कला, संगीत, राजनीति आदि के क्षेत्र में ग्वालियर की धरा ने तमाम ऐसे व्यक्तियों को जन्म दिया जिन्होंने पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन किया। इसके साथ ही विज्ञान के क्षेत्र में भी ग्वालियर से जुड़ा एक ऐसा नाम भी है जिसे देश की वैज्ञानिक बिरादरी में चमकते हुए ध्रुव तारे की संज्ञा दी जाती है यह नाम है महान भूगर्भवेत्ता व देश के सुविख्यात वैज्ञानिक डॉ विद्यासागर दुबे का। आज खनिज, भूसम्पदा व भूगर्भविज्ञान के क्षेत्र में भारत को जो उच्च स्थान प्राप्त है उसमें डॉ विद्यासागर दुबे का बहुत बड़ा योगदान रहा।
यूं तो इस महान वैज्ञानिक का जन्म उत्तरप्रदेश के ग्राम इकनोर में हुआ था लेकिन अपनी प्रारंभिक शिक्षा से लेकर जीवन पर्यंत उनकी कर्मभूमि ग्वालियर रही उन्होंने विज्ञान जगत में ग्वालियर का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया।
लिखने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होना चाहिए की डॉ विद्यासागर दुबे का जन्म विज्ञान के लिए ही हुआ था और यह महान वैज्ञानिक जीवन पर्यन्त देश की वैज्ञानिक उन्नति के लिए कार्य करते हुए उसी भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में शरीर त्याग कर विलीन हो गया जिसके लिए उन्होंने जन्म लिया था। प्रतिवर्ष जब जनवरी माह के प्रथम सप्ताह में देश के शीर्ष वैज्ञानिकों की यह संस्था अपना वार्षिक अधिवेशन आयोजित करती है तब तब डॉ विद्यासागर दुबे का व्यक्तित्व जीवंत हो उठता है।
1979 को भारतीय विज्ञान कांग्रेस के हैदराबाद में आयोजित 66 वे अधिवेशन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मुरारजी देसाई ने उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों व देश को दिए उनके वैज्ञानिक योगदान के लिए सम्मानित किया था उसके कुछ घण्टों के बाद ही अधिवेशन के विज्ञानमय वातावरण के बीच ही डॉ विद्यासागर दुबे ने अंतिम सांस ली।
डॉ विद्यासागर दुबे का जीवन कई दृष्टि से हमारे लिए प्रेरणादाई कहा जा सकता है। उन्होंने इकनोर जैसे धुर ग्रामीण क्षेत्र में जन्म लिया घनघोर यमुना के बीहड़ों से घिरे इस गांव में शिक्षा की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण वे ग्वालियर में कस्टम एक्साइज में डिप्टी कमिश्नर अपने चाचा शम्भूदयाल दुबे के यहां पढ़ने आ गए। धीरे धीरे वर्ष बीतते गए और हर कक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करते हुए उन्होंने सन 1921 में बीएससी परीक्षा विक्टोरिया कॉलेज में उच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण की।
अब विद्यार्थियों अध्यापकों एवं विद्यालय में विद्यासागर का नाम एक प्रतिभाशाली छात्र का पर्याय बनकर बहुश्रुत हो गया था। उनकी मेधाविता और भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए न केवल महाविद्यालय बल्कि ग्वालियर स्टेट ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान करने की घोषणा की।
इसके उपरांत उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त किया और प्रोफेसर के के माथुर के निर्देशन में सन1924 में एमएससी भूगर्भ शास्त्र की उपाधि उच्च अंकों से प्राप्त की। इसी विश्विद्यालय में उन्होंने दो वर्ष में शोध कार्य पूर्ण कर इतिहास रच दिया उन्होंने प्रोफेसर के के माथुर के सहकार्य में काठियावाड़ गुजरात में गिरनार पर्वत विषय पर उनका प्रथम महत्वपूर्ण शोधपत्र प्रकाशित हुआ।
तदंतर उन्होंने काठियावाड़ और कूच की अग्निमय चट्टानों का अध्ययन प्रारम्भ किया। सन 1926 में उन्होंने इम्पीरियल कॉलेज लंदन में प्रवेश लिया उन्होंने 1927 में पश्चिमी भारत में अग्निमय क्रियाओं के संदर्भ में पावागढ़ पर्वत का विस्तृत अध्ययन विषय पर शोधप्रबंध प्रस्तुत किया जिसपर लंदन के ऑक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय ने आपको डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया। देश विदेश के समाचार पत्रों में यह समाचार आश्चर्य और हर्ष के साथ पढ़ा गया की भारत के एक साधारण गांव इकनोर का एक साधारण बालक अपनी मेधाविता व मौलिक शोध प्रतिभा के बल पर डॉ विद्यासागर बन गया है।
पीएचडी की प्राप्त करने पश्चात डॉ दुबे प्रोफेसर माचे के निर्देशन में शिलाओं की रेडियो धर्मिता पर कार्य करने के लिए वियाना गए यहां से वे प्रोफेसर पानेथ के निर्देशन में कार्य करने बर्लिन गए जो तबकुछ उल्काखण्डों के हीलियम विषयक सार निर्धारण में व्यस्त थे। डॉ दुबे के मन मे विचार आया की चट्टानों के रेडियो धर्मी तथा हीलियम विषयक निर्धारित चट्टानों के पुरातत्व या निर्माण काल को इंगित कर सकता है इस प्रकार शिलाखण्डों के काल निर्धारण अर्थात आयु ज्ञात करने की एक नवीन पद्धति प्राप्त हुई।
यह विधि डॉ दुबे ने प्रोफेसर होम्स की सहकार्यता से विकसित की जो समस्त सुंदर दानेदार या रवादार अग्निशिलाओं पर प्रयुक्त हुई और न्यूनतम काल या उनकी आयु बता सकी। इस शोध की महत्वत्ता के कारण इसे सम्पूर्ण पाठय पुस्तकों में स्थान प्राप्त हुआ।तदन्तर उन्होंने इसपर यू एस ए में भी कार्य किया।
लंदन वियाना बर्लिन यू एस ए आदि देशों में कार्य करने के पश्चात डॉ दुबे सन 1930 में भारत वापस आ गए । ग्वालियर राज्य ने उनके समस्त अध्ययन हेतु उन्हें उदारतापूर्वक छात्रवृतियां प्रदान कीं। यहां आनेपर उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के मद्देनजर उन्हें ग्वालियर राज्य का खनिज भूगर्भ निर्देशक नियुक्त किया गया। बाद में वे बनारस विश्यविद्यालय चले गए और यहां ग्लास टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1939 मैं देश में बने प्रथम प्लानिंग कमीशन का उन्हें सदस्य बनाया गया था। अपने हिंदुत्व वादी विचारों के चलते लिखे एक लेख पर उठे विवाद के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में देश में तमाम ख्यातिपूर्ण वैज्ञानिकों की तरह वे भी कांग्रेस की उपेक्षा पूर्ण नीति का शिकार बने।
वे विज्ञानमय थे और उनका जीवन विज्ञान साधना के लिए ही समर्पित था वे कभी न थकने वाले व्यक्ति थे। 78 वर्ष की अवस्था में भी विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण और अनुसंधान करने और देश विदेश पर आयोजित संगोष्ठियों सभाओ तथा विज्ञान कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए उत्साहपूर्वक जाते रहे।
लश्कर दौलतगंज में अपने घर पर तो वे बहुत कम ही रह पाते थे। वे चाहे जहां हों और स्वस्थ अस्वस्थ चाहे जैसी अवस्था में क्यों न हों विज्ञान कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित होने से नहीं चूकते थे। उनके आदर्श विचारों को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें रोक गया पर वे न माने और हैदराबाद में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 66 वे अधिवेशन में शामिल होने के लिए 31 दिसंबर 1978 को ग्वालियर छोड़कर चले गए वे कहा करते थे की में सबकुछ छोड़ सकता पर विज्ञान कांग्रेस को नहीं छोड़ सकता चाहे प्राण क्यों न चले जाएं। इसबार उन्होंने ग्वालियर छोड़ा तो वह हमेशा के लिए ही छूट गया कौन जानता था की विज्ञान के लिए यह उनके जीवन की अंतिम यात्रा होगी, 7 जनवरी 1979 तक देश के वरिष्ठ वैज्ञानिक के रूप में विज्ञान कांग्रेस में भाग लिया।
इस दौरान देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मुरारजी देसाई की ओर से उन्हें देश को उनके वैज्ञानिक योगदान के लिए सम्मानित भी किया। अचानक 8 जनवरी को अचानक ह्रदय गति रुक जाने के कारण वे स्वर्ग सिधार गए पार्थिव शरीर विज्ञान कांग्रेस में ही पड़ा रहा गया। भारत भूमि के गर्भ से अन्वेषित अनेक खाने भूगर्भ पदार्थ खनिज तथा उनके द्वारा लिखी तमाम पुस्तकें व शोध पत्र देश विदेश में उनके अनुसन्धान इस महान वैज्ञानिक के स्मृति चिन्ह हैं।
डॉ विद्यासागर के स्मरण आते ही एक महान प्रतिभाशाली वैज्ञानिक और प्रेरक व्यक्तित्व नजरों के सामने उतर आता है और इस प्रतिभाशाली व्यक्तित्व सम्पन दिव्य पुरूष की तस्वीर को देखकर मेरे हाथ इनके चरणों की ओर अनायास बढ़ जाते हैं माथा अपने आप श्रध्दा सहित झुक जाता है।
आजादी के बाद देश में कुछ खास वर्ग से जुड़े वैज्ञानिकों को ही सम्मान व पुरूस्कारों से महिमा मंडित किया गया और डॉ विद्यासागर दुबे जैसे तमाम प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों की अनदेखी होती रही। आज देश का माहौल बदला है विविध क्षेत्रों की ऐसी तमाम प्रतिभाशाली गुमनाम हस्तियों को जिन्होंने इस देश की उन्नति के लिए बड़ा योगदान दिया खोजकर उन्हें सम्मानित किया जा रहा है।
आशा है ऐसे समय वैज्ञानिक क्षेत्र के महान व्यक्तित्व की स्मृति को संजोए रखने की ओर भी हमारी सरकारों का ध्यान अवश्य जाएगा जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी प्रेरणा ले सकेगी। डॉ विद्यासागर दुबे की पुण्यतिथि पर उन्हें सादर नमन।