- हितानंद शर्मा
भारतवर्ष का गौरवमयी इतिहास हमारे वर्तमान के साथ सदैव गतिमान हो सतत चलता ही रहता है। विस्मृतियां भले ही इस गौरव गाथा को थोड़ा धुंधला कर देती हों किंतु इनका अस्तित्व सदैव स्थायी रहता है। स्थानीय समाज अपने इस स्वगौरव को स्मरण करने में समय लगा दे किंतु पत्थरों पर रचा-बसा इतिहास अधिक समय तक मौन नहीं रह सकता और स्वयं ही मुखर होकर अपनी आत्मकथा मानों सबके समक्ष कहने को प्रस्तुत हो जाता है। ऐसे ही शौर्य, पराक्रम, सतीत्व, समर्पण व स्वाभिमान की गाथा को स्वयं ही मुखरित होकर कहने वाला स्थान है रायसेन का किला, जिसे सोमेश्वर धाम के नाम से भी जाना जाता है।
मेरे प्रचारक जीवन ने संभवतः मेरे जीवन में कुछ संग्रहणीय दिया है तो वह है उन स्थानों पर रहते संग्रह की गईं पावन स्मृतियां। इतिहास का जिज्ञासु छात्र होने के नाते व परम वैभवशाली भारत को बौद्धिकों में सुनते और समझते ही नहीं हर स्थान पर साकार होते हुए देखने-जानने की कामना ने सदैव ही हर उस स्थान से आत्मीय लगाव उत्पन्न किया जहां-जहां संगठन की योजनानुसार मेरा रहना हुआ।
विदिशा विभाग प्रचारक होने के नाते पहली बार अपने क्षेत्र की परिचय प्रवास योजना में जब रायसेन जाना हुआ कार्यालय से ही बाहर देखते हुये उंचाई की ओर खड़ा किला मानो मूक होकर भी अपने संताप को संवाद की भाषा देकर आमंत्रित सा करता दिखाई दिया। बाद में तीन-चार वर्षों में तो सतत प्रवास, बैठकों व रुकने के कारण किले पर अनेक बार जाना हुआ। वर्ष में एक बार महाशिवरात्रि पर ही खुलने वाले सोमेश्वर मंदिर के अतिरिक्त इस किले की एक और पहचान थी जिसे स्थानीय लोग कम ही जानते थे, वह थी सात सौ से अधिक क्षत्राणियों के अग्निस्नान की अनकही गौरव गाथा। यह गौरव गाथा इतिहास के जानकार कुछेक लोगों एवं स्थानीय गजेटियर में छपी होने के अतिरिक्त साधारणत: किसी को भी पता न थी।
सामान्य समाज जब जब अपने इतिहास को भूलने लगता है तो उसके स्वत्व एवं स्वाभिमान पर तब-तब चोट लगने लगती है। रायसेन के किले के साथ भी ऐसा ही हुआ। अपनी क्षत्राणियों के आत्म गौरव से पूर्ण जौहर की ज्वालाओं को समेटे इस किले से जिस रायसेन की पहचान होनी चाहिए थी, वह किसी और कारण से जाना जाने लगा।
खैर, प्रयत्न करने पर किले के बारे में जैसे-जैसे जानकारी बढ़ती गयी वैसे ही उसके प्रति श्रद्धा व सम्मान की भावना भी बढ़ती गयी। एक तिथि जिसने इस किले की कहानी को गौरव प्रदान किया वह है 6 मई 1532। इस दिन रायसेन के इस अजेय दुर्ग में भी चित्तोड़ और चंदेरी के समान ही 700 से अधिक वीरांगनाओं ने अग्नि में प्रवेश कर न केवल अपने सतीत्व एवं स्वत्व की रक्षा की थी अपितु विधर्मियों को अवगत कराया था कि भारत की बेटियां जन्म किसी भी स्थान पर लेती हों किंतु अपने शील की रक्षा हेतु प्राणों की परवाह नहीं करती।
चित्तोड़ की रानी पद्मावती के समान ही रानी दुर्गावती का संबंध भी उसी राजवंश से था वह मेवाड़ के महाराजा राणा सांगा की पुत्री थीं और उनका विवाह रायसेन के तोमर राजा शिलादित्य से हुआ था। 1531 में विजय की कामना लिए एक संयुक्त अभियान के चलते गुजरात के सुलतान बहादुर शाह, मेवाड़ के राणा सांगा व रायसेन की शिलाजित्य की सेना ने मालवा के अधिकांश भागों को जीत लिया। समझौते के अनुसार शिलादित्य को उज्जैयिनी व सारंगपुर के सूबे मिलने थे किंतु मालवा विजय के उपरांत बहादुर शाह को लगा कि शिलादित्य और अधिक सामर्थ्यवान होकर मेरे लिये घातक हो सकता है इसलिए सुलतान ने अपनी योजना बदलकर शिलादित्य को रायसेन का किला खाली कर उसे सौंपने और वापिस बड़ौदा जाने को कहा। पराक्रमी शिलादित्य इस बात से सहमत नहीं हुए। बहादुर शाह ने इस विषय पर चर्चा करने के लिये शिलादित्य को अपने कैंप में बुलाया और धोखे से उसे मांडू में कैद कर लिया। कुछ दिनों बाद 1532 में बहादुर शाह ने रायसेन पर चढ़ाई कर किले को घेर लिया उस समय महल रानी दुर्गावती और शिलादित्य के छोटे भाई लक्ष्मण राय के संरक्षण में था। लगातार कई महीनो की घेराबंदी के बाद भी बहादुर शाह किले में सेंध नही लगा पाया तो षड़यंत्र पूर्वक शिलादित्य को अकेले ही किले में प्रवेश करा कर अपने भाई लक्ष्मण राय से आत्म समर्पण करने के लिये कहलवाया। रानी दुर्गावती ने किसी भी परिस्थिति में न झुकने की बात करते हुए शिलादित्य को भी हार मान लेने पर क्रोधवश होकर बहुत भला बुरा कहा जिससे राजा शिलादित्य का स्वाभिमान पुनः जागृत हुआ। उसने अपने भाई लक्ष्मण राय के साथ मिलकर युद्ध करने का निर्णय लिया।
महीनों चली घेराबंदी के कारण महल में खाद्य सामग्री का अभाव होने लगा अपनी पराजय निश्चित जान शिलादित्य और भाई लक्ष्मण राय ने प्रत्यक्ष युद्ध करना तय किया और रानी दुर्गावती ने विधर्मी को अपना शरीर स्पर्श न करने देने के भाव के साथ सात सौ क्षत्राणियों के साथ मिल अग्नि स्नान करना तय किया। जौहर करने से पहले पति शिलादित्य व देवर लक्ष्मण राय का तिलक कर अंतिम श्वांस तक युद्ध करने का वचन लिया। दोनों भाई बड़ी ही वीरतापूर्वक युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुए और रानी दुर्गावती ने 6 मई 1532 को अपनी सखियों के साथ जौहर कर अपने स्वत्व एवं सतीत्व की रक्षा की।
रायसेन का यह ऐतिहासिक किला आज भी क्षत्राणियों के इस जौहर की जीवंत कहानी कहता है। जैसे रानी पद्मावती और चंदेरी की रानी मणिमाला के जौहर को हम सबने स्वाधीनता के अमृतकाल में पुस्तकों के पृष्ठों से निकाल उन सभी स्थानों पर एकत्रित आकर श्रद्धा सुमन अर्पण करना आरंभ किया है, ठीक वैसे ही कुछ युवाओं ने रायसेन के जौहर की स्मृतियों को भी समाज के मध्य सांझा करने का विगत कुछ वर्षों से प्रयत्न किया है। इसके बाद भी यह प्रयत्न बहुत अल्प हैं। हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने आत्म गौरव का सम्मान करते हुये न केवल अपने इन श्रद्धा के केन्द्रों का संरक्षण, संवर्धन, सम्मान व धरोहरों को संजोएं अपितु इन स्थानों, वीरांगनाओं के शौर्य को अपनी आने वाली पीढि़यों के समक्ष एक त्योहार के समान ही रखें यही हमारी सच्ची पूजा होगी। एक बार पुनः अपनी स्मृतियों के झरोंखे से रायसेन के किले की रज को प्रणाम करते हुए। मैं उन सभी क्षत्राणियों के श्री चरणों में सादर नमन करता हूं जिन्होंने राष्ट्र रक्षा व अपनी आन बचाने आज ही के दिन प्राणों का उत्सर्ग किया था।