संस्कृति और स्वाभिमान रक्षा के लिए लड़े थे महासंग्राम

30 जनवरी 1528... राणा सांगा का बलिदान दिवस

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    30-Jan-2023
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राणा सांगा स्‍मारक-रमेश शर्मा
महाराणा संग्राम सिंह जिनकी लोक जीवन में प्रसिद्धि "राणा साँगा" के नाम से है वे एक ऐसे महा योद्धा थे जिनका पूरा जीवन राष्ट्र, संस्कृति और स्वाभिमान की रक्षा के लिये समर्पित रहा। उनका जन्म 12 अप्रैल 1484 को हुआ था। राणा सांगा राजपूतों के सिसोदिया उप वर्ग से संबंधित थे जो सूर्यवंशी क्षत्रियों की एक शाखा है। राणा संग्राम सिंह सुप्रसिद्ध विजेता राणा कुंभा के पौत्र और राणा रायमल के पुत्र थे। उन्होंने 1509 में चित्तौड़ का राज्‍य सिंहासन संभालाा। इसके साथ ही विदेशी आक्रमणकारियों से मुकाबला और आक्रमणकारियों द्वारा छल बल से स्थापित की गई सत्ता को उखाड़ फेकने का अभियान आरंभ हुआ। उन्होंने छह बड़े युद्ध किये और सभी जीते। एक युद्ध तो ऐसा जीता जिसमें गुजरात, दिल्ली और मालवा के सुल्तानों ने एक संयुक्त मोर्चा बना कर तीन तरफ से चित्तौड़ पर धावा बोला पर राणा सांगा अपनी वीरता से तीनों को पराजित किया। उस समय दिल्ली की गद्दी पर इब्राहिम लोदी का शासन था। महाराणा जी ने सिकंदर लोदी के समय ही दिल्ली के कई क्षेत्रों अधिकार कर लिया था। आगरा क्षेत्र सल्तनत से छीनकर अपना ध्वज फहरा दिया था। इसका बदला लेने सिकंदर लोदी के उत्तराधिकारी इब्राहिम लोदी ने 1517 में मेवाड़ पर धावा बोला। यह युद्ध कोटा क्षेत्र के खातोली नामक स्थान पर हुआ जिसमें महाराणा सांगा की विजय हुई। खातोली की पराजय का बदला लेने के लिए इब्राहीम लोदी ने 1518 में फिर एक बड़ी सेना भेजी और पुनः पराजित होकर भागा। लोदी ने मालवा के शासक सुल्तान मोहम्मद को आक्रमण के लिये उकसाया। राणा जी ने माण्डू के शासक सुलतान को बन्दी बना लिया था परंतु उसने दया की याचना की, आधीनता स्वीकार की तो राणा जी ने उन्होंने उदारता दिखाते हुए उसे मुक्त कर दिया और उसका राज्य लौटा दिया  पर कुछ शर्तों के साथ।
 
 
इसी बीच दिल्ली में एक बड़ा घटनाक्रम हुआ। मुगल हमलावर बाबर ने दिल्ली पर धावा बोला। इब्राहीम लोदी मारा गया और बाबर ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। बाबर इब्राहीम के सभी परिजनों को मार डालना चाहता था। किन्तु इब्राहीम लोदी का पुत्र मेहमूद लोदी और अन्य बचे हुये परिजनों ने भाग कर राणा जी से शरण माँगी। उदारमना राणा जी ने शरण दे दी। बाबर ने राणा जी के पास दो संदेश भेजे। एक इब्राहीम लोदी के परिजनों को सौंपने और दूसरा दोस्ती करने का पर राणा जी ने अमान्य कर दिया। तब चित्तौड की सीमा आगरा तक लगती थी । अंततः बाबर से आक्रमण कर दिया । यह युद्ध 1527 में खानवा के मैदान में युद्ध हुआ । जब किसी प्रकार बाबर को सफलता न मिली तो उसने राणाजी की सेना में इब्राहीम लोदी के पुत्र मेहमूद लोदी को इस्लाम का वास्ता दिया और दिल्ली लौटाने का लालच। एन वक्त पर मेहमूद ने पाला बदल लिया । इधर बयाना का शासक हसन खाँ मेवाती भी बाबर से मिल गया और माँडू के सुल्तान ने भी राणा जी के साथ विश्वासघात किया और राणा जी घायल हो गये । उन्हे अचेत अवस्था में सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया । होश आने पर उन्होंने फिर से लड़ने की ठानी और सेना एकत्रीकरण का अभियान छेड़ दिया । लेकिन वे अपने अभियान में सफल होते कि किसी विश्वासघाती ने विष दे दिया और 30 जनवरी 1528 में कालपी में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बाद चित्तौड की गद्दी उनके पुत्र रतन सिंह द्वितीय ने संभाली।
 
 
राणा जी का अन्तिम संस्कार माण्डलगढ भीलवाड़ा में हुआ। माण्डलगढ़ के लोक जीवन में एक कथा प्रचलित है। यह कहा जाता है कि मांडलगढ़ में राणा जी घोड़े पर सवार होकर मुगल सेना पर टूट पड़े। युद्ध में महाराणा का सिर अलग हो गया तो सिर अलग होने के बाद घोड़े पर सवार उनका धड़ लड़ता हुआ चावण्डिया तालाब तक पहुँचा और वहाँ वीरगति को प्राप्त हुआ।
 
राणा जी एक कुशल यौद्धा और आदर्श शासक थे । उनके शासनकाल मे मेवाड़ ने समृद्धि की नई ऊँचाई को छुआ। वे अपने समय के एक महान विजेता और “हिन्दूपति” के नाम से विख्यात हुये। वे भारत से विदेशी शासकों को पराजित कर हिन्दू-साम्राज्य की स्थापना करना चाहते थे। इसलिये सभी विदेशी शासक परस्पर मतभेद भुलाकर एक जुट हो गये थे। जब वे बल से न जीत सके तो छल पर उतर आये । राणा जी की सेना में विश्वासघाती तलाशे। और राणा जी मैदानी मुकाबले में नहीं बल्कि पीठ पर किये गये वार से हार गये।