-प्रियंका कौशल.
वर्तमान समय में जब परिवार से संस्कार समाप्त हो रहे हैं। धर्मपरायणता, त्याग, प्रेम, सहयोग की भावना कम हो रही है। तब हमें अपनी जड़ों की तरफ देखने ही जरूरत है। भारतीय समाज और हिंदू धर्म में कई ऐसे महापुरुष और देवियां हुईं हैं, जिनके जीवन आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं। उनके पदचिन्हों पर चलकर हम अपने परिवार, समाज, देश को पुर्नजीवन दे सकते हैं। ऐसी ही एक आदर्श हैं लोकमाता अहिल्याबाई। हमें अपनी बेटियों के सामने देवी अहिल्याबाई का आदर्श प्रस्तुत करना होगा। उन्हें पुण्यश्लोक अहिल्याबाई के जीवन से परिचित करवाना होगा ताकि वे अपने सुंदर, सुदृढ भविष्य की नींव रख सकें। एक अकेली स्त्री देवी शक्ति का अवतार बनकर अपना घर-परिवार भी संभाल सकती है। सबको लेकर चलते हुए भक्ति के उच्चतम स्तर पर भी पहुंच सकती है और जब शासन प्रबंधन की बारी हो, तो उसमें भी उच्च पायदान स्थापित कर सकती है। अपने मौन से बड़े से बड़े योद्धा को परास्त भी कर सकती है। अपनी रक्षा तो स्वयं कर ही सकती है, असंख्य लोगों की भी रक्षक बन उन्हें जीयदान दे सकती है।
सुनने में ये बातें जितनी अच्छी और शक्तिशाली लग रही हैं। जीवन में उतारने में भी उतनी ही सहज हैं, बशर्ते हम अपनी बेटियों को बचपन से ही अहिल्याबाई के चरित्र की शिक्षा दें। उन्हें अहिल्याबाई जैसा जीना सिखाएं। हम अपने बच्चों को केवल विद्यालय भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री न करें। उन्हें महापुरुषों के जीवन से परिचित करवाएं ताकि वे किसी भी परिस्थिति का सामना बिना घबराएं कर सकें। यदि उनके सामने उदाहरण होंगे तो वे किसी संकट से भयभीत नहीं होगें, वरन् उनसे प्रेरणा व शिक्षा लेकर आगे बढ़ सकेंगे।
लोकमाता अहिल्याबाई का जन्म सन् 1725 में चौंडी गांव के पटेल माणकोजी शिंदे के घर हुआ था। चौंडी महाराष्ट्र में अहमदनगर के पास सोना नदी के किनारे पर बसा है। पिता माणकोजी एक साधारण गृहस्थ थे। वे बड़े सात्विक, सरल व धर्मपरायण व्यक्ति थे। उस समय शिक्षा का प्रचार प्रसार कम था, विद्यालय भी कम हुआ करते थे। माणकोजी शिंदे शिक्षा के महत्व को अच्छी तरह जानते थे, इसलिए उन्होंने घर पर ही अहिल्याबाई के पढ़ने की व्यवस्था की। अहिल्याबाई की बचपन से ही धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने में अत्यधिक रुचि थी। माता-पिता के परम धार्मिक, सरल-सात्विक व कर्तव्यपरायण जीवन का प्रभाव अहिल्याबाई के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी माता जी का नाम सुशीला था। वे बड़ी ही विदुषी, धर्मात्मा व कर्तव्यपरायण महिला थीं। पूजा-पाठ कर कथा-भागवत सुनना उनका नित्य कार्य था। अहिल्याबाई भी मां की छाया बन सारे धार्मिक कार्यों में भाग लेती थीं। बचपन से ही व्रत व पूजा-पाठ करने व धर्म ग्रंथ सुनने में उनका मन रम गया था। ईश्वर में उनकी अविचल श्रद्धा थी, जो जीवन भर बनी रही।
1733 में उनका विवाह इंदौर के महाराज मल्हार राव होलकर के पुत्र खांडेराव होलकर से हुआ। इस विवाह का प्रसंग भी रोचक है। एक बार युद्ध अभियान के लिए मल्हारराव होलकर दक्षिण भारत जा रहे थे। दक्षिण भारत जाते हुए वे मार्ग में विश्राम के लिए चौंडी गांव में रुके। उन्हें गांव के मंदिर में एक बालिका को गरीबों के लिए भोजन वितरण की व्यवस्था करते देखा। उस बालिका का व्यवहार प्रेमपूर्ण व अनुशासित था। मल्हारराव जी को उस बालिका की तन्मयता ने प्रभावित कर दिया। उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वे उनके पुत्र खांडेराव की जीवनसंगिनी बनने के लिए अहिल्याबाई ही श्रेष्ठ रहेंगी। उन्होंने बालिका का जीवन परिचय जाना तो पता चला कि वे मराठा सैनिक माणकोजी की पुत्री हैं। वर्ष 1733 में आठ वर्ष की आयु में अहिल्याबाई का विवाह अपने से दो वर्ष बड़े खांडेराव से हो गया। विवाह के पश्चात चार वर्ष तक अहिल्या बाई मायके में ही रहीं। वर्ष 1737 में उनका गौना हुआ और वे विदा होकर इंदौर आ गईं। अब वे एक सामान्य परिवार की पुत्री से राजवधु बन गईं। उन्होंने 1745 में पुत्र मालेराव को जन्म दिया। 1748 में पुत्री मुक्ताबाई का जन्म हुआ। 24 मार्च 1754 में कुंभेर के युद्ध में तोप का गोला लगने से पति खांडेराव की मृत्यु हो गई। तब अहिल्याबाई की आयु मात्र 29 वर्ष थी। अहिल्याबाई पति के साथ सती होना चाहती थी, लेकिन ससुर मल्हारराव ने छोटे बच्चों का वास्ता देकर उन्हें रोक लिया।
इस घटना के बाद ससुर मल्हारराव जी ने अहिल्याबाई से राजकीय कार्यों में भी सहयोग लेना आरंभ कर दिया। अहिलाबाई ने घर के भीतर का समन्वय बहुत अच्छे से संभाला था, वे कुशलता पूर्वक हर कार्य करती थीं। इसका गहरा प्रभाव मल्हारराव जी पर था। इसलिए उन्होंने अहिल्याबाई को राजकाज में दीक्षित कर दिया। 23 अगस्त 1766 में मल्हारराव होलकर की मृत्यु हो गई, तब मल्हारराव होलकर के पौत्र व अहिल्याबाई के पुत्र मालेराव ने सिंहासन संभाला। लेकिन वे एक वर्ष भी शासन नहीं संभाल सके। 5 अप्रैल 1767 में मालेराव की मृत्यु हो गई। अहिल्याबाई चाहती थीं कि तुकोजीराव होल्कर (स्व महाराज मल्हारराव होलकर के दत्तक पुत्र) शासन संभाले। अंततः दिसंबर 1767 में अहिल्याबाई ने शासन संभाला। उन्होंने लगभग 30 वर्ष तक शासन किया।
लोकमाता अहिल्याबाई का दान धर्म इतना प्रचंड था कि वैसा दान धर्म आज तक पूरे विश्व में किसी ने नहीं किया। उनका न्याय इतना सत्य था कि हर कोई उनका प्रशंसा करता था। वे किसी को भी अपनी प्रशंसा व चाटुकारिता नहीं करने देती थी। उनका निर्मल व निर्लोभ मन इतना विशाल था कि उन्होंने कभी दूसरों का राज्य हडपने की इच्छा नहीं की। जीवमात्र के प्रति उनकी दया इतनी व्यापक थी कि अपने नित्य के व्यवहार में उन्होंने पशु पक्षियों तक को भी नहीं भुलाया। वे एक सर्वश्रेष्ठ, आदर्श व महान शासिका थीं। सुख-सुविधा से संपन्न होते हुए भी वे निष्कपट, विनम्र और संयमित थीं। वे दूसरों को तिरस्कार की दृष्टि से कभी नहीं देखती थीं। बल्कि उनके दोषों को सुधारने का प्रयत्न करती थीं। उनकी बुद्धिमत्ता इतनी व्यापक थीं कि वे प्रत्येक कार्य में होशियार व निपुण थीं। अपनी प्रजा पर उनका इतना प्रेम था कि वे उन्हें अपनी संतान ही मानती थीं।
भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है, जहां उन्होंने भारतीय सनातन संस्कृति के संरक्षण का कार्य न किया हो। उन्होंने भारत के लगभग सभी तीर्थ स्थलों में मंदिर व पवित्र नदियों के घाटों का निर्माण करवाया। ग्रांड ट्रंक सडकें, कुऐं, शिक्षा केंद्र, व्यायामशालाएं, अन्नव्रत व धर्मशालाओं का भी निर्माण करवाया। महारानी अहिल्याबाई द्वारा करवाए निर्माण कार्य इतनी गुणवत्तापूर्ण हैं कि तीन सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी वे यथावत हैं।
होलकर राज्य में नियमबद्ध न्यायालयों की शुरुआत अहिल्याबाई के समय से हुई थी। प्रजा को न्याय मिले इस हेतु उन्होंने अनेक स्थानों पर न्यायालयों की स्थापना कर योग्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की थी। गांव में पंचायतों की सर्वत्र स्थापन कर उन्हें बड़ा महत्व व न्यायदान के विस्तृत अधिकार सौंप दिए थे। उनके सुयोग्य मार्गदर्शन व कठोर नियंत्रण में न्यायालय व पंचायतें न्याय देने का कार्य बहुत अच्छी तरह कर रही थीं। इन न्यायालयों के कार्यों का संपूर्ण विवरण नियमपूर्वक राज्य के उच्च अधिकारियों व अहिल्याबाई के पास पहुंचता था। जिन लोगों को न्यायालयों के न्याय से संतोष नहीं होता था, वे सीधे बिना रोकटोक अहिल्याबाई के पास पहुंच जाते थे। वे न्यायासन पर बैठकर सारे प्रकरणों को स्वयं सुनकर न्याय करती थीं। उनके न्याय से दोनों पक्षों को सदैव पूर्ण संतोष व समाधान होता था। लोगों की उनके प्रति इतनी श्रद्धा थी कि उनके निर्णय को अमान्य करना पाप समझते थे। अहिल्याबाई के राज्य में न्याय अत्यंत सरल, सुगम व सस्ता था। न्याय में देर या अंधेर का काम नहीं था।
उनके समकालीन राजे-महाराजे उनके पास सलाह-मशवरे के लिए आया करते थे। उन्होंने आदर्श राज्य की मिसाल कायम की। 1767 में जब उन्होंने प्रशासन की बांगडोर संभाली तब देश बहुत विषम परिस्थिति में था। राज्य में लुटेरों और अपराधियों का बोलबाला हो गया था। इसका एक प्रमुख कारण अफगानी लुटेरे नादिर शाह के बाद दिल्ली पर हमले और लूट का सिलसिला शुरु हो गया था। 1748 से 1768 तक अकेले अहमद शाह अब्दाली ने आठ आक्रमण किए थे। दूसरी तरफ पठानों, रुहेलों और पिंडारियों के दस्तों की लूटमार भी बढ गई थी। ऐसे समय में योग्य व्यक्तियों का चयन कर उन्हें राज्य में शांति स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी।
देवी अहिल्याबाई का जीवन अत्यंत की सादगीपूर्ण था। वे सदैव श्वेत साड़ी पहनती थीं। रंगीन वस्त्रों, आभूषणों, अलंकारों को भी उन्होंने त्याग दिया था। वे सादगी की मूर्ति थीं। उनका आभामंडल इतना विराट था कि साधारण रंग-रूप होने के बाद भी उनका आकर्षण किसी दैवी की भांति था। वे हमेशा मुस्कुराकर सौम्यता से बात करती थीं। वह झूठी प्रशंसा को बिलकुल पसंद नहीं करती थीं। उनके राज्य में चापलूसी के लिए कोई स्थान नहीं था। अहिल्या बाई सैन्य बल से ज्यादा महत्व आत्मबल को देती थीं। उनमें मानवता कूटकूट कर भरी हुई थी।
अहिल्याबाई के जीवन के ऐसे कई प्रेरक प्रसंग हैं, जो विपरीत परिस्थितियों में अचल अडोल रहने के उदाहरण हैं। साधारण परिवार में जन्म लेने के बाद से होलकर राज्य की महारानी बनने तक उनका जीवन संयम, अनुशासन, न्यायप्रियता, तपस्या, त्याग और राष्ट्रप्रेम का अनुपम मिसाल है। यदि हम अपने घरों की बच्चियों को अहिल्याबाई का जीवन चरित्र पढ़ाएं और उसे जीवन मे उतारने के लिए प्रेरित करें तो हमारी बेटियां अपने परिवार, कुल का गौरव तो बढ़ाएंगी ही, राष्ट्र निर्माण में भी अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकेंगीं।