साहित्य वाचस्पति डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी.

लेखक और साहित्यकार पदुमलाल पन्नालाल बक्षी जी की जयंती.

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    27-May-2024
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padumlal punnalal bakshi
 
 
प्रियंका कौशल.
साहित्य के सूर्य के रूप में चहुंओर अपना प्रकाश फैलाने वाले स्वर्गीय डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की 27 मई को जयंती है। साहित्य के क्षेत्र में पूरे विश्व में छत्तीसगढ़ का नाम स्वर्णिम अक्षरों से अंकित करने वाले महान साहित्कार स्वर्गीय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी अपने जीवन के छह दशकों हिंदी साहित्य की सेवा करते रहे। उन्होंने किशोरावस्था से ही अपना जीवन साहित्य की सेवा में तत्पर कर दिया था। आधुनिक हिंदी साहित्य व साहित्यिक पत्रकारिता के की उपासना में वे ऐसे डूबे कि उन्होंने अपनी शिक्षा की भी पूरी नहीं की। केवल बीए तक उत्तीर्ण बख्शी जी एलएलबी भी करना चाहते थे, लेकिन साहित्य की अथक साधना व समयाभाव ने उन्हे अपनी वकालत की पढाई पूरी नहीं करने दी। ऋषितुल्य साहित्यकार डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की जयंती पर उन्हें कोटी-कोटी नमन है। हिंदी साहित्य में बख्शी जी की गिनती द्विवेदी युग के लेखकों व साहित्यिक पत्रकारों में होती है। मास्टर जी के नाम से विख्यात बख्शी जी स्कूल अध्यापक व कॉलेज प्राध्यापक के रूप में शिक्षा के क्षेत्र में भी अपना अतुलनीय योगदान देकर गए हैं।
 
डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का जन्म तत्कालीन मध्यप्रदेश (वर्तमान छत्तीसगढ़) में एक छोटी सी रियासत खैरागढ़ में 27 मई 1894 को हुआ था। उस वक्त खैरागढ़ राजनांदगांव जिले में आता था, लेकिन वर्तमान में खैरागढ़ छत्तीसगढ़ का एक जिला है। खैरागढ़ वही स्थान है, जहां एशिया का पहला संगीत व कला विश्वविद्यालय स्थापित है लेकिन इस विश्वविद्यालय की स्थापना के कहीं पहले ही बख्शी जी के कारण खैरागढ विश्वपटल पर चर्चित रहा है। उनके पिता का नाम पुन्नालाल बख्शी व माता जी का नाम मनोरमा देवी था। इनके घर का वातावरण साहित्यिक था, यही कारण था कि बाल्यकाल से ही इनके मन मस्तिष्क पर लिखने पढने का असर रहा। इनके पिता खैरागढ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गुरु के रूप में पंडित रविशंकर शुक्ल का सानिध्य भी इनको मिला। अपने समय के चर्चित उपन्यास चंद्रकांता संतति के प्रति विशेष आसक्ति के कारण एक बार बख्शी जी अपने विद्यालय से भाग गए थे। तब उनके हेडमास्टर (बाद में मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री) पंडित रविशंकर शुक्ल ने बख्शी जी की जमकर पिटाई की थी। लेकिन उनका साहित्य के प्रति अनुराग दिनोंदिन प्रगाढ़ ही होता चला गया। 14वीं शताब्दी में बख्शी जी के पूर्वज श्री लक्ष्मीनिधि राजा के साथ मण्डला से खैरागढ़ आये थे और तब से यहीं बस गये। किशोर अवस्था से ही पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी लेखन करने लगे थे। वर्ष 1911 में जबलपुर से निकलने वाली पत्रिका हितकारिणी में उनकी प्रथम कहानी तारिणी प्रकाशित हुई। इसके एक वर्ष बाद में 1912 में मेट्रीक उत्तीर्ण हुए। आगे के अध्ययन के लिए वे बनारस चले गए। वहां के सेंट्र्ल कॉलेज में दाखिला ले लिया। इसके एक वर्ष पश्चात उनका विवाह लक्ष्मी देवी के साथ संपन्न हो गया। विवाह उपरांत 1916 में उन्होंने बीए की उपाधि प्राप्त की।
 
बख्शी जी ने अध्यापन से लेकर संपादन तक के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। उन्होंने कविता, कहानी, निबंध, उपन्यास, आलोचना, यात्रा संस्मरण सभी विधाओं पर लिखा है। किंतु उनके निबंधों ने उन्हें विशेष ख्याति दिलाई है। पर ये भी सत्य है कि उनके साहित्य के अनुरागी इनकी हर विधा के प्रशंसक रहे हैं। यही कारण है कि बख्शी जी का साहित्य आज भी उतना ही लोकप्रिय है। उनका पहला निबंध सरस्वती में सोना निकालने वाली चींटियां नाम से प्रकाशित हुआ था। बीए पास करने के बाद उन्होंने राजनांदगांव में 1916 से संस्कृत शिक्षक के रूप में सेवाएं दीं। वर्ष 1919 तक वे यहीं नियुक्त रहे। फिर वर्ष 1929 से 1949 तक खैरागढ विक्टोरिया हाईस्कूल में अंग्रेजी शिक्षक के रूप में पढ़ाया। कुछ समय तक वे कांकेर जिले में भी अध्यापन करते रहे। वर्ष 1920 में वे सरस्वती के सहायक संपादक बने और एक वर्ष के भीतर ही 1921 में वे सरस्वती के प्रधान संपादक बना दिए गए। 1925 में उन्होंने स्वेच्छ से अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। 1952 से 1956 तक उन्होंने महाकौशल के रविवारीय अंक का संपादन किया। 1955 से 1956 तक खैरागढ में ही रहकर सरस्वती का संपादन कार्य भी किया। 10 अगस्त 1959 को दिग्विजय कॉलेज राजनांदगांव में हिंदी के प्रोफेसर बने और जीवनपर्यंत यहीं कार्य करते रहे। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने अपने साहित्यिक जीवन का शुभारम्भ कवि के रूप में किया था। 1916 से 1925 तक इनकी स्वच्छन्दतावादी प्रकृति की कविताएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। बाद में 'शतदल' नाम से इनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को वास्तविक ख्याति आलोचक तथा निबन्धकार के रूप में मिली। कुछ वर्षों तक 'छाया' (इलाहाबाद ) के भी सम्पादक रहे।
 
साहित्य जगत् में 'साहित्यवाचस्पति पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी' का व्यक्तित्व उनकी कृतियों में स्पष्ट परिलक्षित होता है। बख्शी जी मनसा, वाचा, और कर्मणा से विशुद्ध साहित्यकार थे। मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा या कीर्ति की लालसा से कोसों दूर निष्काम कर्मयोगी की भाँति पूरी ईमानदारी और पवित्रता से निश्छल भावों की अभिव्यक्ति को साकार रूप देने की कोशिश में निरन्तर साहित्य सृजन करते रहे। निर्माण भाव इतना उच्च कि उनके उपन्यास के कई प्रशंसक पाठक होने के बाद भी वे स्वयं को उपन्यास के क्षेत्र में असफल मानते रहे। आरम्भ में बख्शी जी की दो आलोचनात्मक कृतियाँ हिंदी साहित्य विमर्श (1924) व विश्व साहित्य (1924) भी प्रकाशित हुईं। इन कृतियों में भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य सिद्धांत के सामंजस्य एवं विवेचन की चेष्टा की गयी है। 'विश्व साहित्य' में यूरोपीय साहित्य तथा पाश्चात्य काव्य मत पर कुछ फुटकर निबन्ध भी दिये गये हैं। इन पुस्तकों के अतिरिक्त बख्शी की दो अन्य आलोचनात्मक कृतियाँ बाद में प्रकाशित हुईं- 'हिन्दी कहानी साहित्य' और 'हिन्दी उपन्यास साहित्य'। निबन्ध कहानी साहित्य' और 'हिन्दी उपन्यास साहित्य'। निबन्ध लेखन के क्षेत्र में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी एक विशिष्ट शैलीकार के रूप में सामने आते हैं। इन्होंने जीवन, समाज, धर्म, संस्कृति और साहित्य आदि विभिन्न विषयों पर उच्च कोटि के ललित निबन्ध लिखे हैं। इनके निबन्धों में नाटक की सी रमणीयता और कहानी जैसी रंजकता पायी जाती है। यत्र-तत्र शिष्ट तथा गम्भीर व्यंग्य-विनोद की अवतारणा करते चलना इनके शैलीकार की एक प्रमुख विशेषता है। उनका पहला निबंध ‘सोना निकालने वाली चींटियाँ’ सरस्वती में प्रकाशित हुआ। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी ने 1929 से वर्ष 1934 तक अनेक महत्त्वपूर्ण पाठ्यपुस्तकों यथा- पंचपात्र, विश्वसाहित्य, प्रदीप की रचना की। मास्टर जी की उल्लेखनीय सेवा को देखते हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वर्ष 1949 में साहित्य वाचस्पति की उपाधि से इनको अलंकृत किया गया। इसके ठीक एक साल बाद बख्शी जी मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति निर्वाचित हुए।
 
 
वर्ष 1949 से 1957 के मध्य मास्टरजी की महत्त्वपूर्ण संग्रह- कुछ, और कुछ, यात्री, हिन्दी कथा साहित्य, हिन्दी साहित्य विमर्श, बिखरे पन्ने, तुम्हारे लिए, कथानक आदि प्रकाशित हो चुके थे। वर्ष 1968 में उनकी प्रमुख और प्रसिद्ध निबंध संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें हम-मेरी अपनी कथा, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, वे दिन, समस्या और समाधान, नवरात्र, जिन्हें नहीं भूलूंगा, हिन्दी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा, अंतिम अध्याय को गिना सकते हैं ।
 
 
बख्शी जी की एक पुस्तक 'यात्री' नाम से प्रकाशित हुई है। यह एक यात्रा वृत्तान्त है और इसमें 'अनन्त पथ की यात्रा' का रोचक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की सेवाएँ उल्लेखनीय हैं। बख्शी जी के निबन्धों की विशिष्ट मीमांसा है। बख्शी जी के निबन्धों में जीवन की छोटी-बड़ी अनेक घटनाओं के प्रसंग अतीत की स्मृति का सरस लेखा-जोखा करते हैं। इनके निबन्धों में विधवा-समस्या, गृह-जीवन में असंतोष आदि निबन्ध जीवन की सच्चाइयों को सरलता से प्रतिबिम्बित करते हैं। 'समाज सेवा' इनका प्रसिद्ध निबन्ध है। बख्शी जी ने अपने जीवन में सम्मान भी खूब अर्जित किए। वर्ष 1969 में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र द्वारा डी-लिट् की उपाधि से विभूषित किया गया। वर्ष 1949 में उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन द्वारा 'साहित्य वाचस्पति' से विभूषित किया गया। वर्ष 28 दिंसबर 1971 को रायपुर के डीके अस्पताल में इस महान साहित्यकार ने अंतिम सांस ली ।
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी की रचनायें-
1. निबन्य-संग्रह, पंचपात्र', 'पद्मवन', 'तीर्थरेणु', 'प्रबन्ध-रिजात', ‘कुछबिखरेपन्ने’, ‘मकरन्दबिन्दु’, ‘यात्री', 'तुम्हारेलिए’, ‘तीर्थ सलिल' आदि।
2. काव्य-संग्रह- ‘शतदल’ और‘ अश्रुदल।
3. कहानी-संग्रह- ‘झलमला’ और ‘अञ्जलि।
4. आलोचना- हिन्दी-साहित्य विमर्श', 'विश्व-साहित्य', 'हिन्दीउपन्यास साहित्य' , 'हिन्दी कहानी साहित्य', 'साहित्य शिक्षा ' आदि ।
5. अनूदितरचनाएँ-जर्मनी के मॉरिसमेटर लिंक के दो नाटकों का ‘प्रायश्चित्त’ और ‘उन्मुक्ति का बन्धन' शीर्षक से अनुवाद।
6.सम्पादन- ‘सरस्वती’ और ‘छाया'।