ताले खुलने की राह देखता - विदिशा का विजय मंदिर

सैकड़ों वर्ष इस्लामिक आक्रमण सहने वाला विदिशा का बीजमंडल आज भी नहीं हुआ मुक्त |

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    31-Jul-2024
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vijay mandir vidisha
 
शुभम् वर्मा -
 
 
इस मंदिर की गिनती एक समय मे भारत के सबसे बड़े मंदिरों के साथ होती थी | यह विदिशा नगर के किले के भीतर पश्चिमी भाग में है जिसके नाम के कारण ही प्राचीन काल मे विदिशा का नाम भेलसा पड़ा था । देश के विशालतम मन्दिरों में इसकी गणना की जाती रही है। कहा जाता है कि सबसे पहले चालुक्य वंशी राजा कृष्ण के प्रधानमन्त्री वाचस्पति ने विदिशा मे भिल्ल्स्वामीन (सूर्य) का विशाल मन्दिर बनवाया था । इनके सूर्य मन्दिर बनवाने का यह कारण बताया जाता है कि यह राजा अपने को सूर्य के वंश का मानते थे। इस भिल्ल्स्वामीन नाम के विशाल मंदिर से ही विदिशा का नाम भेलसा पड़ गया था । मंदिर की कला और बनावट बताती है की इस मन्दिर का पुनः निर्माण परमार शासकों के शासनकाल में 10वीं था 11वीं शताब्दी में भी हुआ होगा। सोमनाथ के मन्दिर की भाँति कई मुसलिम आक्रांताओं ने इसे भी अपने अत्याचार का दृष्टिबिन्दु बनाया पर अद्भुत बात यह रही कि जैसे ही आक्रांता नष्ट करके जाते, यहाँ के निवासी उतनी ही शीघ्रता से इसका पुननिर्माण कर डालते थे।
 
मुस्लिम हमलावरों ने निरंतर इसपर कई हमले किए | सन् 1024 में महमूद गजनी के साथ आए हुये उसके मन्त्री अलबरूनी ने इस मन्दिर का वर्णन किया है। उसने इस मन्दिर की कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वह लिखता है कि यहां बारह महीने यात्रियों का मेला भरा रहता है और दिन-रात पूजा-आरती होती रहती है। मन्दिर के विशाल आकार का भी उसने वर्णन किया है। उसने भी इसे विशाल सूर्य का मन्दिर बताया है। प्रसिद्ध इतिहासकार मिन्हाजुद्दीन ने इस मन्दिर के विषय में लिखा है कि इस मन्दिर का निर्माण लगभग ३०० वर्ष पहले हुआ था (वही समय प्रायः वाचस्पति का ठहरता है) |
 
किन्तु यह वैभव कुछ लोगों से पचा नहीं और मुस्लिम हमलावरों ने इस पर हमले शुरू कर दिये | सन् 1233-34 में सर्वप्रथम इसे दिल्ली के शाह मोहम्मद गोरी के गुलाम अल्तमश ने तोड़ा और लूट-पाट करके बहुत-सा धन से गया। पूरा मन्दिर और नगर वीरान कर दिया गया। मूर्ति को भी तोड़ डाला गया। सन् 1250 ई० तक इस मन्दिर का शीघ्र ही पुननिर्माण कर दिया गया और यहाँ पर इसके पूर्ण वैभव की पुनः जय-जयकार होने लगी। इसके वैभव का समाचार सन् 1290 ई० में अलाउद्दीन खिलजी के कानों में पड़ा और उसके हिजड़े मन्त्री मलिक काफूर के द्वारा इस मनोरम विशाल मन्दिर का पूर्ण विनाश कर दिया गया और वह लूटपाट करके अपार धन यहाँ से ले गया। इतिहासकर निरंजन वर्मा अपनी पुस्तक दशार्ण दर्शन मे लिखते हैं की वह अपने साथ 8 फीट ऊंची अष्ट धातु की मूर्ति को भी ले गया। उसे खण्डित कर दिल्ली स्थित किले के बदायूं दरवाजे की मस्जिद की सीढ़ियों में जड़ दिया गया ताकि हर दीनदार के पैरों के नीचे उसे कुचला जा सके।
 
मुसलिम इतिहासकार अलबरूनी के लेखन के अनुसार यह इतना विशाल मन्दिर था कि इसके कलश कई मील दूर से दिखलाई देते थे। तबकाते नासिरी के लेखक, मुसलिम इतिहासकार मिन्हाजुद्दीन ने लिखा है कि यह आधा मील लम्बा-चौड़ा मन्दिर था तथा 105 गज ऊँचा था। अफसोस की यह मन्दिर पुनः सन् 1456-60 में मांडू के शासक महमूद खिलजी के क्रोध का निशाना बना। उसने न केवल यह मन्दिर अपितु भेलसा नगर और लोह्याद्रि पर्वत पर के मन्दिरों का भी विनाश किया। फिर थोड़ी बहुत कसर बची थी वह गुजरात के शासक बहादुरशाह ने भेलसा पर अपने सन् 1532 ई० के आक्रमण के समय पूरी कर दी और मन्दिर का और अधिक विनाश कर दिया गया। हिंदुओं ने जैसे तैसे मंदिर को ठीक किया किन्तु मुगल धर्मान्ध औरंगजेब की निगाहों से यह विशाल मन्दिर बच न सका। सन् 1682 ई० में औरंगजेब ने इस मन्दिर को तोपों से उड़वा दिया। मन्दिर के शिखरों को तोड़ डाला। इसके पश्चात् उसने मन्दिर के अष्ट- कोणी भाग को चुनवाकर चतुष्कोणी बना दिया और ऊपर दालाननुमा आकार देकर मन्दिर के अवशेष पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर दो मीनारे बनवा दी तथा उसे मस्जिद का रूप दे दिया। सन 2000 ई० तक मन्दिर के पार्श्व भाग में तोपों के बारह गोलों के निशान स्पष्ट दिखलाई देते थे ।
 
 
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् भीतर रखी हुई टूटी-फूटी मूर्तियों को हिन्दुधों ने फिर पूजना शुरू कर दिया। सन् 1760 ईस्वी में पेशवा के भेलसा में आते समय इसका मस्जिद स्वरूप नष्ट हो गया और हिन्दू इसे माता का मन्दिर समझकर भाजी रोटी से इसकी पूजा करने लगे। यहाँ चर्चिका माता, महिशासुर मर्दिनी इत्यादि देवियों की खंडित मूर्तियाँ , शिलालेख इत्यादि मिलने के कारण इसे देवी के मंदिर के रूप मे भी जाना जाने लगा |
 
आज की स्थिति मे यदि इस मंदिर की तुलना की जाये तो यह कोणार्क के सूर्य मंदिर की भांति विशाल रहा होगा | इतिहासकारों के मतानुसार अभी तक इसके दो बाहरी द्वारों के चिन्ह मिले हैं जो लगभग मन्दिर से 150-150 गज की दूरी पर स्थित हैं। मन्दिर के उत्तरी छोर पर एक विशाल कलापूर्ण बावड़ी मिली है जो पहले पूरी तरह ढकी हुई थी। इस बावड़ी के स्तम्भों पर कृष्णलीला श्रादि के दृश्य उत्कीर्ण किए गए है जो 6वी शताब्दी के पूर्व के ही विदित होते हैं। इसी बावड़ी की खुदाई के समय अश्वमेध यज्ञ के समय की एक मूर्ति मिली है जिसमें पौराणिक कथाओं के आधार पर राजमहिषी को अश्व की अंकशायिनी बताया गया है।
विजय मन्दिर में कई पुरानी लेख पट्टिकाएँ को आक्रांताओं ने नष्ट कर दिया है । पूरे भारत में विधर्मी आक्रांता मूर्तियों के शिलालेखों को नष्ट करना अपना धर्म मानते थे ।
 
 
परन्तु कहीं- कहीं स्तम्भों पर या अन्य पत्थरों पर कुछ लेख नष्ट होने से बच गए हैं। एक स्तम्भ का लेख निम्न भाँति है-
“इति महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरव देवस्य निवार्णान्त रायस्य पर नारी सहोदरस्य चचिकाख्या समाख्याता देवी सर्व जन प्रिया। यस्या प्रसाद मात्रेण लेभे संसार योगिनां ।।“
इसका अर्थ है की “महाराजाधिराज परमेश्वर नखदेव की मृत्यु के उपरान्त उनके परनारी सहोदर (सौतेले भाई) की विख्यात और सर्वजनों को प्रिय चर्चिका देवी जिनके प्रसादमात्र से योगीजन लाभ अर्जित करते हैं (को नमस्कार)।“
 
 
विद्वानजन का मानना है की टूटने और बनने के क्रम मे एक बार यहाँ चर्चिका माता के विग्रह की भी स्थापना राजाओं ने की होगी जिनके विषय मे यह शिलालेख मिलता है | यहाँ पंचायतन पूजन पद्धति अनुसार अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ एवं शिवलिंग भी पूरे परिसर मे बिखरे हुये मिलते हैं जिन्हे मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा खंडित किया गया है | कुछ शिलालेख आज भी खंडित स्थिति मे यहाँ से प्राप्त होते है। पहले यह मन्दिर अष्टकोणी था। सामने विशाल यज्ञशाला और बायीं ओर बावड़ी व पिछले हिस्से में सरोवर था। सरोवर अब पुर चुका है। पहले मन्दिर का भाग मलबे से आधा ढका हुआ था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है मन्दिर के अष्टकोण भाग को अन्य पत्थरों से भराव करके उसे चतुष्कोणी बनाया गया है।
 
विदिशा कला की विशेष उपलब्धि के रूप में यहाँ के कीर्तिमुख जगत् प्रसिद्ध है। खुदाई में मन्दिर के दक्षिणी भाग के प्रमुख द्वार की विशाल चौखट मिली है जिस पर शंख और कमल की आाकृतियाँ सुन्दरता से उत्कीर्ण की गई है। द्वारपाल की मूतियाँ सम्भवतः नष्ट कर दी गई हैं। इसके आगे के चबूतरे को जब उलटकर देखा गया तो विशाल पत्थरों पर देवी की मतियाँ उत्कीर्ण की हुई मिली है। आज भी मंदिर के पास के क्षेत्र किलेअंदर के घरों और दीवारों तक में अनगिनत मूर्तियाँ दबी हुई मिलती हैं जिन्हे जनता ने हमलों के समय संरक्षित किया होगा ।
 
हिन्दू निरंतर इस स्थान पर पूजा करते आ रहे थे किन्तु एक बार सन् 1922 ई० के आस-पास वेत्रवती नदी में बाढ़ आ गई और वर्षा काल में ईद हुई तो नमाजी ईदगाह न जा सके। उन्होंने स्थानीय सूबा को सूचित करके विजय मन्दिर में नमाज पढ़ी। वस तभी से वे अपनी पुरानी ईदगाह को छोड़कर इस मन्दिर में ही नमाज पढ़ने का दुराग्रह करने लगे। यही नहीं उन्होंने हिन्दुनों द्वारा समय-समय पर पूजा-पाठ को भी रोकना चाहा। परन्तु हिन्दू अपना धर्म कार्य करते रहे। सन् 1947 में जब पाकिस्तान का निर्माण हुआ तो उस वर्ष की शरद पूर्णिमा के उत्सव को वहाँ सम्पन्न होने पर मुसलमानों ने आपत्ति की। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दुओं ने अपने मन्दिर में नमाज पढ़े जाने का विरोध किया। परन्तु देश में नेहरू सरकार का नया शासन आने के फलस्वरूप उल्टे हिन्दुओं पर मंदिर में घुसने तक पर पाबन्दियाँ लगा दी गई। नये-नये सत्ताधीशों ने मुसलमानों का पक्ष लिया इस पर स्थानीय निवासियों ने भयंकर प्रतिरोध करते हुए सत्याग्रह का आश्रय लिया। शासन वर्ष की दोनों ईदों पर धारा 144  अथवा कर्फ्यू लगाकर नमाज पढ़‌वाता रहा। उधर हिन्दू व कुछ पढ़े-लिखे मुसलमान इसका जबरदस्त विरोध करते रहे। प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में सत्याग्रही आ-आकर सत्याग्रह करते, उन्हें लम्बी- लम्बी सजाएँ होतीं पर विदिशा के दृढ़प्रतिज्ञ निवासी बराबर प्रति वर्ष सत्याग्रह करते रहे।
 
इतिहासकर निरंजन वर्मा अपनी पुस्तक मे लिखते हैं की कुछ वर्षों के पश्चात् इस सत्याग्रह का देशव्यापी स्वरूप हो गया। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र और पंजाब से भी जत्थे आना प्रारम्भ हो गए। अखिल भारत हिन्दू महासभा के अध्यक्ष प्रोफेसर रामसिंह जी ने अपने साथियों सहित सत्याग्रह किया और दण्ड भोगा। महिला सत्याग्रही भी पीछे रहने वाली नहीं थी। उनके एक बड़े जत्थे ने श्रीमती नरवदी बाई मुखरैया के नेतृत्व में सत्याग्रह किया। उनको सजा देकर कुरवाई जेल भेज दिया गया। वहाँ के एक मूर्ख जेलर ने महिलाओं के सौभाग्य चिह्न भी उतरवाने की धृष्टता की, जिसके कारण जनता में भारी रोष छा गया। पीपलखेड़ा सुलतनिया थान्नेर कोठी चार साँकलखेड़ा सतपाड़ा, खामखेड़ा, विदिशा सिरोंज आदि के जमींदारों और कृषकों ने भी सत्याग्रह करना प्रारम्भ कर दिया। इसके अतिरिक्त दिल्ली, प्रयाग, झांसी, ललितपुर, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, बासौदा, कुरवाई, खाचरोद, धार, उज्जैन, इन्दौर, भोपाल, सीहोर, रायसेन, सिरोंज, लेटीरी आदि से भी जत्थे आने लगे । सत्याग्रह की इतनी भारी व्यापकता थी कि विदिशा के इतने बड़े नगर में सम्भवतः 10-12 घरों को छोड़कर शायद ही ऐसा घर रहा हो जिसके परिवार के किसी-न-किसी सदस्य ने सत्याग्रह में भाग न लिया हो। यह सत्याग्रह सन् 1948 से लेकर सन् 1964 तक लगभग 18-19 वर्षों तक अबाध चलता रहा। जिसके सब सत्याग्रहों में लेखक ने भी भाग लिया। यह सत्याग्रह हिंदू महासभा के नेतृत्व में चलता रहा।
 
इसी समय केन्द्र में श्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हो गई और श्री लालबहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री बने। संयोगवश इसी समय द्वारिका प्रसाद मिश्र मध्य-प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने व श्री गोपाल रेड्डी गवर्नर नियुक्त हुए। इस त्रिगुट विद्वतजनों ने परिस्थित की गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए आदेश दिया कि यह मन्दिर शासकीय सम्पत्ति है। इस पर किसी धर्म का आधिपत्य होना उचित नहीं है। फलस्वरूप नमाज पढ़वाना बन्द कर दिया गया। मुसलमानों के लिए ईदगाह के लिए सांचीरोड पर भूमि देकर 40 हजार रु० दे दिए गए जिससे उनको वहाँ नई ईदगाह बना दी गई। उन्हे तो नमाज पढ़ने का स्थान मिल गया किन्तु हिन्दुओ को मंदिर मे पूजा का अधिकार तब भी नहीं दिया गया | हिन्दू साल मे सिर्फ एक दिन नागपंचमी पर यहाँ आकर बंद ताले की पूजा कर के चले जाते हैं | अब यह मंदिर पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में है, परन्तु समस्त हिंदुओं एवं विदिशा के नागरिकों द्वारा मंदिर के पुनरुद्धार की मांग निरंतर की जाती रही है तथा आज भी की जा रही है ।
 
इस मंदिर के लिए विदिशा नगर के लोगों ने आजादी के पहले और बाद में कई संघर्ष किए । एक समय था जब यह मंदिर राम मंदिर अयोध्या और मथुरा, काशी की ही तरह हिंदू महासभा और अन्य हिन्दू संगठनों के लिए नाक का विषय था । किंतु 1990 के बाद अयोध्या, काशी, मथुरा इत्यादि के लिए तो संघर्ष हुए पर बीजामंडल को कहीं हाशिए पर रख दिया गया । विदिशा की जनता एवं गणमान्य लोगों ने अवश्य इसके लिए संघर्ष किया तथा इसमें सभी पार्टी के लोग अपनी राजनीति भूलकर बीजामंडल को मंदिर बनाने के लिए संघर्ष करते रहे किंतु आज भी यह मंदिर नहीं बन सका है । सबसे ज्यादा अफसोसजनक बात यह है की ASI के आधिकारिक दस्तावेजों मे इसे आज भी बीजामंडल मंदिर नहीं बल्कि बीजामंडल मस्जिद के रूप मे दर्ज कर रखा है | यह शायद नुरुल हसन या इरफान हबीब के समय मे हुआ होगा किन्तु आज भी इतने साक्ष्य मिलने के बाद यदि इस प्राचीन हिन्दू मंदिर को एएसआई मस्जिद बता रहा है तो यह हम हिंदुओं के साथ धोखे जैसा प्रतीत होता है|
 
 
अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के एक शीर्ष हिंदी अख़बार की खबर अनुसार ASI ने कहा है कि इसे टूरिज्म स्पॉट बनाया जाएगा। हमे भय है कि यदि बिना मंदिर बनाए इसे टूरिज्म स्पॉट बना दिया गया तो यह बस नाचने, गाने एवं सेल्फी लेने और शराब पीने वालों का स्थान बनकर रह जाएगा । ASI के दस्तावेजों मे यह बीजामंडल मस्जिद के रूप मे दर्ज है तो क्या यह इसे मस्जिद रूपी टूरिज्म स्पॉट बनाकर इसका इतिहास लोगों को बताना चाहते हैं? यह प्रश्न आज हर हिन्दू के मन मे है | यह वह स्थान है जो भारत के इतिहास का प्रमुख स्थान है । यह स्थान विदिशा, देश की दस दिशाओं को जोड़ता था अतः आर्कियोलॉजी के हिसाब से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है । यही नहीं यहां की बावड़ी एवं मंदिर से कुछ ऐसे साक्ष्य भी कुछ शोधार्थी लोगो को मिले हैं जो यह बताते हैं कि वराहमिहिर के समय की तरह ही काल गणना से भी यहां का और विदिशा के अन्य स्थानों का संबंध हो सकता है ।
 
 
अतः भारत सरकार एवं मध्यप्रदेश सरकार से अपील है कि इस बीजामंडल अर्थात विजय मंदिर को टूरिज्म स्पॉट बनाने के स्थान पर यहां ASI से पुनः survey करवाकर दोबारा प्राचीन काल जैसे भव्य हिन्दू मंदिर का निर्माण करवाया जाए । इससे ना सिर्फ हिंदुओ की आस्था को ठेस पहुंचने से बचेगी बल्कि इतिहास,आर्कियोलॉजी एवं काल गणना इत्यादि के भी महत्वपूर्ण साक्ष्य यहां मिलेंगे जो भविष्य मे प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा को जानने में भी महत्वपूर्ण होंगे।