अंग्रेजों के अत्याचार से बचाने के लिये जीवन का बलिदान कर देने वाले हैं सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी बिरसा मुँडा

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    15-Nov-2023
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बिरसा मुंडा
 
रमेश शर्मा-
 
भारत राष्ट्र की अस्मिता और साँस्कृतिक रक्षा के लिये भारत की जनजातीयों ने सदैव संघर्ष किया है। यह संघर्ष भारत में सिकन्दर के आक्रमण से लेकर अंग्रेजों के आतंक तक दिखता है। वन में निवास करने वाले असंख्य नायकों के बलिदान से भारत की धरती लाल हुई है। ऐसे ही महानायक हुये बिरसा मुँडा। उनके जीवन में कुछ ऐसी विलक्षण घटनाएँ घटीं जिससे लोग उन्हे असाधारण कहते हैं और भगवान का दर्जा देते हैं। उनकी पूजा करते हैं और उनके बारे में कितनी ही कहानियाँ हैं जो लोक जीवन में सुनाई जातीं हैं। वे सही मायने में लोकनायक थे।
 
उनका जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड के रांची जिले के वनवासी क्षेत्र में हुआ वे जनजाति में मुंडा जनजाति सम्बन्धित हैं। इस क्षेत्र की वन संपदा पर अधिकार करने के लिये अंग्रेजों ने दो प्रकार से अभियान चलाया। एक तो वन संपदा पर अधिकार करना दूसरा जनजातीयों को ईसाई बना। अंग्रेज मिशनरियों के अभियान के अंतर्गत उनकेश पिता, चाचा, ताऊ सहित पूरे परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था।
 
बिरसा मुंडा जी के पिता 'सुगना मुंडा' ईसाई धर्म प्रचारकों के सहयोगी भी वन गये थे। बिरसा जी का बचपन अभाव से भरा था। उनका बकरियों को चराते हुए बीता। बाद में उन्होंने कुछ दिन तक 'चाईबासा' के मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। परन्तु स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह उन्हे सहन नहीं हुआ। इस पर उन्होंने भी ईसाई पादरियों का और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। जब वे दंड देने से भी नहीं माने तो ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया।
 
इसके बाद उनके के जीवन में एक नया मोड़ आया। वे सनातन धर्म और वनवासी समाज के सत्य को समझने में जुट गये । तभी उनका संपर्क स्वामी आनन्द पाण्डे से हुआ। जिनसे उन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म के रहस्य तथा पौराणिक पात्रों का परिचय मिला । इसमें वे महाभारत के पात्र और भगवान श्रीकृष्ण से बहुत प्रभावित हुये। वे पीडितों की सेवा में लग गये। विशेषकर बीमारों की सेवा में। इसी बीच कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिनके कारण लोग उन्हें को असाधारण और भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। जन-सामान्य में यह चर्चा दूर दूर तक होने लगी इससे बिरसा जी का प्रभाव क्षेत्र बहुत बढ़ गया। उनकी बातें सुनने के लिए दूर दूर से लोग आने लगे।
 
वे प्रवचन भी करते और लोगों को कर्मशील बनने की प्रेरणा देते थे । उन्होने समाज को अंधविश्वास और आलस्य से दूर रहकर कर्मशील बनाने का मानों अभियान ही छेड़ दिया था । वे लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह देते थे । उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या घटने लगी और जो मुंडा जनजाति के लोग ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे। इससे ईसाई मिशनरियाँ विचलित हुईं। इसके लिये मिशनरियों ने सरकार से सहायता ली तथा अंग्रेजों की पुलिस और अंग्रेज भक्त कुछ जमीदारों ने दमन शोषण आरंभ कर दिया।
 
बिरसा मुंडा ने समाज और किसानों का शोषण करने वालों के विरुद्ध संघर्ष का आव्हान किया इसमें जमींदार और पुलिस दोनों से संघर्ष करने का संकल्प दिलाया। यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उनपर कयी प्रकार की पाबंदियाँ ला दी । यहाँ तक कि वे लोगों को एकत्र न करें । यह बात बिरसा जी ने नहीं मानी और कहा कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूँ। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने एकत्र होकर उन्हें छुड़ा लिया। इससे पुलिस बड़ी संख्या में आया और उनके साथ गाँव के अधिकाँश लोगों को गिरफ़्तार कर लिया। बिरसा जी को दो वर्ष के कैद की सजा दी और हज़ारीबाग़ जेल में भेज दिये गये। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे।
 
परन्तु बिरसा जी मानने वाले नहीं थे। वे तो एक निहित संदेश लेकर संसार में आये थे । जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों के दो दल बनाए। एक दल धर्म का प्रचार करने लगा और दूसरा राजनीतिक जाग्रति का कार्य करने लगा। नये नये युवक भर्ती किये गए। इस पर सरकार ने फिर उनकी गिरफ़्तारी का वारंट निकाला, किन्तु बिरसा मुंडा पकड़ में नहीं आये। इस बार का आन्दोलन अंग्रेजों के शोषण से मुक्ति के लियू था।
 
उनका कहना था कि अंग्रेजों को वनों पर अधिकार करने और नवजीवन में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति छोड़नी चाहिये । वे वनों से परे यूरोपीय पादरियों के तंत्र को हटाकर वन संस्कृति के मौलिक स्वरूप को स्थापित करना चाहते थे । इसके लिये उनका संघर्ष तेज हुआ। पुलिस उनको पकड़ने के लिये आई । वे नहीं मिले तो उनके कुछ सहयोगियों को पकड़कर थाने ले गई। इससे वनवासियों में गुस्सा बढ़ गया। अपने साथियों को छुड़ाने के लिये बिरसा जी की टोली ने 24 दिसम्बर, 1899 को तीरों से पुलिस थानों पर आक्रमण करके दिया और अपने साथियों को छुड़ाकर थाने में आग लगा दी।
 
अंग्रेजी सत्ता ने इस घटना को एक चुनौती ली और सेना भेजकर पूरे क्षेत्र को घेर लिया । जमकर मुठभेड़ हुई, किन्तु तीर कमान से बंदूक की गोलियों का सामना नहीं हो सकता। बड़ी संख्या में वनवासी बलिदान हो गए। पर बिरसा जी सेना के भी हाथ न लगे। तब अंग्रेज पुलिस ने दूसरा तरीका अपनाया। डरा धमका और लालच देकर कुछ लोगों को अपना मुखबिर बनाया। यह षड्यंत्र काम कर गया। उनके ही विश्वस्त दो लोगों ने विश्वासघात किया और बिरसा मुंडा गिरफ़्तार कर लिये गये। जेल में उन्हे अनेक प्रकार की प्रताड़ना दी गई। इन प्रताड़ना से 9 जून, 1900 को जेल में उनका बलिदान हो गया । एक आशंका यह भी है कि जेल में उन्हें विष दे दिया गया था। लेकिन वे शरीर से गये हैं लोक जीवन में उनकी स्मृतियाँ आज भी सजीव हैं। वे गीतों और साहित्य में ही नहीं लोगों के दिलों में आज भी जीवित हैं। लोग उन्हे भगवान के स्थान पर मानते हैं।
 
बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है। 10 नवंबर 2021 को भारत सरकार ने उनके जन्म दिवस 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। अब यह स्मृति दिवस पूरे देश में गौरव पूर्वक मनाया जाता है।