रमेश शर्मा-
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में वनवासी वीर बलिदानी बुधु भगत ऐसा क्राँतिकारी नाम है जिनका उल्लेख भले इतिहास की पुस्तकों में कम हो पर छोटा नागपुर क्षेत्र के समूचे वनवासी अंचल में लोगो की जुबान पर है। वह अंचल उन्हें दैवीय शक्ति का प्रतीक मानता है और उनके स्मरण से ही अपने शुभ कार्य आरंभ करता है। उन्होंने अंग्रेजों से गुरिल्ला युद्ध करने के लिये वनवासी युवाओं की एक सैन्य टुकड़ी गठित की थी। इस लगभग तीन सौ युवाओं की टुकड़ी का सामना करने के लिये आधुनिक हथियारों से युक्त अंग्रेजी सेना की एक पूरी ब्रिगेड ने घेरा डाला था।
बुधु भगत के नेतृत्व अंग्रेजों से मुकाबला कर रही इस टुकड़ी ने समर्पण नहीं किया अंतिम श्वाँस तक युद्ध किया और बलिदान हुये । 13 फरवरी 1832 की वह तिथि है जब बुधु भगत के नेतृत्व में यह पूरी टुकड़ी बलिदान हुई।
क्रांतिकारी बुधु भगत का जन्म 17 फरवरी, 1792 में रांची के वनक्षेत्र में हुआ था। उनके गांव का नाम सिलारसाई था। वे बचपन अति सक्रिय और चुस्त फुर्त थे बचपन से ही मल्ल युद्ध तलवार चलाना और धनुर्विद्या का अभ्यास करते थे। वे अपने साथ धनुषबाण के साथ हमेशा कुल्हाड़ी भी रखते थे । अंग्रेजों ने वनवासी क्षेत्रों में अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगा दिये थे। वनोपज पर अंग्रेज और उनके नियुक्त एजेंट कब्जा कर लिया करते थे । वनवासियों ने इसके विरुद्ध संघर्ष आरंभ किया।
वनवासियों के इस संघर्ष को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कहीं कोल विद्रोह तो कहीं लरका विद्रोह। उस काल-खंड में सभी वन क्षेत्रों में आँदोलन आरंभ हुये। सबने अपने-अपने दस्ते गठित किये और संघर्ष आरंभ हुआ। बुधु भगत के नेतृत्व में गठित वनवासी युवाओं की इस टोली ने पूरे छोटा नागपुर क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाया और अंग्रेजों का जीना मुश्किल कर दिया। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए एक हजार रुपये के इनाम की घोषणा की थी।
अंग्रेजों को उम्मीद थी कि इनाम के लालच में कोई बुधू भगत की सूचना दे देगा। पर अंग्रेजों की यह चाल सफल न हो सकी । एक स्थिति ऐसी बनी कि अंग्रेजों और उनके दलालों को वनोपज बाहर ले जाकर कलकत्ता भेजना कठिन हो गया । तब फौज ने मोर्चा संभाला । अंग्रेजी ब्रिगेड ने पूरे वन क्षेत्र का घेरा डाला और घेरा कसना आरंभ किया।
यह घेरा फरवरी के पहले सप्ताह आरंभ हुआ था और अंत में अंग्रेजी फौज उस चौगारी पहाड़ी के समीप 12 फरवरी को पहुंचे। इसी पहाड़ी पर क्राँतिकारियों का केन्द्र था । पहाड़ी घेरली गयी और मुकाबला आरंभ हुआ और अंत में 13 फरवरी, 1832 को अपने गांव सिलागाई में अंग्रेजों की सेना से लोहा लेते हुए बुधु भगत बलिदान हुये । अंग्रेजों ने उनके किसी साथी को जीवित न छोड़ा । इनमें महिलायें और बच्चे भी शामिल थे । उनकी कहानियां आज भी वनवासी क्षेत्रों में सुनी जाती हैं।