जब अपनी भाषा पर गर्व हो तो कोई भी कार्य असंभव नहीं

20 Feb 2023 18:16:47
मातृभाषा
निखिलेश महेश्वरी-
 
प्रत्येक देश की अपनी एक विशिष्ट पहचान होती है जो उस देश की संस्कृति में समाहित होती हैं। जो संस्कृति द्वारा स्थापित जीवन मूल्य, संस्कार और परंपराएं रीतिरिवाज के रूप में दिखाई देते हैं। भाषा भी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए समाज में बोली जाने वाली भाषा का भी अपना महत्त्व होता है, जो निर्विवाद है। लोगों का एक-दूसरे से जुड़ने का सशक्त माध्यम उनकी बोली या भाषा होती है, जो उनके बीच आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करती है। इसे आज हम सामान्य बोलचाल में मातृभाषा या अंग्रेजी भाषा में Mother tongue भी कहते हैं।
 
वैश्वीकरण के इस दौर में बेहतर रोजगार के चक्कर में विदेशी भाषा सीखने की होड़ चल पड़ी है जिसके चलते विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। सोचने की बात है कि क्या हमारी अपनी मातृभाषा इतनी कमजोर हो गईं है कि अपने दैनंदिन बोलचाल और कार्य-व्यवहार में हिन्दी के स्थान पर अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी के अनावश्यक अप्रचलित एवं कठिन शब्दों का उपयोग कर अपने को श्रेष्ठ बताने का प्रयास करते दिखते हैं। जबकि अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी स्वयं में एक अत्यंत समृद्ध भाषा है।
 
किसी अन्य भाषा के शब्दों को उधार लिए बिना हम अपने विचार को हिंदी में बहुत सहजता से अभिव्यक्त कर सकते हैं। इसके प्रत्येक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध हैं। यह सर्वविदित है कि जो व्यक्ति अथवा समाज उधार पर जीवनयापन करता है, वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहता। इसी प्रकार जो भाषा उधार के शब्दों पर अवलंबित हो जाती है, उसका अस्तित्व शीघ्र समाप्त हो जाता है। अतः हमें अंग्रेजी, अरबी, फारसी, उर्दू के उन शब्दों का उपयोग करने से बचना चाहिए, जिनके अर्थ तक वास्तव में हम नहीं जानते हैं।
 
मातृभाषा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अपने संस्कार, जीवन मूल्य को हस्तांतरित करती हैं। मातृभाषा में रचित साहित्य, कहावतें, मुहावरे, गीत और कथाएं मनुष्य के जीवन को निरंतर प्रेरित करती हैं। भाषा विज्ञानी भी यह स्वीकार करते है कि अन्य भाषाएं यह कार्य नहीं कर सकतीं। मातृभाषा वास्तव में हमें जड़ों और जमीन से जोड़ती है। मातृभाषा के द्वारा ही व्यक्ति अपनी मातृभूमि से जुड़ता है। मातृभाषा में रचित राष्ट्र भक्ति गीत मातृभूमि के लिए बलिदान होने ओर देश के लिए कुछ करने की प्रेरणा देते हैं।
"जिसको न निज देश, धर्म , निज भाषा का अभिमान है ।
 
वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान हैं।।"
  
भाषा स्वाभिमान का सबसे बड़ा उदाहरण इसराइल है। जब सन 1948 में सैकड़ो वर्ष के विस्थापन के पश्चात यहूदियों को अपना देश प्राप्त हुआ तो उन्होंने बिना समय गंवाए प्रथम दिन से हिब्रू को अपनी राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। यहूदियों को अपने देश से पलायन कर अलग-अलग देशों में रहना पड़ा था। उस देश की भाषा को अपनाना पड़ा जिसके परिणामस्वरूप हिब्रू भाषा विस्मृत होती चली गई।
 
जब अपनी भाषा पर गर्व हो तो कोई भी कार्य असंभव नहीं, इसराइल ने अपनी संकल्प शक्ति के बल पर यह संभव करके दिखाया। रूस में जन्में एक यहूदी एलिज़र बेन यहूदा जिनके मन में अपनी मूल भाषा हिब्रू को पुनः जीवित करने का विचार आया। बेन यहूदा ने हिब्रू को आपसी संवाद की भाषा बनाने का विचार यहूदियों के सामने रखा। प्रारंभ में तो लोगों ने उनका मजाक उड़ाया ओर कहा बेन यहूदा पागल हो गया है। लोगों को लगता था जो भाषा लुप्त हो गई उसमें संवाद कैसे संभव हैं? बाइबिल में जरूर कुछ अंश हिब्रू भाषा के सुरक्षित थे।
 
सामान्य यहूदी तो उस समय न उसका अर्थ समझते थे, न उसका ठीक से उच्चारण कर सकते थे, तो फिर उसके प्रयोग की बात कैसे सोच सकते थे? स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही थी जैसी आज हमारे यहा अँग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त बच्चों की संस्कृत के सन्दर्भ में होती जा रही है। बेन यहूदा ने इन सब आलोचनाओं की परवाह किए बगैर समाज के सामने तीन करणीय बातें रखी –
 
(1) घर में हिब्रू भाषा का प्रयोग,
(2) शिक्षा के माध्यम के रूप में हिब्रू भाषा का प्रयोग,
(3) आवश्यकता के अनुसार हिब्रू भाषा के नए शब्दों का निर्माण।
 
बेन यहूदा ने कहा ही नहीं, हिब्रू भाषा की शुरूआत अपने घर से प्रारंभ की। वह इसके इतने आग्रही थे की अपने बच्चे के जन्म से ही उसके कानों में हिब्रू भाषा के अलावा अन्य कोई भाषा का शब्द न जाए इसका वह प्रयास करते हैं। इसलिए जब कोई उनके घर आता, जो हिब्रू नहीं बोलता तो वह अपने बच्चे को अन्य कमरे में भेज देते थे। एक बार उनकी पत्नी ने बच्चे को सुलाते समय रूसी भाषा में लोरी सुनाई तो बेन यहूदा ने हंगामा खड़ा कर दिया था। यह बात उनके बेटे ने अपनी आत्मकथा में लिखी है। शिक्षा में हिब्रू को माध्यम बनाने में अनेक कठिनाइयां थीं। इसके समाधान के लिए उन्होंने एक समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसमें वह अपने द्वारा बनाए गए हिब्रू के नवनिर्मित शब्दों को छापते थे, इसे विश्व भर में फैले यहूदी लोग रुचि‍ से पढ़ते थे।
 
इस प्रकार बेन यहूदा शब्द निर्माता, शिक्षक ओर नेता की एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते रहे। उनके संकल्प के कारण जो लोग उनकी आलोचना और उपहास करते थे वह भी उनके इस नीज भाषा स्वाभिमान के आंदोलन में सहभागी होते गए। उनके समाचार में पत्र में प्रकाशित उनके द्वारा नव निर्मित शब्दों का संकलन कर उन्होंने 12 खण्डों का एक विशाल शब्दकोश "ए कम्प्लीट डिक्शनरी आफ ऐन्शिएँट एँड माडर्न हिब्रू" के रूप में तैयार किया। उसमें जो कमी रह गई थी, उसको उनकी पत्नी ओर बेटे ने पूर्ण किया जो हिब्रू भाषा का आधार बना। उन्होंने हिब्रू भाषा को लेकर अकादमी बनाई ओर उनके इन्ही सदप्रयासो से भविष्य में उनका स्वप्न साकार हो सका।
 
1922 में बेन यहूदा का 64 वर्ष की आयु में निधन हुआ लेकिन उनके निज भाषा प्रेम से पुनर्जीवित हिब्रू भाषा इजरायल राष्ट्र के उदय के साथ ही वहॉं की राष्ट्रभाषा बन सकी। भारत और इजरायल की स्वतंत्रता लगभग एक ही समय हुई लेकिन अपनी मातृभाषा प्रेम ओर स्वाभिमान के बल पर इजरायल ने हर क्षेत्र में विश्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अपनी उपस्थित दर्ज कराई है।
 
मातृभाषा के संरक्षण के लिए जो प्रयत्न हुए उनमें बांग्ला भाषा के लिए जो आंदोलन चला वह संपूर्ण विश्व को प्रेरणा दे गया। 1947 में स्वाधीनता के साथ भारत से अलग होकर पाकिस्तान अस्तित्व में आया। पाकिस्तान सरकार ने बांग्ला भाषा को मान्यता न देते हुए, पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू को बांग्ला भाषी बहुल क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में जबरन थोपा, जो पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला भाषियों को कतई मंजूर नहीं था। इसके विरोध में उन्होंने बांग्ला भाषा के रक्षण के लिए आंदोलन प्रारंभ किया।
 
21 फरवरी 1952 को ढाका में बांग्ला भाषा प्रेमी छात्र-युवाओं का एक विशाल जुलूस निकाला गया, जिसे रोकने के लिए पाकिस्तान सरकार ने निषेधाज्ञा जारी की फिर भी आंदोलनकारी नहीं माने। उस विशाल जुलूस पर पुलिस द्वारा फायरिंग की गई। इसमें अब्दुस्सलाम, रफीकुद्दीन अहमद, अबुल बरकत, अब्दुल जब्बार, सलाहुद्दीन व अताउर्रहमान आदि कई छात्र-युवा बलिदान हो गए। मातृभाषा के लिए बलिदान होने की यह विश्व इतिहास की पहली व संभवत: अंतिम घटना थी। इस आंदोलन का प्रभाव ऐसा रहा कि पाकिस्तान सरकार को झुकते हुए 1956 में बांग्ला भाषा को अपनी द्वितीय राजभाषा के रूप में स्वीकार करना पड़ा।
 
मातृभाषा के संरक्षण को लेकर हुई निर्मम हत्याओं को याद करने के लिये 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने का विचार कनाडा में रहने वाले बांग्लादेशी नागरिक रफीकुल इस्लाम द्वारा यूनेस्को को सुझाया। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के सामान्य सम्मेलन ने 17 नवंबर 1999 में 21 फरवरी को 'अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' मनाने का फैसला लिया गया।
 
यूनेस्को द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिली। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को मनाने का उद्देश्य दुनिया भर में अपनी भाषा-संस्कृति (Language culture) के प्रति लोगों के मनो में सम्मान पैदा करना और दुनिया में विभिन्न मातृभाषाओं के प्रति लोगों को जागरुक करना रहा है। अब यह दिन मातृभाषा से प्रेम करने वालों के लिए मातृभाषा का प्रतीक बन गया है।
 
एक प्रश्न हमारे सामने आता है कि क्या हम भारत की समृद्ध भाषाओं को लेकर इस प्रकार का अनुराग और स्वाभिमान पैदा नहीं कर सकते ? हमको यह विचार करना चाहिए। हमें भी उसी संकल्प शक्ति के साथ कार्य करना चाहिए क्योंकि जब भी विश्व की प्राचीनतम भाषाओं की चर्चा होती है तो सबसे पहला नाम "संस्कृत" का लिया जाता है। इसका कारण है संस्कृत में लिखा "ऋग्वेद" विश्व साहित्य में अब तक उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ है।
 
हिन्दी भाषा ओर भारतीय भाषाओं पर हमें गर्व करना चाहिए और प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में हो इसके लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। विश्व के अनेक देशों में उनकी शिक्षा अपनी मातृभाषा में दी जा रही है। एक जर्मन बच्चा अपनी मातृभाषा जर्मन (German) में ही गणित सीखता है न कि अंग्रेजी में क्योंकि जर्मन उसकी मातृभाषा है। इसी प्रकार इटली में रहने वाला बच्चा इटैलियन (Italian) भाषा और स्पेन का बालक स्पैनिश (Spanish) भाषा में सीखता है। जबकि हमारे देश में आज की पीढ़ी के बच्चे अपनी मातृभाषा में गिनती करना तक भूलते जा रहे हैं।
 
हमें उन्हे प्रेरित करना चाहिए कि वह अपनी मातृभाषा सीखें उसका प्रयोग करें। अपने बच्चों को अपनी स्थानीय भाषा और गणित तो आना ही चाहिए, जिसे वे भूलते जा रहे हैं । इससे उनके मस्तिष्क पर भी गलत असर पड़ रहा है और उनका मातृभाषा में गणित करने का स्वाभाव भी कमज़ोर हो रहा है। जबकी स्वाभाविक शिक्षण व सांस्कृतिक पोषण के लिए शिक्षा, विशेष रुप से प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होना चाहिए।
 
यह सभी जानते है कि व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अपने ज्ञान का विकास अपनी मातृभाषा में कर सकता है, उतना विकास वह अन्य भाषा के माध्यम से नहीं कर सकता। मातृभाषा में सिखाई और समझाई गई बातें वह सरलता से ग्रहण कर सकता हैं। महात्मा गांधी जी ने मातृभाषा का महत्त्व बताते हुए कहा था "मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है जितना कि बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध।
 
"मातृभाषा में शिक्षित विद्यार्थी दूसरी भाषाओं को भी सहज रूप से ग्रहण कर सकता है। प्रारंभिक शिक्षण किसी विदेशी भाषा में प्राप्त करने से जहाँ व्यक्ति अपने परिवेश, परंपरा, संस्कृति व जीवन मूल्यों से कटता है वहीं पूर्वजों से प्राप्त होने वाले ज्ञान, शास्त्र, साहित्य आदि से अनभिज्ञ होकर अपनी पहचान खो देता है । स्वामी विवेकानंद, पण्डित मदनमोहन मालवीय, रवींद्रनाथ ठाकुर, डा.भीमराव अम्बेडकर, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, ए. पी.जे.अब्दुल कलाम जैसे महान चिंतकों से लेकर चंद्रशेखर वेंकट रमन, प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र बसु जैसे वैज्ञानिकों, प्रमुख शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने भी मातृभाषा में शिक्षण को प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक बताया है। समय-समय पर गठित शिक्षा आयोगों ने भी मातृभाषा में शिक्षा को अनिवार्य करने की अनुशंसा की है।
 
दैनंदिन कार्य तथा लोक-व्यवहार में मातृभाषा को प्रतिष्ठित करने के लिए हम सभी को प्रभावी भूमिका निभानी होगी। साथ ही इस विषय में परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसलिए अभिभावक अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी भाषा में देने के प्रति दृढ़ निश्चयी हों इसके लिए उन्हें प्रेरित करना चाहिए। साथ ही वर्तमान में आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार राज्य सरकारों ने भी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य करना चाहिए। तभी हम आने वाली पीढ़ी को भारतीय ज्ञान परंपरा से जोड़कर भारत को पुनः विश्व गुरू के सिंहासन पर आरूढ़ करने में सफल होंगे ।
 
"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल।"
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