भारतीय ज्ञान परंपरा में सर्वत्र पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों के संरक्षण की है बात

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    10-Jun-2023
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विश्व पर्यावरण दिवस
  
डॉ आनन्द कुमार शर्मा-
 
भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुशीलन से विदित होता है कि, भारत के आदितम् सभ्य पूर्वजों ने प्रकृति एवं उसके उपादानों, पशु-पक्षियों, पादपों आदि को आध्यात्मिक रूप प्रदान किया है। भारतीय ज्ञान परंपरा में सनातन संस्कृति और पर्यावरण को अविछिन्न रूप से जोड़ा गया है। प्राक् धार्मिक जीवन - पद्धति एवं धर्म का विकास प्रकृति एवं उसकी विभिन्न शक्तियों से प्रभावित होकर हुआ।
 
इसी कारण चिरकाल से ही भारतीय सांस्कृतिक जीवन में धर्म एवं प्रकृति के संयोग एवं संबंध का चिंतन भारतीय ज्ञान परंपरा ने स्थायी रूप से समाहित किया है। पादप और पाषाण में परमात्मा के दर्शन कराने वाली भारतीय ज्ञान परंपरा ने धर्म में प्रकृति की वंदना को दृढ़ता के साथ स्थापित किया है।
 
भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करते हुए हम अनेक स्थलों पर वृक्ष एवं वनस्पतियों की पूजा एवं उनके संरक्षण की भावना के भाव का उल्लेख पाते हैं। सिन्ध - सरस्वती सभ्यता से लेकर वैदिक काल तक और वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक हम भारतीय धर्म एवं संस्कृति में प्रकृति - पूजा को निर्वाध एवं निरन्तर रूप से पाते हैं।
 
तुलसी, पीपल, बरगद, केला, आम्रपत्र आदि वृक्षों की, गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों की, सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि के प्रति श्रद्धा एवं पूजा का भाव भारतीयों में हमेंशा रहा है। इसके मूल में हमारे प्राचीन मनीषियों की दूरदर्शिता ही थी, जिन्होंने प्रकृति के इन रूपों को आध्यात्मिक संरक्षण प्रदान किया।
 
पद्म पुराण में वर्णित है कि, पार्वती के श्राप के कारण विष्णु को पीपल का वृक्ष बनना पड़ा था। भगवत्गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं को वृक्षों में पीपल कहा है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि, ’’जिस घर में प्रतिदिन तुलसी की पूजा होती है, उसमें यमदूत प्रवेश नहीं कर सकते।’’
 
भारतीय धर्मशास्त्रों में पेड़-पौधों और वनस्पतियों के रोपण, पोषण और संवर्द्धन को पुण्य कार्य माना गया है।’’ जो व्यक्ति अपने जीवन में एक पीपल, एक नीम और एक बड़ का पेड़ लगाये, दस फूलों वाले वृक्षों और लताओं को रोपण करें, अनार, नारंगी और आम के दो-दो वृक्ष लगाये, वह कभी नरक में नहीं जाता।
 
इस प्रकार भारतीय धर्म ने प्रकृति को अपना आवरण प्रदान करके, उसके संरक्षण की महान परिपाटी का विकास किया। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने प्रकृति एवं पर्यावरण को धर्म से जोड़कर उसके संरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया। धर्म को प्रकृति से जोड़ने के मूल में और कुछ नहीं, प्रकृति और उसकी शुद्धि का भाव ही है। यज्ञ पर्यावरण और मन दोनों को पवित्र करता है और दोनों को प्रदूषण से बचाता है।
 
भारतीय धर्म-संस्कृति ने हमेशा से ’वन’ की वंदना की है। वन ने उसे संबल भी दिया है और सहारा भी, शक्ति भी दी है और साधना भी, राग भी दिया है और विराग भी। इस प्रकार प्रकृति एवं पर्यावरण का संबंध भारतीय धर्म में अभिन्न है।
 
भारतीय धर्म में प्राकृतिक पेड़ - पौधों एवं वनस्पतियों को धर्म से अविछिन्न रूप से संयोजित करते हुए पेड़ - पौधों एवं वनस्पतियों में देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा एवं उनका वास मानकर पूजा-अर्चना का विधान किया गया है। इसके साथ ही धार्मिक विधि - विधानों में पेड़ - पौधों एवं वनस्पतियों का प्रयोग अनिवार्य रूप से करके इन्हें धर्म एवं पूजा विधान का आवश्यक अंग बना दिया है।
 
भारतीय धर्म ग्रंथों में पेड़ - पौधों एवं वनस्पतियों की पूजा अर्चना एवं उनके देवत्व का आरोपण करके प्रकृति और धर्म के संबंध को ठोस तरीके से स्थापित किया गया है। मंत्रदृष्टा वैदिक ऋषियों ने प्रकृति के कण - कण में भगवान के ’वास’ और ’प्रकृति’ के साथ परम तत्व की भावना को स्थापित किया है। वस्तुतः भारतीय धर्म में प्राकृतिक पेड़-पौधों, वनस्पतियों और वनों को ‘देवतुल्य‘ माना है।
 
सनातन भारतीय धर्म ने प्राकृतिक वनस्पतियों एवं वनों को धार्मिक आवरण देकर न केवल संरक्षण के भाव का बीजारोपण किया अपितु धर्म के साथ अविछिन्न रूप से संयोजित एवं संबंधित कर दिया है। भारतीय सनातन धर्म में वृक्षों को ‘वंदनीय‘ एवं ‘पूजनीय‘ बताया गया है।
 
ऋग्वेद में ‘वन को देवी‘ एवं समस्त ‘वन्य जन्तुओं की माता‘ कहकर संबोधित किया है, ऋग्वेद में वन की देवी ‘अरण्यानी‘ कहकर सम्मानित किया है। वैदिक ग्रंथों में वन-वनस्पति एवं वृक्षों को देवत्व प्रदान करते हुए ’वनानां पतये नमः’ एवं ‘नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः‘ कहकर उनके रक्षकों को आदर प्रदान किया गया है।
 
अथर्ववेद में वनों एवं वनस्पतियों को सुखदायी तथा समस्त प्राणियों का भरण - पोषण करने वाला कहा गया है। अथर्ववेद में एक स्थान पर उल्लेखित है कि, वनों से आच्छांदित तलहटियों से युक्त धरा सबको सुख देती है। वहीं, दूसरे स्थान पर अथर्ववेद में वर्णित है कि, जिस धरा पर वृक्ष व वनस्पतियाँ हमंेशा खड़ी रहती हैं, वह भूमि समस्त प्राणियों का भरण - पोषण करने में सक्षम होती है।
 
वैदिक ग्रंथों में वृक्षादि को ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण वनसम्पदा, वनस्पति जगत्, वृक्षों व उनके संरक्षकों और पालकों को भी ’वन्दनीय’ एवं ’पूजनीय’ कहा गया है -
 
”नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यो वनानां पतये नमः
वृक्षायो पतये नमः औषधीनां पतये नमः
वृक्षायां पतये नमः अरण्यानां पतये नमः।“
  
पद्म पुराण में वर्णित है कि, परमात्मा (भगवान) स्वयं कहते हैं कि, सृष्टि रचना के समय मैं पेड़ - पौधों और वनस्पतियों में विद्यमान रहा हूँ तथा माता पार्वती ’बेल’ और लक्ष्मी जी ’तुलसी’ में निवास करती है। महाभारत में वृक्षों को धर्म से जोड़ते हुए कहा गया है कि, ’वृक्ष धर्म का पुत्र है’। इसके साथ ही महाभारत के आदिपर्व में वृक्षों के महत्व को स्थापित करते हुए कहा गया है कि, ग्राम में एक भी पेड़ पŸाों और फलों से युक्त हो वह ग्राम मन्दिर (चैत्य) के समान पूज्यनीय हैं।
 
पेड़ - पौधों और वनस्पतियों को ’दैवी शक्ति’ से संबंधित करते हुए ’रूद्रहृय उपनिषद्’ में उल्लेखित है कि, पेड़ - पौधों में शिव (रूद्र) और लताओं में पार्वती (उमा) का निवास होने के कारण इन्हें नमन करना चाहिए।
 
उपनिषदों में पेड़ - पौधों में प्राण तत्व को मानकर उन्हें ’चेतन जीव’ की तरह माना है, साथ ही उन्हें ’जीवनदायी’ माना गया है। ’केन उपनिषद्’ में कहा गया है कि, वन, ’ब्रह्मा’ है, अर्थात् वनों को ’ब्रह्म’ (परमपिता परमात्मा) की संज्ञा दी गयी है। यह वनों के दैवीकरण का प्रतीक है।
 
यजुर्वेद में पेड़ - पौधों एवं वनस्पतियों को ’देवरूप’ अर्थात् देवताओं का रूप बताया गया है, साथ ही इनके दैवीय रूपों और दैवीय शक्तियों से देवताओं को भी सहयोग किया। यजुर्वेद में वर्णित है कि, सुवर्णमयी पत्तों, मधुमय शाखाओं, स्वादिष्ट फलों से युक्त ’वनस्पति देव’ ने देवताओं के साथ मिलकर ’इन्द्र’ को बढ़ाया।
 
’वनस्पति देव’ अपने अग्रभाग से स्वर्ग को स्पर्श, मध्य भाग से अन्तरिक्ष को एवं मूल जड़ भाग से पृथ्वी को स्पर्श करते हैं, इन गुणों से परिपूर्ण है ’वनस्पति देव’ अपने यजमान को धन और शक्ति देने के लिए आपसे प्रार्थना है, अतः आप ’घृतपान’ करें। यहाँ यज्ञ के द्वारा ’वनस्पति देव’ को आहूति देने का संकेत है।
 
अथर्ववेद में भी वनस्पतियों को ’देव’ कहा गया है। सायण का मत है कि, यह वनों का ’अधिष्ठाता देव’ है, जो इसमें अंतर्निहित है। अथर्ववेद में वनस्पति से मृतप्राय पुरूष के जीवन के लिए प्रार्थना की गयी है। अथर्ववेद में ही ’वनस्पति’ को वृक्षों और लताओं का राजा कहा गया है। अथर्ववेद में धार्मिक यज्ञ के दौरान पृथिवी के साथ वनस्पतियों को ’देवस्वरूप’ मानते हुए यज्ञ में आहूति देने का उल्लेख मिलता है।
 
अथर्ववेद में वर्णित है कि, एक ऋषि ’वनस्पति वृक्ष देवता’ से प्रार्थना करता है कि, वह साधक के लिए सरल और मधुर बना रहे। अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर ’वनस्पति देवता’ की स्वतंत्र एवं अन्य देवताओं के साथ स्तुति की गयी है।
 
सनातन भारतीय हिन्दू धर्म पेड़-पौधों और वनस्पतियों को ’देवतुल्य’ मानकर उनकी स्तुति और पूजा - अर्चना का वृतान्त सर्वत्र करता है। वनगमन के समय माता सीता एवं भगवान श्रीराम स्वयं पेड़़ - पौधों एवं वनस्पतियों को ’देवतुल्य’ मानकर उनकी स्तुति, पूजा अर्चना और प्रार्थना करते हैं। रामायण के अयोध्याकाण्ड में वर्णित है कि, जब भगवान श्रीराम और माता सीता वनगमन के समय यमुना नदी को पार करते हैं, तब माता सीता ’वटवृक्ष’ की पूजा करतीं हैं, परिक्रमा करतीं है और अपनी मनोकामना ’वटवृक्ष’ को देवता स्वरूप मानकर करती है और प्रार्थना करती हुई कहती है कि, ’हे महावृक्ष (वट वृक्ष) मैं आपको सिर झुकाकर नतमस्तक् होकर नमस्कार करती हूँ और प्रार्थना करती हूँ कि, आप ऐसी कृपा करें कि, मेरे पतिदेव वनवास की प्रतिज्ञा को पूर्ण करके तथा हम सभी सकुशल लौटकर माता कौशल्या एवं माता सुमित्रा देवी के दर्शन कर सकें -
 
’’न्यग्रोध समुपागय वैदेही चाभ्यवन्दत।
नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम्।।
कौसल्यां चैव पश्येम सुमित्रा च यशस्विनीम्।
इति सीतांजलिं कृत्वा पर्यगच्छन्मनस्विनी।।’’
 
इसी प्रकार ’चम्पू रामायण’ में भी वन, वनस्पतियों और पेड़ - पौधों का दैवीकरण एवं मानवीकरण का वृतान्त मिलता है, जिसमें माता-सीता के अपहरण के बाद भगवान श्रीराम के वियोग में विलाप करते देख ’वन देवताओं’ की आँखों में आँसू भर आने का वृतान्त है।
 
सनातन धर्म पेड़ - पौधों और वनस्पतियों में ’देवत्व’ को प्रतिष्ठित करके उन्हें चिरस्थायी संरक्षण प्रदान करता है। वामन पुराण देवी - देवताओं से पेड़ - पौधों और वनस्पतियों की उत्पत्ति बताते हुए कहता है कि, विष्णु की नाभि से कमल, कामदेव से कदम्ब, लक्ष्मी से बिल्व, शिव से धतुरा, गणपति से सेन्दुवार, शेषनाग से सरपत, पार्वती से कुन्दलता, ब्रह्मा से खैर, मणिभद्र यक्ष से बरगद (वट), कात्यायनी से शंमी, वासुकी नाग से दूर्वा, विश्वकर्मा से कटैया, यमराज से पलाश, स्कन्द से बंधूजीव की उत्पत्ति हुई है। अग्नि पुराण और मत्स्य पुराण में ’वृक्षारोपण’ और ’वृक्षोत्सव’ का वृतान्त मिलता है, जिसमें ’वृक्षारोपण’ को समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला, स्वर्ग के समान फल देने वाला, भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला कहा गया है।
 
बृहदारण्यक उपनिषद् में मनुष्य और पेड़ - पौधों को एक समान मानते हुए। वृक्ष को पुरूष समान चेतन प्राणी माना गया है और जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में रोएँ होते है, वैसे ही वृक्षों के पत्ते होते हैं, जैसे मानव शरीर में त्वचा होती है, वैसे ही वृक्षों में छाल होती है। जिस प्रकार मनुष्य की त्वचा में चोट लगने पर खून (रक्त) निकलता है, ठीक वैसे ही वृक्षों को चोट लगने पर रस निकलता है। जिस प्रकार मनुष्य की उत्पत्ति बीज (वीर्य) से होती है, उसी प्रकार वृक्ष भी बीज से उत्पन्न होता है।
 
वस्तुतः भारतीय ज्ञान परंपरा में सर्वत्र पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों के संरक्षण की बात करते हुए, उन्हें नष्ट करने या काटने को प्रतिबंधित करती है। स्कंद पुराण में सभी प्रकार के पेड़ों को काटना निन्दनीय बताया गया है। इसीलिए भारतीय धर्मग्रंथों वनस्पतियों में देवत्व की अवधारणा का विकास हुआ। ऋग्वेद में ’वनस्पतियों में मातृत्व’ रूप प्रतिष्ठित करते हुए, उन्हें कभी न नष्ट करने की बात कही गयी हैं। मनु ने भी वनस्पतियों के संरक्षण का विधान बनाते हुए कहा है कि ईंधन के निमिŸा भी हरे-भरे वृक्षों को काटना पाप है। पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों को नष्ट करने पर दण्ड का विधान मनुस्मृति में प्राप्त होता है। इस प्रकार भारतीय ज्ञान परंपरा पर्यावरण का महान कोश है।