संघ नींव में विसर्जित एक पुष्प -- आशाराम जी

17 May 2023 16:11:21

asharam ji kushwaha

प्रचारक और विदिशा विभाग के पूर्व विभाग शारीरिक प्रमुख स्व. आशाराम जी का जन्म विदिशा जिले की तहसील सिरोंज में सन 1965 में एक सामान्य परिवार में हुआ। बचपन में ही जब खेलने कूदने यहां वहां जाया करते थे, लगभग 10 वर्ष की आयु में वह तत्कालीन जिला प्रचारक श्री मोंगिया जी के संपर्क में आए और मोंगिया जी ने उनका शाखा से परिचय कराया। खेल खेल में ही आशाराम जी संघ में ऐसे रमे कि बस फिर संघ के ही होकर रह गए। देखते ही देखते वह नगर की कटरा शाखा में गटनायक, गणशिक्षक, मुख्यशिक्षक कार्यवाह, नगर शारीरिक प्रमुख आदि दायित्वों का निर्वहन करने लगे, ज्यों ज्यों समय बढ़ता गया दायित्व भी बढ़ते चले गए।

 

साल 1982 से 1994 तक सिंरोज संघ कार्यालय ही आपका निवास बिंदु रहा। साल 1984 में उज्जैन से आपका प्रथम वर्ष का संघ शिक्षा वर्ग सम्पन्न हुआ। जब स्व. अरविंद जी कोठेकर जिला प्रचारक व स्व. गोपाल जी येवतिकर विभाग प्रचारक थे। वहीं आपका घोष से परिचय हुआ। तत्पश्चात आपको तहसील शारीरिक प्रमुख का दायित्व सौंपा गया, कालान्तर में साल 1991 में द्वितीय वर्ष के प्रशिक्षण के बाद आपको जिला घोष/शारीरिक प्रमुख का दायित्व भी सौंपा गया। शारीरिक विभाग का ही एक महत्वपूर्ण अंग है घोष..... और यहीं से उनकी घोष के लिए अनथक, अविरत, सतत साधना का प्रारंभ हुआ।

 

90 के दशक के मध्य के साथ ही वह घोष में सक्रिय हो गए... आनक, वंशी आदि में आप कई रचनाओं के जानकार/सिद्धहस्त थे। जिला शारीरिक/घोष प्रमुख होने के नाते आप सतत प्रवास किया करते थे। शाखाओं के निरीक्षण पश्चात वहां के घोष वादकों के परिचय, प्रशिक्षण आदि आपके अनिवार्य कार्य बन गए। रात्रि कालीन नैपुण्य वर्ग द्वारा स्वयंसेवकों को घोष की गहनता से परिचय कराना, वाद्यों से परिचय कराना, वादन की बारीकियां स्वयसेवकों को सिखाना/समझाना आदि का आप पूर्ण ध्यान रखते थे।

 

इसी दौरान उन्होंने गंजबासौदा, सिंरोज, कुरवाई में निपुण घोष वादकों के दल तैयार किए। उस समय सिंरोज नगर का घोषदल विशेष आयोजनों पर सम्पूर्ण विभाग में जाता था। 1990-92 में वह अन्य साथी स्वयंसेवकों के साथ श्रीराम मंदिर कारसेवा में भी सहभागी बने। जन्मभूमि अयोध्या कूच के समय उन्हें बाँदा(उप्र.) में पुलिस अभिरक्षा में लिया गया। वर्ष 1992 में विवादित ढांचा ढहने के बाद संघ पर पुनः प्रतिबंध लगा दिया गया, जिसके बाद सक्रिय स्वयंसेवक होने के कारण पुलिस उन्हें खोजती थी परन्तु उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में रहकर संघकार्य की ज्योति जलाए रखी।

 

वर्ष 1993 में पुनः प्रतिबंध हटने के बाद वह सक्रिय हुए। उसी वर्ष प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थल सेमलखेड़ी में जिले का प्राथमिक वर्ग आयोजित किया गया जिसमें लगभग 275 स्वयसेवकों ने भाग लिया वह उसके मुख्यशिक्षक बने, साल 1997 में भी गंजबासौदा में आयोजित प्राथमिक वर्ग के भी वह मुख्यशिक्षक बने। वर्ष 1995 में वह प्रचारक के रूप में निकले। वह साल 2000 तक गंजबासौदा, बरेली आदि में रहे। वर्ष 2000 के लगभग उनका केंद्र विदिशा हुआ। उसके बाद उन्होंने विदिशा के साथ ही गुलाबगंज, ग्यारसपुर में संघ कार्य, घोषदलों आदि का विस्तार किया। घोष वादकों के लिए रात्रि प्रवास करके वहां भी घोष वादकों को प्रशिक्षण प्रदान करते थे।

 

उन्होंने समूचे विदिशा विभाग में अगणित स्वयंसेवकों को घोष का प्रशिक्षण प्रदान किया, सिंरोज, बासौदा, कुरवाई, विदिशा, रायसेन, बरेली, गुलाबगंज, ग्यारसपुर आदि में घोषदल तैयार किए। कई नगरों में एक से अधिक घोषदल भी तैयार किए जिनमें एक प्रगत वादकों का होता था दूजा नए वादकों का.... इस तरह नए नए स्वयसेवक लगातार घोष का प्रशिक्षण और वादन करते थे। उनके समय विदिशा एक प्रसिद्ध घोष केंद्र बन गया, जिसके उदाहरण समस्त प्रान्त में चर्चा का विषय बनते थे। 2009 में गुलाबगंज, 2011 में कुरवाइ में घोष के प्रथमिम वर्ग उनके मार्गदर्शन में आयोजित किए गए। वहीं साल 2011 में ही विदिशा में प्रान्त का 3 दिवसीय घोष शिविर भी आयोजित किया गया।।

 

वह हर वर्ष संघ शिक्षा वर्गो में घोष शिक्षक के नाते उपस्थित रहते थे। वह आनक में 40 से अधिक रचनाओं में सिद्धहस्त थे। वर्ष 2013 में वह सीहोर के 15 दिवसीय घोष वर्ग में भी शिक्षक के रूप में पहुंचे। सम्भवतः यह उनका अंतिम वर्ग था। उससे लौटने के बाद वह पुनः विभाग के एक घोष वर्ग की तैयारियों में जुट गए..... लेकिन क्रूर नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक ओर घोष वर्ग की तैयारियां जारी थीं, वहीं दूसरी ओर विदिशा नगर में प्रथम वर्ष जाने वाले स्वयसेवकों कि तैयारियां वह करा रहे थे। 17 मई 2013 की वह सुबह अब कोई स्वयंसेवक कभी न भूलेगा। भाईसाहब प्रथम वर्ष वाले स्वयसेवकों की समता का निरीक्षण करके नगर में निकले थे तभी उन्हें अचानक हृदयाघात आया और उन्होंने यह नश्वर शरीर संघ कार्य करते हुए ही त्यागा। स्व. भाईसाहब उन पंक्तियों को सार्थक कर गए...

"जीवन पुष्प चढ़ा चरणों में, मांगे मातृभूमि से यह वर

तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें।।"

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