एकात्म का मार्ग प्रशस्त करने वाले आचार्य श्री शंकर

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    25-Apr-2023
Total Views |
shankaracharya
 
परेश गुप्ता-
 
वेदान्त - सिद्धान्त - निरुक्ति-रेषा ब्रह्मैव जीवः सकलं जगच्च । अखण्ड-रूप-स्थितिरेव मोक्षो ब्रह्मा द्वितीयेश्रुतराः प्रमाणम् ।।
 
विवेक-चूड़ामणि, श्लोक 479 'वेदान्त-सिद्धान्त की यह घोषणा है कि ब्रह्म ही जीव है और सारा जगत् भी केवल ब्रह्म ही है। उस अद्वितीय अखण्ड ब्रह्म-रूप से स्थित हो जाना ही मोक्ष है। ब्रह्म अद्वितीय है—इस विषय में श्रुतियाँ प्रमाण हैं।'
 
जीवनी
 
एक आदर्श बालक में सहज विश्वास के साथ अथक जिज्ञासा भी होती है। वह तन्मय होकर सीखता ही जाता है। उसमें सदा एक अपार विस्मय बना रहता है। वह जिस लक्ष्य को अपना लेता है उसको भूलता नहीं। लक्ष्य का निश्चय करके वह तुरन्त उसे पूरा करने में जुट जाता है। वह धीर होता है और किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता।
 
इन सब गुणों से युक्त श्रीशंकर एक विलक्षण बालक थे। उनमें आदर्श बालक के गुण पराकाष्ठा पर थे। चार वर्ष की आयु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। उन्होंने मृत्यु को निकट से देखा। मृत्यु क्या होती है? क्यों होती है? मृत्यु से परे क्या है? मृत्यु पर विजय कैसे? ये सब प्रश्न उनके मन में उठे।
 
उस छोटी सी उम्र में ही इन सब जिज्ञासाओं के बीज उनके कोमल चित्त में अंकुरित हो गये। इसके बाद वे माँ से भी अलग होकर गुरुकुल गये। विद्या प्राप्त करना ही उनका ध्येय था। लगभग तीन वर्षों में उन्होंने चारों वेदों व वेदांगों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। कितनी तीव्र लगन थी उनमें !
 
बाल शंकर की गुरुसेवा भी अद्वितीय थी। गुरु पर आपत्ति आई तो उन्होंने नर्मदा नदी को ही कमण्डल में समेट लिया। सर्वज्ञ होते हुए भी उन्होंने गुरु की सभी आज्ञाओं को नम्रतापूर्वक शिरोधार्य किया और इसी दृष्टि से वे 12 साल की उम्र में शास्त्रों की व्याख्या करने लगे।
 
मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव इन धर्मानुशासनों को पूरा करके अतिथि देवो भव के पालनार्थ मानव मात्र को अतिथि मानकर उनकी सेवा में अपने आपको उँडेल दिया। प्रचारार्थ दिग्विजय के वर्षों में भी उनका सारा जीवन पूजा, अर्चना, स्तुति व प्रार्थनामय रहा था।
 
श्रीशंकर जन्मसिद्ध शिक्षक थे। आठ वर्ष की आयु में गुरुकुल का अध्ययन पूर्ण करके उन्होंने वेद पढ़ाना शुरू कर दिया था। यह कार्य वे बिना किसी लोभ के करते थे। केरल के राजा ने उनको पद का लोभ दिया, सम्मान और यश का लोभ दिया, अपार धन का लोभ दिया किन्तु वे उसमें फँसे नहीं।
 
आचार्य श्रीशंकर के पूर्व ही कुमारिल भट्ट आदि ने बौद्ध धर्म की भारत के लिये अवांछनीयता सिद्ध करके वेद की प्रतिष्ठा कर दी थी। किन्तु बौद्धों के कुप्रभाव से राष्ट्र विघटित हो चुका था, समाज निर्बल हो गया था व धर्म खोखला हो चुका था।
 
उस समय एक अभाव की स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी। इन सबको दूर करने के लिये आचार्य श्रीशंकर ने अद्वैत वेदान्त का अवलम्बन लेकर राष्ट्र का आह्वान किया तो पूरा राष्ट्र उठ खड़ा हुआ। उसमें नूतन प्राणों का संचार हुआ। अद्वैत वेदान्त के अनुसार जीव, जगत् व जगत्कर्ता ईश्वर इन तीनों का आधार ब्रह्म है, और वही सबकी आत्मा है।
 
उनके द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदान्त वेद, युक्ति व अनुभूति पर आधारित होने के कारण सभी मत वालों को इसे मानना पड़ा। इसी के साथ आचार्य शंकर ने अध्यात्म प्रेरणा के केंद्र रूप में चारा मठों की स्थापना की, दक्षिण में श्रृंगेरी मठ,पश्चिम में शारदा मठ, पूर्व में गोवर्धन मठ एवं उत्तर में ज्योतिर्मठ की स्थापना की।
 
समय के साथ आचार्य श्रीशंकर महामौन में अधिकाधिक समाहित होते जा रहे थे। शिष्य गण श्रीगुरु की स्थूल सन्निधि के अभाव की कल्पना करके शोक से अभिभूत हो रहे थे। करुणासागर श्रीगुरु ने 'उपदेश पंचक' स्तोत्र का श्रवण करवा कर उन्हें शान्ति प्रदान की। अन्त में आचार्य श्रीशंकर, उन्हें व समस्त मानवता को सदा के लिए शान्ति, स्नेह व आशीष से आप्लावित करते हुए केदारेश्वर के ऊपर अवतरित अनन्त, अखण्ड, दिव्य नीलाम्बर के विस्तार के साथ तन्मय हो गए।
 
आचार्य श्रीशंकर का अद्वैत वेदांत
ब्रह्म सत्यं जगन्नमिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः”।
 
ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है और आत्मा ब्रह्म का ही रूप है ; आत्मा और ब्रह्म में द्वैत का भाव नहीं है । अद्वैत वेदांत दर्शन में ब्रह्म ही परमतत्व है,उससे अलग संसार में कोई वस्तु नहीं है ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ के माध्यम से आचार्य ने बताया है कि संसार में जो भी है ‘सब ब्रह्म ही है’ । आचार्य श्री शंकर ने उपनिषदों के माध्यम से चार महावाक्य दिए हैं।
 
अहं ब्रम्हास्मि (मैं ब्रह्म हूँ)
तत्वमसि (वह ब्रह्म तू है)
अयं आत्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है)
प्रज्ञान ब्रह्म (वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है)
 
यह महावाक्य अद्वैत को प्रतिपादित करते हैं । आचार्य श्री शंकर कहते हैं ब्रह्म स्वयं प्रकाश मान है । निर्गुण और निष्क्रिय है । दिव्य और अनंत है । वह तो सत चित आनंद स्वरूप है तथा प्रमाण के द्वारा ज्ञेय नहीं है । वह तो एक मात्र ऐसी सत्ता है जो त्रिकाल अबाधित है भूत भविष्य और वर्तमान में कभी भी उसका निषेध नहीं हो सकतासकता। संपूर्ण विश्व परिवर्तनशील है लेकिन ब्रह्म तो सभी परिवर्तनों और भेदों से रहित है , वह निर्गुण है, निरपेक्ष है, निर्विशेष है तथा मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है ; उसे तो स्वयं ब्रह्म होकर ही जाना जा सकता है।
 
अद्वैत वेदांत में ब्रह्म के दो ही के स्वरूपों को माना गया है - नामरूप आदि उपाधियों से युक्त सगुण ब्रह्म और समस्त उपाधियों से रहित निर्गुण ब्रह्म। तात्विक दृष्टि से देखें तो दोनों एक ही हैं दोनों में कोई भेद नहीं। ईश्वर ही जगत का पालक सृष्टि कर्ता एवं संहार करता है, वह सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और लय का कारण भी वही ही है । वही धर्माध्यक्ष है । वही जगदीश्वर है । माया ईश्वर की स्वाभाविक सृजनात्मक शक्ति है ,इसके द्वारा वह विविधता पूर्ण जगत का सृजन करता है । ईश्वर तो अनंत है , वे नित्यतृप्त हैं। ब्रह्म ही जगत का निमित्त तथा उपादान कारण है क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है व्यावहारिक दृष्टि से माया उपादान कारण और इस पर ब्रह्मा निमित्त कारण है।
 
आत्मा और माया
 
अद्वैत वेदांत के अनुसार आत्मज्ञान का विषय नहीं है । वह तो स्वयं ज्ञाता है । स्वयं दृष्टा है । चेतना आत्मा का गुण नहीं है वास्तव में आत्मा निर्गुण अर्थात ब्रह्म ही है। चेतना तो आत्मा का स्वरूप है। आत्मा विभु है। अद्वैत है। निरवयव है। ब्रह्म और आत्मा एक ही है , अविद्या जनित इस शरीर के कारण हमें आत्मा सीमित जीवात्मा की तरह प्रतीत होती है। आत्मा ज्ञान स्वरूप भी है और ज्ञाता भी है।
 
अज्ञान के कारण रस्सी में भी सर्प का भ्रम होता है और रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प तिरोहित हो जाता है उसी प्रकार माया जोकि ब्रह्म की ही शक्ति है के प्रभाव से ब्रह्म का वास्तविक निर्गुण रूप छिप जाता है और जगत और सत्य प्रतीत होने लगता है। अज्ञानता से उत्पन्न यही द्वैत का भाव बंधन और दुखों का कारण है जैसे ही धर्म के वास्तविक स्वरूप को हम जान लेते हैं भेद मिट जाता है और 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' का भाव जागृत हो जाता है। इस प्रकार आत्मज्ञान को ब्रह्म ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है।
 
आचार्य श्री शंकर ने इस जगत से निवृत्ति के लिए प्रस्थानत्रयी का वर्णन भी किया है जिसमें उपनिषद, श्रीमद्भगवतगीता एवं ब्रह्मसूत्र आते हैं। इनमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, श्रीमद्भगवद्गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान भी कहा जाता।
 
आचार्य श्री ने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। आचार्य श्री की मुख्य कृतियों में तत्वबोध, आत्मबोध, विवेकचूड़ामणि एवं निर्वाणषट्कम आदि प्रमुख प्रकरण ग्रंथ तथा कलभैरवाष्टक, नर्मदाष्टक, कनकधरास्त्रोतम, महिसासुरमर्दिनी स्तोत्रम एवं अच्युताष्टकं प्रमुख स्रोत हैं। आचार्य श्री ने भज गोविन्दम स्त्रोत की रचना करके यह बताया है कि इस संसार व शरीर के मोह में न पड़कर हमें सदैव ही भक्ति मार्ग पर चलना चाहिए।
 
इनमें से दो महत्वपूर्ण प्रकरण ग्रंथ हैं तत्वबोध और आत्मबोध आचार्य श्री तत्वबोध के प्रथम श्लोक में कहते हैं
 
“वासुदेवेन्द्रयोगीन्द्रम नत्वा ज्ञानप्रदं गुरुम्।
मुमुक्षुणां हितार्थाय तत्वबोधोविधीयते ।।
  
"वासुदेव रूप परमात्मा से अभिन्न ज्ञानप्रद गुरुदेव श्री गोविंद योगीन्द्र भगवत्पाद को प्रणाम कर मुमुक्षुओं के हित में मोक्षसाधन ज्ञान प्राप्ति के लिए तत्वबोध का उपदेश किया जाता है तत्वज्ञान प्रतिपादक होने से ग्रंथ का नाम तत्वबोध है।"
  
इस ग्रंथ में ही आचार्य श्री द्वारा प्रस्थानत्रयी, साधन चतुष्ट्य, षटसम्पत्ति, सूक्ष्म, स्थूल एवं कारण शरीर के विषय में बताया है।
 
आचार्य श्री आत्मबोध के प्रथम श्लोक में कहते हैं -
तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणाम्।
मुमुक्षूणामपेक्ष्योऽयमात्मबोधो विधीयते ।।
 
अर्थात "तपों के अभ्यास द्वारा जिन लोगों के पाप क्षीण हो गये है, जिनके चित्त शान्त और राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हो गये है, ऐसे मोक्ष प्राप्ति की तीव्र इच्छा रखनेवाले साधकों के लिए ‘आत्मबोध' नामक इस ग्रन्थ की रचना की जा रही है। आत्मबोध में आचार्य श्री द्वारा पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों, पंच प्राण, मन, बुद्धि, पांच महाभूत के विषय में बताया है ।"
 
आचार्यश्री शंकर-प्रदत्त बल के कारण ही यह राष्ट्र उनके बाद में हुए बाहरी आक्रमणों से भौतिक दृष्टि से हार कर भी अपनी आध्यात्मिक निधि को सुरक्षित रख सका।
 
वर्तमान में भारत में पन्थ, भाषा, जाति आदि को लेकर जो एक संत्रास, भय व आतंक की स्थिति है, उसके निवारण के लिये यदि आचार्यश्री शंकर की दृष्टि, उनके आदर्श व उनकी प्रक्रिया को अपनाया जाए तो हमें निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी। आचार्यश्री का अनुकरण करने से व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक संकट टलेंगे और देश की सर्वतोमुखी उन्नति होगी।
 
सदाशिवसमारम्भां शङ्कराचार्यमध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे गुरु परम्पराम्॥