करती थी अतएव उन पर किसी को कोई संदेह न था। सावित्री के घर पास ही पहाड़ी पर अंग्रेजों ने अपना मनोरंजन क्लब बनाया हुआ था जिसमें शराब नाच के अतिरिक्त किशोर वय की भारतीय लड़कियाँ लाई जाती थीं। यह बात प्रीतिलता को कयी दिनों से चुभ रही थी अंततः क्लब उड़ाने की योजना बनाई। वह 24 सितम्बर 1932 का दिन था, अंग्रेजों की पार्टी चल रही थी। प्रतिलता ने भरा हुआ रिवाल्वर और पोटेशियम सायनाइड नामक रसायनिक विष साथ रखा तथा बम लेकर पहुँची। उन्होंने खिड़की से बम फेका, बम विस्फोट में 13 अंग्रेज घायल हुये। उन्होंने वहां से भागने की कोशिश की पर उन पर पीछे से गोली दागी गयी। गोली उनकी पीठ पर लगी और वे घायल होकर गिर पड़ी। घायल अवस्था में वे नहीं चाहतीं थी कि अंग्रेजों के हाथ उनके शरीर से लगें अतएव उन्होंने सायनाइड खा लिया और मौके पर ही वे शरीर छोड़ कर परम ज्योति में विलीन हो गयीं।
वे पहली ऐसी क्राँतिकारी मानी गयीं जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की भाँति अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। उनके निधन के अस्सी साल बाद उनकी डिग्री जारी हुई। मरणोपरांत अस्सी साल बाद डिग्री जारी होने की भी अपने आप में यह अनूठी घटना है। स्वतंत्रता के लगभग 57 वर्ष बाद फरवरी 2005 में उनकी प्रतिमा लगाई गयी और उनके नाम पर एक सभागार का भी नामकरण हुआ।