रमेश शर्मा -
भारत की धरती का दक्षिणी अंग गोवा 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र नहीं हो पाया था। वहाँ पुर्तगालियों की सत्ता बनी रही। गोवा मुक्ति के लिये अलग से आँदोलन हुआ। भारत का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ से गोवा मुक्ति आंदोलन के लिये जत्थे नहीं पहुँचे। गोवा मुक्ति आंदोलन में जन जाग्रति करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही।
पन्द्रह अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजों से मुक्त हुआ लेकिन भारत के कुछ ऐसे भूभाग भी थे जो स्वतंत्र नहीं हो सके थे। इनमें पांडिचेरी पर फ्रांसीसी और गोवा, दमन और दीव पर पुर्तगालियों की सत्ता बनी रही। अंग्रेजों की तरह पुर्तगाली भी व्यापारी बनकर ही भारत आये थे। उनका पहला जत्था वास्कोडिगामा के नेतृत्व में मई 1498 में भारत आया था और गुजरात के कालीकट से अपना व्यापार शुरु किया। व्यापार के बहाने दक्षिण भारत में पैर जमाये और 1510 में गोवा पर अधिकार कर लिया। पुर्तगालियों ने गोवा को ईसाई धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया था इसीलिए चर्च के संकेत पर अंग्रेजों ने भी गोवा में बहुत हस्तक्षेप नहीं किया और गोवा पर पुर्तगालियों की सत्ता लगभग साढ़े चार सौ वर्षों तक बनी रही।
भारत में स्वतंत्रता आँदोलन जब शुरु हुआ तब गोवा लगभग छूटा हुआ था। गोवा में स्वतंत्रता आँदोलन 1940 के आसपास आरंभ हुआ। गोवा मुक्ति के लिये आँदोलन करने वालों में सबसे पहला एक प्रमुख नाम महादेव शास्त्री जोशी का आता है। उन्होने मानों अपना पूरा जीवन ही गोवा मुक्ति के लिये समर्पित कर दिया था। उनकी पत्नि सुधाताई भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर सक्रिय रहीं। इस दंपत्ति ने गोवा मुक्ति के लिये देशभर के सभी राजनैतिक और सामाजिक संगठनों से संपर्क किया। इनमें काँग्रेस, हिन्दु महासभा, आर्य समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन प्रमुख थे। दोनों पति पत्नि कई बार गिरफ्तार हुये। 1946 में उन्हें गोवा से बाहर कर दिया गया, तब उन्होंने अपना केन्द्र पुणे बनाया। यहाँ उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वातंत्र्यवीर दामोदर सावरकर से बना और आँदोलन को गति मिली। वर्ष 1946 गोवा मुक्ति आंदोलन के लिये एक मील का पत्थर साबित हुआ। एक ओर गोवा प्रशासन के दमन से स्वतंत्रता समर्थक स्थानीय नागरिकों में आक्रोश आया दूसरी डॉ. राम मनोहर लोहिया की मडगांव में एक सभा हुई। डा लोहिया गोवा में अपने किसी अन्य कार्य के लिये आये थे लेकिन उन्होंने गोवा में सरकार का आतंक देखा तो वे रुक गये और उन्होंने मंडगाव में सभा की। इससे स्थानीय स्तर पर स्वतंत्रता का वातावरण बना।
लेकिन इस संघर्ष में कुछ गतिरोध आया। भारत विभाजन की त्रासदी और गाँधीजी की हत्या से उत्पन्न उथल पुथल से जहाँ भारत के अन्य भागों विशेषकर महाराष्ट्र से इस आँदोलन को अधिक सहायता नहीं मिल सकी वहीं गोवा सरकार ने चर्च को सक्रिय करके स्थानीय नागरिकों में विभाजन की नींव रखी। इन दोनों कारणों से गोवा मुक्ति आंदोलन कुछ धीमा हुआ। इसी बीच डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर आँदोलन का आव्हान किया था उस ओर भी पूरे भारत का ध्यान आकर्षित हो गया था।
गोवा मुक्ति के लिये आँदोलन में गति 1952 के बाद आई तथा यह सक्रियता दोनों ओर बढ़ी। भारत के विभिन्न स्थानों पर भी जाग्रति अभियान चले और गोवा की स्थिति का आकलन करने के लिये विभिन्न सामाजिक और राजनेताओ का आवागमन भी गोवा में बढ़ा। गोवा मुक्ति आन्दोलन के लिये दो प्रमुख केन्द्र बनाये गये। एक मुम्बई और दूसरा पुणे, इन दोनों केन्द्रों के संचालन के व्यवस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ में थी। मुम्बई में तो स्वतंत्रवीर दामोदर सावरकर भी गोवा जाने वाले मुक्ति आंदोलन कारियों का उत्साह वर्धन कर रहे थे। गोवा प्रशासन ने आंदोलन को दबाने का पूरा प्रयास किया और भारत सरकार से सहयोग करने की बात भी की। पुर्तगाल सरकार चाहती थी कि गोवा उसी तरह एक स्वतंत्र इकाई रहे जैसे सिक्किम और नेपाल थे। ऐसे ही तनाव और तैयारी में लगभग दो वर्ष निकले, लेकिन 1954 के बाद गोवा मुक्ति आंदोलन में गति आई। पूरे भारत में सभाओं और जुलूस का क्रम चला और एक गोवा मुक्ति के लिये एक निर्णायक आँदोलन की रूपरेखा बनी। इसके लिये 15 अगस्त 1955 का दिन निश्चित हुआ। 15 अगस्त भारत की स्वतंत्रता का दिन था। योजना बनी कि उस दिन भारतीय तिरंगा फहराकर गोवा को पुर्तगाल के आधिपत्य से मुक्त करा लिया जाये। इसके वर्ष 1954 में पूरे देश में जाग्रति अभियान चला।
गोवा मुक्ति आन्दोलन में यद्यपि पूरे देश में सभाएँ हुई, जाग्रति के लिये जुलूस निकले और जत्थे गोवा गये। फिर भी इसका सर्वाधिक जोर महाराष्ट्र में रहा। महाराष्ट्र में इस जाग्रति के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका मानी महत्वपूर्ण मानी जाती है। संघ ने पहले स्वतंत्रता आँदोलन और फिर सामाजिक आँदोलनों में जो भी सक्रियता दिखाई अपने नाम और बैनर का उपयोग नहीं किया। जहाँ जो नेतृत्वकर्ता थे उन्हीं को सहयोग किया। स्वतंत्रता आँदोलन में यदि डाक्टर हेडगेवार जेल गये तो कांग्रेस नेतृत्व में ही गये थे। इसी प्रकार 1942 के भारत छोड़ो आँदोलन में भी संघ की भूमिका यही थी। गोवा मुक्ति आँदोलन महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महादेव शास्त्री जोशी और उनकी पत्नि सुधाताई दोनों का जीवन गोवा की मुक्ति के लिये समर्पित रहा। इनका संपर्क भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से था। इनके संपर्क से ही इस आँदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की सक्रियता बढ़ी। महाराष्ट्र का ऐसा कोई गांव या कस्बा न बचा था जहाँ गोवा मुक्ति के लिये सभाएँ न हुई हों।
मध्यप्रदेश में गोवा मुक्ति आंदोलन ने 1952 के बाद जोर पकड़ा इसका सर्वाधिक जोर मालवा, मध्यभारत और भोपाल अंचल में रहा। मालवा में गोवा मुक्ति के लिये चेतना जगाने का काम राजाभाऊ महाकाल ने किया, राजाभाऊ संघ के प्रचारक थे। मालवा का ऐसा कोई कस्बा न बचा जहाँ राजाभाऊ ने सभाएँ न कीं हों। भोपाल क्षेत्र में भाई उद्धवदास मेहता की सक्रियता रही। उद्धवदास मेहता उन दिनों नगर संघ चालक थे उन्होंने भोपाल के अतिरिक्त सीहोर रायसेन बरेली आदि क्षेत्रों में यात्रा की। उनके साथ पं. भगवान दास सारस्वत, ब्रजभूषण गोयल, नन्नूलाल चौधरी आदि की टोली थी। विदिशा क्षेत्र में निरंजन वर्मा ने, ग्वालियर क्षेत्र में ब्रज नारायण ब्रजेश ने और जबलपुर क्षेत्र में बाबूराव परांजपे की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। इन सभी का गहरा संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से रहा है।
मध्यप्रदेश से जत्थे गोवा मुक्ति के लिये रवाना हुआ उनमें उज्जैन के जत्थे में सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद वाकणकर जी भी थे यह जत्था 9 अगस्त रवाना हुआ। जबकि इंदौर, जबलपुर से 10 अगस्त को और भोपाल से यह जत्था 11 अगस्त को रवाना हुआ। योजनानुसार देशभर के सभी जत्थे मुम्बई पहुँचे वहाँ से गोवा रवाना हुये। मुम्बई और नासिक ही नहीं गोवा के समीप सभी भारतीय सीमाओं से गोवा के लिये परिवहन के साधन रोक दिये गये थे। सभी आँदोलन कारी पैदल ही मुम्बई से महाराष्ट्र और गोवा की सीमा पर स्थित पत्रादेवी केलिये रवाना हुये। इन जत्थों के पत्रादेवी में सभी जत्थों का स्वागत उस समय के प्रसिद्ध समाजसेवी श्री राणे, मोहन रानाडे, बालाजी पेंडाकर, मधु दंडवते, विश्वनाथ लंबदे आदि ने स्वागत किया। इस पूरे मार्ग जलपान की व्यवस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने ही की थी।
गोवा सरकार की सेना ने पत्रादेवी में ही नाकाबंदी कर रखी थी। जत्थों ने तिरंगा हाथ में लेकर आगे बढ़ने का प्रयास किया। सेना ने रोका और गोली चालन कर दिया। इसमें तीस से अधिक कार्यकर्ता बलिदान हुये और सौ से अधिक घायल हुये। बलिदान होने वालों में उज्जैन के राजाभाऊ भी थे। उनके सिर में तीन गोलियाँ लगी थीं, यह 15 अगस्त 1955 का दिन था। बलिदान होने वालों की संख्या इससे अधिक बताई गई। यह संख्या तो सरकारी आकड़ों की थी। कितने ही आँदोलनकारियों को "गुमशुदगी" के रूप में दर्ज किया जिनका कभी पता नहीं चला। इसमें मध्यप्रदेश के चार कार्यकर्ता थे ।
इसके बाद तनाव निरंतर बढ़ा और आँदोलन की शैली में थोड़ा परिवर्तन हुआ। इसके बाद आँदोलन तो सतत रहा लेकिन भारतीय और गोवा की सीमा पर प्रदर्शन हुये। तथा देशभर में सभाएँ हुईं। भारत सरकार पर दबाब बना, सरकार से अपेक्षा की गई कि जैसा अभियान जूनागढ़ और हैदराबाद आदि में चला था वैसा गोवा में चलाया जाए, अंततः भारत सरकार तैयार हुई और भारतीय सेना सक्रिय हुई। 1 नवम्बर 1961 में भारतीय सेना के तीनों अंगों को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश हुआ और भारतीय सेना ने दो दिसंबर को गोवा मुक्ति का अभियान शुरू किया। शुरु में गोवा में तैनात पुर्तगाल की सेना ने मुकाबला किया परन्तु वह टिक न सकी। अंततः गोवा में पुर्तगाल की सेना और वहाँ तैनात पुर्तगाल के गवर्नर जनरल मैन्यु आंतोनियो सिल्वा ने समर्पण सन्धि पर हस्ताक्षर किये। यह हस्ताक्षर 19 दिसम्बर 1961 की रात साढ़े आठ बजे हुये। इसी के साथ गोवा पर 451 वर्ष पुराना पुर्तगाली शासन समाप्त हुआ और वह भारतीय गणतंत्र का अंग बन गया।