कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल-
मेरे सियाराम मुझे स्मृतियों में जाने की अनुमति प्रदान कीजिए। मैं 'सियाराममय' हो जाना चाहता हूँ। आपकी भक्ति में डूब जाना चाहता हूँ। प्रभु मैं आपका अनन्य सेवक चित्रकूट हूँ। मेरे राम जब आपने आश्रय के रूप में मुझे चुना। फिर आप आए। मैंने अपने भाग्य को मनाया। प्रभु मैंने आपके श्री चरणों में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया और आपके आने पर मैं प्रसन्नता से झूम उठा। मगर उतनी ही तीव्र पीड़ा से व्याकुल भी हो उठा, लेकिन यह तो आपकी ही लीला है न ! इसीलिए तो वनवासी बनकर माता सीता, अनुज लक्ष्मण सङ्ग, वल्कल वेश धारण किए मेरे सियाराम आपके चरण कमल ने मुझ हतभागी को सेवा का सुअवसर प्रदान किया। मैं , जानता हूं कि - पावन अयोध्या और परिवार के विक्षोह की पीड़ा कितनी अधिक रही होगी। लेकिन रघुकुलभूषण राम आपने - पितृ आज्ञा को शिरोधार्य कर आदर्श प्रस्तुत करने के लिए वन की ओर दौड़े चले आए।
आप त्रैलोकी के स्वामी हैं प्रभु ! आपकी लीलाएं अनंत हैं - और उन्हीं लीलाओं को रचने के लिए ही तो - आपने मुझ दास को चुना। मैं धन्य हो गया प्रभु। मैं धन्य हो गया। मेरे निवास में रहने वाले सन्देश दूत - पशु पक्षी मुझे बतला रहे थे कि - मन्त्री सुमंत्र जब आपको विदा करने आए, तो उनके नेत्र सजल थे । समूची अयोध्या आपके विरह में व्याकुल हो गई थी। अयोध्यावासी आपके लिए अयोध्या छोड़ने को तत्पर हो गए। लेकिन जब आपने भलीभाँति समझाया बुझाया तो अपने राम की बातों को वे टाल न सके और भारी मन से सभी अयोध्या लौट गए।
प्रभु ! मैं जानता हूँ आप दीनानाथ हैं। आप सबके उध्दारक - तारणहार हैं। प्रभु वन आगमन के समय श्रृंगवेरपुर के राजा - निषाद राज गुह और आपके मध्य की मैत्री के सर्वोच्च आदर्श को भला कौन नहीं जानता है ? आपने निषादराज गुह का आतिथ्य अवश्य स्वीकार किया लेकिन दूसरी ओर आपने पितृ आज्ञा निभाते हुए - वनवासी के रूप में ही मित्र का मान रखा।आप जमीन पर सोये और आपने मैत्री भी निभाई। यह कितना अद्भुत और अनुपमेय था प्रभु। फिर इस प्रकार से आगे चलकर प्रभु! आपकी और निषाद राज गुह की मैत्री युगों - युगों की प्रेरणा बन गई है। मैं साक्षी हूं मेरे राम कि - मेरे ही तट पर बाबा गोस्वामी तुलसीदास ने 'श्री रामचरितमानस' लिखा था। मुझे स्मरण है जब निषाद राज गुह के साथ आप गंगा पार उतरना चाहते थे। लेकिन उस समय केवट तो भक्ति विह्वल होकर आपके चरण पखारकर अपना उध्दार चाहता था। इसलिए उसने 'अहल्या' उध्दार से लेकर भाँति- भाँति के प्रसंगों को सुनाते हुए आपसे मनुहार की। बाबा तुलसी ने तो केवट की अनन्य भक्ति को कुछ यूँ लिखा था-
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
उस समय प्रभु आपने केवट का भी मान रखा तब केवट प्रसन्न हो गया और उसने पांव पखारते हुए आपको अपनी नाव से गंगाजी के पार उतारकर ले गया।
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥
तत्पश्चात प्रभु आपने निषाद राज गुह को भी वापस उनके राज्य भेज दिया। अश्रुजल बहाए निषाद अपने मित्र की आज्ञा मानकर चले गए। तदुपरान्त प्रयागराज में आप भरद्वाज ऋषि से मिले और फिर उनसे भी निवास स्थान के विषय में पूँछकर आगे बढ़ चले। आप जिस पथ से पैदल यात्रा करते हुए जाते माता जानकी व अनुज लक्ष्मण संग सब आपको देखकर चकित ही रह जाते थे। सब आपके दर्शन पाकर धन्य होते जाते। प्रभु तत्पश्चात आप महर्षि वाल्मीकि के आश्रम गए जहां आपने उनका आशीर्वाद लिया और उनसे वनवास काल में अपना निवास स्थान बनाने की सलाह माँगी। प्रभु मैं तो तभी विह्वल हो गया था और मेरी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रह गया। उस समय मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लग गए ,जब मुझे ज्ञात हुआ कि महर्षि वाल्मीकि ने आपके निवास के लिए मुझे चुना था। भक्त तुलसी ने तदन्तर आपके व महर्षि वाल्मीकि के प्रसंग को लिखा-
चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥
नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तप बल आनी॥
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥
अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥
चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥
तत्पश्चात मेरे प्रभु ! राम आपके चरण कमल मुझ 'चित्रकूट' के वक्ष पर पड़े। प्रभु! आपके परम पावन चरणों का स्पर्श पाते ही मैं चैतन्य हो गया। मेरी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रह गया। हे! मर्यादा पुरुषोत्तम राम आपने मुझे अवसर दिया कि - आपकी चरण रज से मेरा जीवन पुलकित हो जाए। मेरा कण-कण पावन हो जाए।
सचमुच में लीलाधारी मेरे राम मैं धन्य हो गया - जो आपने मुझे अपना आश्रय बनाया। मैं साक्षी हूं प्रभु कि - आपके आगमन के साथ ही मेरा समूचा परिवार आपके चिंतन और आपके दर्शन में डूब गया। देवता, यक्ष , किन्नर , गन्धर्व, ऋषि मुनियों का यहां तांता लग गया। सब आपके दर्शन के लिए आने लगे। इतना ही नहीं प्रभु आपकी लीला देखने के लिए देवतागण वनवासियो - कोल, किरात, भीलों के रुप/ वेश धरकर आने लगे। तुलसीदास जी ने इसका भी विस्तार से वर्णन किया है-
कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥
अर्थात् - सब देवता कोल-भीलों के वेष में आए और उन्होंने (दिव्य) पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिए। दो ऐसी सुंदर कुटिया बनाईं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुंदर छोटी सी थी और दूसरी बड़ी थी।
प्रभु! आपके आने से मैं धन्य हो गया। मेरा समूचा स्वरूप 'सियाराम मय सब जग जानी ' उच्चारने लगा। आपकी पर्णकुटी स्वर्ग से बढ़कर हो चुकी थी।जल- थल - नभ सब प्रभु आपकी भक्ति में डूब गए। मेरे आश्रय में रहने वाले वनवासी - कोल, भील, किरात सब आपके अपार प्रेम को पाकर धन्य हो उठे। सबने आपकी सेवा के जतन किए और आपकी भक्ति में रम गए। प्रभु आप सचमुच में मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। आपने उनके प्रेम को अप्रतिम वात्सल्यता के साथ निभाया है मेरे राम। इसीलिए तो बाबा तुलसीदास ने लिखा था-
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥
प्रभु, आपके निवास करने से मैं हतभागी धन्य हो उठा। मेरा समूचा अंचल आपकी भक्ति से पुलकित हो उठा। फिर जब आपके अनुज राजा भरत आपको वापस अयोध्या ले चलने के लिए आए। उस समय प्रभु आपने भरत को धर्म और राजधर्म की गूढ़ शिक्षा दी। उन्हें धर्माज्ञा - पितृ आज्ञा का महत्तम संदेश दिया। इस प्रकार फिर भरत आपकी खड़ाऊँ को शीश पर रखकर । आपकी खड़ाऊं को सिंहासन आरुढ़ कराने का संकल्प लेकर चले गए। प्रभु मैंने भ्रातृप्रेम की उस अविरल धारा को जिस ढंग से अनुभूत किया है उसका वर्णन कर पाने में असमर्थ हूं। उस समय प्रेमाश्रुओं की धार से वहाँ उपस्थित सभी जन विह्वल हो चले थे। इस प्रकार आगे चलकर प्रभु आप मुझ चित्रकूट में ही रम गए। मेरा मन्दाकिनी तट आपको पाकर धन्य हुआ। मेरा कण कण धर्ममय होने लगा। राक्षसी आतंक और उत्पात यहां से समाप्त होने लगा। ऋषि मुनि निर्भय होकर यज्ञ और अनुष्ठान सम्पन्न करने लग गए।
आगे के क्रम में जब दुष्ट रावण ने माता सीता का साधु के छद्मवेश में 'पंचवटी' से हरण किया तो पृथ्वी सुता जानकी के शोक से हम सभी आपके ह्रदय की दुखाग्नि से एकाकार हो गए। उस समय जब यह ज्ञात हुआ तो हम सबके ह्रदय में पीड़ा का ज्वालामुखी उत्पन्न हो चुका था। सबके नेत्रोन्मीलित हो गए। मेरे राम और सीता का यह विलाप हम सबके लिए असह्य वेदनामय था।
शोक में व्याकुल मेरे राम - आप माता सीता की खोज में , वन के कोने - कोने में भटकने लगे। माता की खोज में चलते चलते भक्त जटायु से आपकी भेंट हुई। और रावण के प्रहार से चोटिल गिध्दराज जटायु का आपने उध्दार किया। फिर आगे शापित कबंध को मुक्ति दी। मेरे राम आप अपनी पीड़ा में भी सबके तारणहार बनकर आए। आपकी महानता मैं कैसे बखानूं? प्रभु आप वही हैं जिन्होंने - मतंग मुनि की शिष्या - भक्ति एवं शक्ति की पर्याय - भीलनी माता शबरी के आश्रम गए। उन्हें दर्शन दिया। उनके आदर प्रेम को स्वीकार करते हुए कंदमूल फल को प्रेम सहित खाया -
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ।
तत्पश्चात प्रभु आपने माता शबरी को 'नवधा भक्ति ' का उपदेश दिया। आपके दर्शन पाकर भीलनी माता शबरी नश्वर देह को त्यागकर दिव्य देह धारण कर परम् तत्व में विलीन हो गईं। आपके प्रेम की कथाएं तो अनन्त हैं मेरे राम। आपने तो भाव - विह्वल वात्सल्य की प्रतिमूर्ति माता शबरी के जूठे बेरों को भी प्रेमपूर्वक चखा। भक्त - भक्ति और परमात्मा के ऐसे पावन स्वरूप का ऐसा अनुपमेय उदाहरण भला और कहां मिल सकता है? मेरे राम फिर आप माता सीता की खोज में आगे बढ़ चले। कपिराज सुग्रीव से मैत्री की। रुद्रावतार हनुमंत लाल से मिले। बाली उध्दार किया। तत्पश्चात रावण के अत्याचारों से पृथ्वी को मुक्ति दिलाई। रावण के राक्षसी अनाचारों का अंत किया। और राक्षस विहीन धरती की। भक्त विभीषण को लंकाधिपति बनाया । अयोध्यावासियों की प्रतीक्षा का अंत करने के उद्देश्य से प्रभु आपने - माता और मातृभूमि की महान महिमा बतलाई थी -
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी॥
फिर मुझे यह भी ज्ञात है कि अपने अनुज भरत के 'प्रण' और प्रतिज्ञा का मान रखने के लिए पुष्पक विमान से अयोध्या वापस लौटे और राम राज्य को स्थापित किया। प्रभु ! आपके भक्त तुलसी ने 'रामराज्य' को कुछ यूँ बखाना है-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
मेरे प्रभु सियाराम आपने मनुज रुप धरकर जीवन की मर्यादा सिखाई। और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में भारतवर्ष में धर्म की संस्थापना की। प्रभु आपका चरित युगों - युगों की प्रेरणा बनकर उपस्थित है। आपने वनवासियों को अपना मित्र बनाया। आपने किसी राजा की शक्ति की सहायता नहीं ली, बल्कि गिरि - कन्दराओं, वनों में निवास करने वाले वनवासियों, वानर - भालू, रीछ आदि की सेना बनाई। और रावण के अधर्म का अंत कर - पृथ्वी को अत्याचार से मुक्ति दिलाई। मेरे राम आप ने तो प्रत्येक दुखियारे को अपनाया और हर दीन - हीन ,वंचित - पीड़ित, उपेक्षित सबको गले लगाया। प्रभु आपशे अपने प्रेम एवं वात्सल्य से सभी को अभिभूत कर दिया । मेरे राम आपने अपने भक्तों के साथ कभी भी - कोई भेदभाव नहीं किया।
आप सर्वस्पर्शी - समदर्शी - सबके ह्रदय में बसने वाले राम हैं। हे! राम - मेरे राम - सबके राम - मर्यादा पुरुषोत्तम राम - भक्त वत्सल रघुकुल भूषण राम। कण- कण में व्याप्त राम , घट घट वासी मेरे राम आपकी दिव्य ज्योति - सर्वदा - सर्वदा आदर्श का मार्ग दिखलाएगी। प्रभु आपने अपने वनवास की साढ़े ग्यारह वर्ष की अवधि में मेरे कण- कण को पवित्र कर दिया है। आपकी चरण रज से मैं भी यशस्वी हो गया। मेरे राम - सबके राम मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ- जो आपके कारण अमरत्व को प्राप्त हो गया। अन्यथा हेे! राम मुझे कौन जानता ? हे! मर्यादा पुरुषोत्तम - आपकी लीला भूमि का सहभागी बनकर - मैं धन्य धन्य हो गया।