गोंधळ बंजारा: एक विलक्षण संगीत प्रेमी समुदाय

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    25-Jan-2023
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प्रवीण गुगनानी- 
 
गोंधळ, ये मराठी लिपि का शब्द है। इसे हिंदी में गोंधड़ पढ़ेंगे। मुझे लगता है कि जिस विषय पर या जिस जाति में यह लेखन हो रहा है उसमें नाम को उसके मूल रूप “गोंधळ” में प्रकट करना ही अधिक उपयुक्त होगा अतः इस समूचे लेख में गोंधळ शब्द का ही प्रयोग हो रहा है। हिंदी मानस के अनुसार इसे गोंधड़ पढ़ सकते हैं।
 
देवी तुलजा भवानी को अपनी कुल माता, आराध्य और सर्वस्व मानने वाले ये बंधू मूलतः महाराष्ट्र में निवासरत हैं। ये मूलतः रेणुराई कहलाते हैं। महाराष्ट्रियन संत एकनाथ के ये अनन्य भक्त होते हैं। महाराष्ट्र से निकलकर इनके कई परिवार मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों में भी बस गए हैं।
 
महाराष्ट्र में कुंगली लोग पारंपरिक/कानूनी नाटक कुंगल करते हैं। इस जाति के लोग मुख्य रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश राज्यों में पाए जाते हैं। इस जाति के बंधू अधिकांशतः बड़े ही भोले भाले, अल्पशिक्षित व विनम्र होते हैं। अब इनके नई आयु के युवाबंधू अवश्य ही शिक्षा में रूचि लेने लगे हैं। नई आयु की गोंधळ महिलाएं अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में विशेष ध्यान देने लगी हैं। अन्य घुमंतू, घुमक्कड़ व विमुक्त समाजों की अपेक्षा यह समाज झगड़े, झांसे व अपराधों से दूर रहने वाला समाज है। निर्धनता में भी अपना भरण पोषण करना जानते हैं व अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखते हैं।
 
भोले-भाले और अपने राम से राम और अपने काम से काम जैसा इनका स्वभाव रहता है।
 
इनकी जीवन शैली व आवश्यकताएं बड़ी ही सरल, सहज व मितव्ययी रहती है फलस्वरूप किसी भी प्रकार के व्यवसाय, वृत्ति, ठगी, अपराध, असामाजिक गतिविधियों से ये लोग कोसो दूर रहते हैं। गोंधळ बंधुओं का इतिहास, निर्धनता, विपन्नता, अशिक्षा, उपेक्षा व समाज निर्वासित जैसा रहा है। इतने संघर्षशील इतिहास के बाद भी इस समाज के लोगों का अपराधों से दूर रहना अपने आप में जीवटता व जिजीविषा का एक बड़ा उदाहरण है। इससे भी ऊपर इन कठिन परिस्थतियों में अपनी संस्कृति, कला, परम्पराओं व देव आराधना के स्वभाव को जीवंतता से जीते रहना इस समाज का एक बड़ा ही अनुकरणीय गुण है। अन्य कुछ समाज जो परिस्थितियों के कारण अपनी संस्कृति व परम्पराओं को छोड़ देते हैं व इसके लिए समाज की उपेक्षा को कारण बताते हैं उन्हें गोंधळ बंधुओं के संघर्ष की गाथा सुनाई जानी चाहिए। ये विपत्तियों, आपत्तियों और चुनौतियों से लड़कर बाहर आने वाला सफल किंतु सहज, सरल समाज है।
 
आज भी इस समाज के पुरुष बंधु द्वार द्वार जाकर देवी के गीत, भजन, मंगलगीत आदि गाकर और भिक्षा मांगकर अपनी आजीविका चलाते हैं। शर्ट और कुर्ते का मिला जुला रूप इनका उपरी पहनावा होता है और नीचे ये धोती को एक विशिष्ट शैली में पहनते हैं। बहुधा इनका कमीज फ्राक के जैसा होता है, जो अब कम देखने में आने लगा है। इनका वेश इनकी पहचान है।
 
अधिकांशतः सफेद कपड़े ही पहनते हैं जो समय पर और व्यवस्थित नहीं धुलने के कारण मटमैले हो जाते हैं किंतु इनके वस्त्र कभी भी गंदे नहीं रहते। साफ़-सफाई से रहना अपने आंगन, रसोई, निवास, मोहल्ले की स्वच्छता बनाए रखना इनका स्थायी स्वभाव होता है। माथे पर बड़ा सा कुमकुम का तिलक सदैव सज्जित होता है। ये लोग सदैव सर ढककर रहते हैं। सिर पर गांधी टोपी होती है या पगड़ी जैसा फेटा बंधा हुआ होता है। गले में कौड़ी और कुछ अन्य मणियों की माला और लगभग पतली रस्सी जैसा गुंथा हुआ गठानदार काला धागा ये पहने हुए होते हैं। अधिकांशतः इन्हें पान खाना प्रिय होता है।
 
पान न मिले तो बराड़ी तमाखू, चुने और सुपारी से काम चला लेते हैं। जेब में तमाखू, चुना और सुपारी की एक विशिष्ट, कलात्मक रूप से बनी हुई पोटली होती है। कंधे पर सदैव एक गमछा अवश्य रखते हैं। गोंधळ समाज की महिलाएं सामान्यतः घर और बच्चों को संभालने में ही व्यस्त रहती हैं। गोंधळ समाज महिलाओं को उच्च स्थान पर रखने वाला समाज है। महिलाएं नवसारी साड़ी या लुगड़े को धोती जैसी शैली में कलात्मकता के साथ पहनती हैं। माथे पर सामान्य बिंदी लगाती हैं। विवाहित स्त्रियां मांग में बड़ा गाढ़ा कुमकुम भरती हैं। इनके वस्त्र साड़ी आदि सस्ते किंतु बड़े ही सुरुचिपूर्ण रहते हैं। निर्धनता में भी गोंधळ महिलाएं सीमित साधनों से स्वयं में सौम्यतापूर्ण आकर्षण बनाएं रखती हैं। गोंधळ महिलाएं बोलने सुनने में मधुर व विनम्र भाषा उपयोग करती हैं। इनकी बस्तियां शेष समाज से अलग व झुग्गी झोपड़ी जैसी किंतु साफ़ सुथरी होती हैं और ये गाली गलौच वाले शब्दों का उपयोग नहीं करती हैं। ये बड़े ही सुंदर मंगलगीत, देवी भजन गाती हैं किंतु अपने पुरुषों की भांति भिक्षाटन पर नहीं जाती हैं।
 
महाराष्ट्रियन समाज के लोग तीज त्योहार, गणेशोत्सव, देवी स्थापना, विवाह, बारसा, धार्मिक प्रसंगों आदि सभी शुभ प्रसंगों में गोंधळ बंधुओ को गीत गाने हेतु ससम्मान आमंत्रित करते हैं। महाराष्ट्र में घर परिवार में बुलाए जाने पर पहले इनके वाद्ययंत्रों का विधिवत पूजन किया जाता है एवं फिर गोंधळ बंधुओं का तिलक सम्मान कर उनसे देवी भजन कराये जाने और दान दक्षिणा दिए जाने की परम्परा है। यह विडंबना ही है कि निर्धन और विपन्न गोंधळ समाज ने तो अपनी गीत गाने और भिक्षा मांगने की परंपरा को जीवंत रखा है किंतु शेष कथित सभ्य समाज ने इन्हें भजनों हेतु आमंत्रित करना, दान दक्षिणा आदि देकर इनका मान बनाए रखने का काम छोड़ दिया है। हमारे समाज को शीघ्र ही गोंधळ परम्पराओं व समाज के विषय में जागृत होना होगा अन्यथा हम अपनी एक विशिष्ट सामाजिक पहचान से हाथ धो बैठेंगे।
 
गोंधळीयों ने अपनी एक विशिष्ट नाट्यकला विकसित की हुई है जो अब समाप्त हो चली है या यूँ कहें मृतप्राय हो गई है। रंगकर्म इनकी रग-रग में बसता है। उच्च स्वर में दीर्घ समय तक राग निकालने का इन्हे अद्भुत अभ्यास होता है। संगीत की किसी औपचारिक शिक्षा के बिना ही इनका समूचा परिवार और कुनबा संगीत का ज्ञानी और अभ्यासी होता है। ये अपने नाट्यकला को गणज कहते हैं। गोंधळ समाज के हर शुभकार्य में मां तुलजा भवानी की भव्य पूजा होती है और गणज नाटक करके देवी की महिमा का बखान किया जाता है। नाट्यकला हेतु ये एक सितार जैसे वाद्य का उपयोग करते हैं। यद्दपि इस वाद्ययंत्र का रूप अब बदल गया है।
 
पहले ये जंगली लौकी या कुम्हड़े के खोल से बना हुआ होता था अब ये इसे एक लकड़ी के खोल से भी बना लेते हैं। इस वाद्ययंत्र को तुणतुण कहा जाता है। साथ साथ नाट्यों में संबल, ताला, झांझ, डिमडी आदि जैसे वाद्ययंत्रों का भी उपयोग किया जाता है। संबल और तुणतुण इनके प्रिय और सुलभ वाद्य होते हैं जिन्हें इनके छोटे छोटे बच्चे भी कुशलता पूर्वक बजा लेते हैं। संबल दो तबलों का एक जुड़ा हुआ (युग्म) वाद्ययंत्र होता है। इनके वाद्ययंत्र ये स्वयं ही अपने हाथों से निर्माण करते हैं। गोंधळ बंधू एवं भगिनियां हाथ में दीपक उठाकर बड़ा ही सुन्दर नृत्य करते हैं।
 
हथेली पर दीपक रखकर नृत्य करने की परंपरा गोंधड़ी महिलाऐं बड़े ही विशिष्ट अवसरों पर निभाती हैं। यह नृत्य अत्यंत प्रभावी, सुन्दर व विभिन्न भावप्रवण मुखमुद्राओं व भावभंगिमाओं के साथ किया जाता है। इस नृत्य को देखने का अपना ही अलग आनंद व विशिष्ट अनुभव होता है। हथेली पर दीपक रहकर नृत्य करने की इस परंपरा का प्रदर्शन संजय लीला भंसाली की फिल्म देवदास में भी प्रदर्शित किया गया है। देवदास फिल्म में यह नृत्य ऐश्वर्या राय पर फिल्माया गया है।
 
गोंधळ बंधुओं के दो मराठी भजन हिंदी अनुवाद के साथ प्रस्तुत हैं।
 
अंबे माई का भजन
अंबे जोगवा दे जोगवा दे
माय माझ्या भवानी जोगवा दे।
हे जसे शक्तीची भक्ती करणारे गीत आहे तसे-
मी मिरचीचे भांडण।
एका रोज खटखटीन जी ॥
मिरची अंगी लईच ताठा।
म्हणतिया मी हाई तिखटजी ॥
असे विनोदी गीतही सादर केले जाते.
 
उदा.
रत्‍नागिरी ज्योतिबा।
गोंधळा या हो।
तुळजापूरची अंबाबाई गोंधळा या हो।
पंढरपूरचे विठोबा गोंधळा या हो।
संत एकनाथ का भजन
द्वैत सारूनि माळ मी घालीन।
हाती बोधाचा झेंडा मी घेईन।
भेदरहित वारीस जाईन।
असा जोगवा मागितला.
अम्बे जोगवा दे जोगवा दे
मैं मिर्च से लड़ता हूं।
खतखतीन जी एक दिन।
मिर्च बहुत गर्म होती है।
कह रहा हूँ, मैं हाय तिच्छजी हूँ।
इस तरह के हास्य गीत भी गाए जाते हैं।
 
उदा.

रत्नागिरी ज्योतिबा।

उलझन में होना।
तुलजापुर की अंबाबाई असमंजस में हैं।
पंढरपुर के विठोबा असमंजस में हैं।
संत एकनाथी का भजन
मैं दोहरा वस्त्र पहनूंगा।
मैं चेतावनी का झंडा लूंगा।
अंधाधुंध वारिस जाएगा।
उन्होंने ऐसा प्रावधान करने की मांग की।