मरुस्थल की मंदाकिनी का क्रांतिनाद.

17 Oct 2024 15:06:00

Sant Meerabai
 
 
डॉ.मंदाकिनी शर्मा. 
 
मध्यकाल की भक्तिधारा ने अद्भुत संतवाणी का लालन-पालन किया है। यह परिवेश, यह पर्यावरण हमें ऐसी साहित्य साधना से परिचित करवाता है जो निर्भीक है, निडर है, निरपेक्ष है, नि:स्वार्थ भी है। मध्यकाल का साहित्य साधना की ऊँचाई तक इसलिए पहुँचा क्योंकि इस काल की वाणी ने लोक उपकार के मूल्य को बहुत गहराई से स्वीकार किया था। क्रांति की एक युग सापेक्ष परिभाषा रचने का कार्य इस युग ने किया था क्रांतिकारी वाणी का उदघोष करने वाली, ऐसी ही परिभाषा रचने वाली संतों की इस पंक्ति में एक नाम राजस्थान की वीरता, त्याग, आत्मोसर्ग,साहस,देशभक्ति और आदर्श नैतिक मूल्यों के लिए प्रसिद्ध भूमि पर जन्मीं मीराबाई का भी सम्मिलित है। मीराबाई भक्तिमार्ग की भक्त कवयित्री या संत कवयित्री के रूप में अपनी पहचान रखती हैं किंतु यदि तात्कालीन संदर्भों को देखें तो मीराबाई ने अपने सरल,सहज पदों के माध्यम से उस काल में क्रांति का तेजोमय उद्घोष भी किया था। उन्होंने क्रांति की थी- अपने समय में व्याप्त सामाजिक रूढ़ियों के विरोध में, उन्होंने क्रांति की थी अपने समय के हिंदू जन-मन में बसे भय के विरोध में, उन्होंने क्रांति की थी अपने युग की नारी की युगीन मूल्यों के आधार पर निर्मित स्थिति अर्थात उसके भोग्य स्वरूप के विरोध में, उन्होंने क्रांति की थी नारी को पराधीन बनाकर उसके प्रकृति प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन करने वाली व्यवस्था के विरोध में। सन्त मीराबाई वास्तव में मध्यकाल की स्त्री चेतना का एक ऐसा सशक्त हस्ताक्षर थीं जो ना सिंहासन की शक्ति से भयभीत होती थी,जो न मृत्यु के षड्यंत्र के चलते अपने अंदर भीरुता के भाव का अधिग्रहण करती थी, जो ना लोक मर्यादा के नाम पर प्रचलित बन्धनों के अधीन होने की रीति को स्वीकार करती थी क्योंकि वह ना तो स्वछन्द विचारों का सम्मेलन करने वाली तथाकथित विदुषी स्त्री थीं न ही आर्थिक सबलता को अपना संबल मानने वाली भ्रमित आधुनिक नारी !! वह तो आत्म-तत्व की घनी छत्रछाया में बैठी अपने स्वत्व को पहचान लेने वाली सांसारिक त्रिविध तापों का निस्तारण कर चुकी आत्माबलम्बी नारी थी जो स्पष्ट रूप से कहती है:-
 
"राणा जी मुझे यह बदनामी लागे मीठी
कोई निंदो कोई बिंदो मैं तो चलूँगी चाल अनूठी
साँकरी गली में सतगुरु मिलिया, क्यूँ कर फिरू अपूठि।
सतगुरु जी सो बातन करता,दुर्जन लोगाँ ने दीठी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर दुर्जन जलो जा अंगीठी।।"
 
मध्यकाल के वातावरण में जबकि हिंदू जन-मन में यह बात गहराई से बैठाई जा रही थी कि तुम्हारा धर्म और कर्म मात्र आडम्बर है। तुम्हारी दैनिक संस्कार से परिपूर्ण जीवनशैली एकमात्र ढकोसला है और अपने इन दूषित विचारों को सत्य सिद्ध करने के लिये हिंदुओं के आस्था और विश्वास के केंद्र हिन्दू मंदिर तथा हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को खंडित किया जा रहा था, उनका भंजन किया जा रहा था। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में ,ऐसे संक्रमण के काल में भी संत मीराबाई सनातन अवधारणा पर अवलम्बित तथा नवधा भक्ति पर केंद्रित जीवन-चक्र को सबके सामने उजागर करती हैं- अपने सशक्त पदों के माध्यम से :-
 
"राणा जी म्हे तो गोविंद का गुण गास्यां।
चरणामृत को नेम हमारो नित उठ दरसण जास्याँ।।
हरि मंदिर में निरत करास्यां घुँघरिया घमकस्यां।
राम नाम का झांझ चलास्यां भवसागर तर जास्यां।।
यह संसार बाड़ का कांटा ज्यां संगत नहीं जास्याँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर निरख परख गास्यां।।"
 
संत मीराबाई ने निर्भीक भाव से मंदिर में हरि कीर्तन करने का केवल उद्घोष ही नहीं किया वरन उस काल के साधु-संतों के साथ इस उद्घोष को क्रियान्वित भी किया और बिना किसी भय के उस उद्घोष को स्वयं जिया भी। मीरा का कृष्ण प्रतिमा को हाथ में लेकर राजस्थान से उत्तर प्रदेश और फिर गुजरात की यात्रा करना उनके द्वारा इस बात का संदेश प्रेषित करने का द्योतक था कि यदि शत्रु भाव के पालक दुष्टजन आपके देवालयों को तोड़ते हैं,आपके इष्ट देव की प्रतिमा को भंजित करते हैं तो आप अपनी इस देह को देवालय बना लो और अपने हृदय में अपने इष्ट को बसाकर उसका अष्टयाम सेवा करने वाला सेवक बन जाओ। मृत्यु के भय से ऊपर उठकर भजन के आनंद को अपने जीवन का संगी बनाकर मध्यकाल की संकीर्ण तथा विषमता की पोषक रीति-नीति के सामने ऐसा सत्य तथ्य लेकर खड़ा होने का साहस मीरा जैसी संत, मीरा जैसी क्रांतिद्रष्टा ही कर सकती थीं। वस्तुतः संत मीरा की वाणी ने उस समय के हिंदू जन-मन को भरोसे की ऑक्सीजन प्रदान ही नहीं की बल्कि ईश्वर पर भरोसे की ऑक्सीजन का महत्व समझाने वाले जीवन पथ पर स्वयं भी चलने के एकाधिक उदाहरण विधर्मियों द्वारा प्रताड़ित सनातन समाज के सामने रखे औऱ लोकजन को उस पथ पर चलने की प्रेरणा देने वाले निम्नलिखित प्रकार के पद भी रचे:-
 
"मीरा मगन भाई हरि के गुण गाये।
साँप पिटारा राणा भेज्या,मीरा हाथ दीयो जाय।।
न्हान धोय देखन लागीं सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या,अमरित दीन्ह बनाय।
न्हान धोय जब पीवण लागी, हो गई अमर अंचाय।।
सूल सेज राणा ने भेजी, दीज्यो मीरा सुवाय।।"
 
मीराबाई के आत्माबलम्बी होने का यह ऐसा उदाहरण है जो सनातन धर्म की शक्ति को प्रकट करता है। सम्भवतः ऐसी शक्ति के कारण मीराबाई के कृष्ण के प्रति अटल विश्वास की कथाओं को आज भी स्मरण किया जाता है । लीलाधर कृष्ण को लेकर हुये विभिन्न अनुभवों को जन-जन में बाँटकर मीराबाई ने अपने समय के समाज में जागरण का अभियान प्रारंभ किया था। इस प्रकार उस युग में सामाजिक,राजनीतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त अनेक प्रकार के रोगों को मिटाने का,अनेक प्रकार के फैले आसाध्य विकारों का विरेचन करने का,उनका समुचित उपचार करने का कार्य इस निर्भीक संत के द्वारा संपन्न हुआ।
 
संसार के प्रत्येक जीव में परमात्मा बसता है इसीलिये पति नामक जीव को परमेश्वर की संज्ञा दी गई है। सामाजिक सौहार्द्र की स्थापना और सृष्टि संचालन जैसे संस्कार के लिये निर्मित इस व्यवस्था का पहला छोर यही है किंतु मीराबाई ने इस व्यवस्था के दूसरे छोर से अपनी यात्रा प्रारंभ की और पति को परमेश्वर ना मानकर परमेश्वर को ही पति मान लिया:-
 
"मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा ना कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
भक्ति देखि राजी हुई जगती देखी रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर होई सो होई।।"
 
स्त्री चेतना जब मीराबाई की भाँति आत्मावलंबी होती है तब वह सत्ताधारी शक्तिमानों की परवाह नहीं करती बल्कि वह अगुवानी करती है परिवर्तनकारी प्रक्रिया का। संत मीराबाई भी ऐसी ही आत्मावलम्बी स्त्री चेतना की जीवंत उदाहरण थीं। राजतंत्र की पूरी व्यवस्था को चुनौती देने वाली राणा कुल की कुलवधू,राजपूतों की आन--बान-शान की प्रतीक राजकुमारी मीराबाई ने भक्तिमार्ग के अंतर्गत रहे अपने पूर्वजों चौरासी सिद्धों और नव नाथ योगियों की त्याग सम्बन्धी परम्परा को आगे विकसित किया। उन्होंने अपने समय की बहुत बड़ी माँग सामाजिक समरसता को स्थापित करने में अपना अहम योगदान दिया था। कृष्ण-उपाशी मरु मंदाकिनी संतसाधिका मीराबाई का अपने समय के समाज में समतावादी मूल्य की स्थापना करना वास्तव में एक अविस्मरणीय घटना है:-
 
"सील संतोष धरूँ घट भीतर, समता पकड़ रहूँगी ही ।
जा को नाम निरंजन कहिए,ता को ध्यान धरुँगी ही।।"
 
वो मरुस्थल की मंदाकिनी ही थी जिसने विषपान कर मूर्तिपूजा का विरोध करने वालों को यह बताया कि मूर्तिमंत ईश्वर सच्चा था,सच्चा है और सच्चा ही रहेगा। मीरा की निष्कपट भक्ति उस मूर्ति में बसे ईश्वर के विष रूप में अवतरित होने का हेतु बन जाती है तब मीरा कह उठती है:-
 
"विष का प्याला राणाजी भेज्या, पीवत मीरा हाँसी रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, मिले सहज अविनाशी।।"
 
इसी प्रकार द्वारकाधीश की मूर्ति में अलौकिक ज्योति पुंज के रूप में समाहित होंकर संत मीराबाई स्त्री अस्मिता के रक्षार्थ मारवाड़ में प्रचलित पवित्र सती परम्परा को लेकर भी एक अद्वितीय साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। अमर सुहागन की अप्रतिम परिभाषा गढ़ती हैं। यूँ पाँच सौ वर्ष पूर्व की इस युवती ने कई नये प्रतिमान रचे।
 
इस प्रकार यदि विचार किया जाये तो हम देखते हैं कि श्रीकृष्ण को अपना जीवनधन मानने वाली एवं मध्यकाल की स्वछंद काव्य परम्परा को अपनी तेजोमय वाणी से समृद्ध करने वाली सन्त मीराबाई ने कोरी या बैठे-ठाले की भक्ति- भावना की अभिव्यक्ति नहीं की है बल्कि कृष्ण प्रेम के व्याज से उन्होंने राष्ट्र प्रेम को,सनातन धर्म के प्रति अपने दृढ विश्वास को शब्द-स्वर-प्रसून से सजाया था। मरु-मंदाकिनी की उपमा से विभूषित इस सन्त ने नारी स्वतंत्रता के लिये और समाज की सद्भावपूर्ण व्यवस्था बनाने के लिये जो बात अपने साहित्य के माध्यम से कही है उसे न केवल भारत की भूमि पर सराहा गया है बल्कि विदेशी दृष्टि में भी सन्त मीराबाई का साहित्य प्रशंसा पाने के साथ ही अनुकरणीय भी माना गया है।अमेरिका के विलिस बार्नस्टोन द्वारा संकलित-संपादित -अनुवादित पुस्तक 'अ बुक ऑफ विमिन पोएट्स फ्रॉम एंटीक्विटि टू नाऊ' में मीराबाई के पदों की उपस्थिति हमारे लिये संतोष और गौरव की बात है कि भक्तिकाल का मरुभूमि में जन्मा यह क्रांतिनाद विदेशी भूमि तक अपनी पहुँच रखता है।
 
 
मरुथल की इस प्रेम रस से भरी मंदाकिनी को,कलयुग की कृष्ण प्रेमपात्रा राधिका को चरणवंदन है!! घणीखम्बा है !!
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