स्वामी विवेकानंद ने समाचारपत्रों को बनाया वेदांत के प्रसार का माध्यम

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    21-Jan-2023
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Swami vivekanand
 
स्वामी विवेकानंद और पत्रकारिता
 
लोकेन्द्र सिंह-
 
माँ भगवती की कृपा से स्वामी विवेकानंद सिद्ध संचारक थे। उनके विचारों को सुनने के लिए भारत से लेकर अमेरिका तक लोग लालायित रहते थे। लेकिन हिन्दू धर्म के सर्वसमावेशी विचार को लेकर स्वामीजी कहाँ तक जा सकते थे? मनुष्य देह की एक मर्यादा है। भारत का विचार अपने वास्तविक एवं उदात्त रूप में सर्वत्र पहुँचे, वह गूँज उठे और उस पर सार्थक चर्चा हो, इसके लिए वह पुण्यभूमि भारत से निकलकर अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के अन्य देशों में प्रवचन करने के लिए पहुँच गए।
 
उन्होंने वहाँ के समाचार-पत्रों में अपने व्याख्यानों पर केंद्रित समाचार प्रकाशित होने के बाद समाज के गुणीजनों पर उसके प्रभाव को अनुभव किया। स्वामी विवेकानंद ने समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं की भूमिका को पहचानकर वेदों के विचारों के प्रसार के लिए उनका उपयोग करने पर जोर दिया। स्वामीजी की प्रेरणा एवं योजना से दो प्रमुख समाचारपत्र प्रकाशित हुए- ब्रह्मवादिन एवं प्रबुद्ध भारत। उन्होंने दोनों ही पत्रों की सब प्रकार से चिंता की। समाचारपत्रों के संपादन, रूप-सज्जा एवं प्रसार पर उनकी बारीक दृष्टि रहती थी। इसके अतिरिक्त भी भारत, अमेरिका एवं इंग्लैंड में स्वामीजी की प्रेरणा से अन्य समाचारपत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं।
 
स्वामी विवेकानंद ने संयुक्त राज्य अमेरिका से 1894 में अपने शिष्य आलासिंगा पेरुमल को कई पत्र लिखे, जिनमें उन्होंने समाचारपत्र-पत्रिकाओं को लेकर चर्चा की है। एक पत्र में स्वामीजी लिखते हैं- “यदि तुम वेदांत के आधार पर एक पत्रिका निकाल सको तो हमारे कार्य में सहायता मिलेगी”।
 
आलासिंगा को लिखे एक अन्य पत्र में स्वामी लिखते हैं- “एक छोटी-सी समिति की स्थापना करो और उसके मुखपत्रस्वरूप एक नियतकालिक पत्रिका निकालो। तुम उसके संपादक बनो। पत्रिका प्रकाशन तथा प्रारंभिक कार्य के लिए कम से कम कितना व्यय होगा, इसका विवरण मुझे भेजो तथा समिति का नाम एवं पता भी लिखना। इस कार्य के लिए न केवल मैं स्वयं सहायता करूंगा वरन यहां के और लोगों से भी अधिक से अधिक वार्षिक चंदा भिजवाने की व्यवस्था करूंगा”।
 
इस तरह अमेरिका में जब उन्हें अधिक समय हो गया और शिष्यों को अपने गुरु से दूर रहने की बेचैनी होने लगी, तब शिष्यों ने स्वामीजी से भारत लौटने का आग्रह किया। तब स्वामीजी ने आलासिंगा को लिखा- “मुझे कुछ काम करके दिखाओ- एक मंदिर, एक प्रेस, एक पत्रिका या हम लोगों के ठहरने के लिए एक मकान। यदि मद्रास में मेरे ठहरने के लिए एक मकान का प्रबंध न कर सके तो फिर मैं वहां कहां रहूंगा। लोगों में बिजली भर दो, चंदा इकट्ठा करो एवं प्रचार करो”। यानी उन्होंने वेदांत के विचारों के प्रसार-प्रचार के लिए अपने शिष्यों से एक प्रेस की अपेक्षा की।
 
स्वामीजी के निर्देश उनके शिष्यों ने ‘ब्रह्मवादिन’ एवं ‘प्रबुद्ध भारत’ का प्रकाशन तो प्रारंभ कर दिया, लेकिन समाचारपत्रों के प्रकाशन का पर्याप्त अनुभव नहीं होने के कारण अनेक प्रकार की समस्याएं खड़ी होने लगीं। जब स्वामीजी के ध्यान में यह बात आई तब उन्होंने कहा भी कि भले ही हमारे पत्र व्यावसायिक दृष्टि से नहीं निकाले जा रहे हैं लेकिन यह है तो एक व्यवसाय ही।
 
इसलिए समाचारपत्र के व्यावसायिक पक्ष को ध्यान में रखना होगा। यद्यपि स्वामी विवेकानंद भारत से प्रकाशित अपने समाचारपत्रों के लिए अमेरिका में धन संग्रह करते थे। परंतु इस बात को भी भली प्रकार समझते थे कि अमेरिका के धनिकों के बल पर लंबे समय तक भारत के समाचारपत्रों को संचालित नहीं किया जा सकता।
 
भारत के लोग ही अपने समाचारपत्रों की चिंता करेंगे, तब वाछिंत परिणाम प्राप्त होंगे। इसलिए वे अपने शिष्यों को कहते थे कि भारत से प्रकाशित समाचारपत्रों के आर्थिक प्रबंधन की चिंता वहीं के लोगों को करनी चाहिए। समाज की चेतना जगानेवाले समाचारपत्र जीवित रहें और आर्थिक संकट के कारण शिष्य हतोत्साहित न हों, इसके लिए स्वामीजी आर्थिक सहयोग जुटाने के साथ ही हिम्मत बढ़ाने का काम भी करते थे। स्विट्जरलैंड से 6 अगस्त, 1896 को स्वामीजी आलासिंगा को लिखते हैं- “तुम्हारे पत्र से ‘ब्रह्मवादिन’ की आर्थिक दुर्दशा का समाचार विदित हुआ।
 
लंदन लौटने पर तुम्हें सहायता भेजने की चेष्टा करूंगा। तुम पत्रिका का स्तर नीचे न करना, उसको उन्नत रखना। ‘ब्रह्मवादिन’ एक रत्न है, इसे नष्ट नहीं होना चाहिए। यह ठीक है कि ऐसी पत्रिकाओं को सदा निजी दान से ही जीवित रखना पड़ता है, हम भी वैसा ही करेंगे, कुछ महीने और जमे रहो”। ठीक इससे एक दिन पहले यानी 5 अगस्त, 1896 को उन्होंने ई.टी. स्टर्डी को भी एक पत्र लिखा, जिसमें स्वामी ने ‘ब्रह्मवादिन’ पत्रिका के संदर्भ में पूछताछ करते हुए लिखा कि आशा है कि “तुम पत्रिका को बड़े आकार की करने के प्रश्न पर भली-भांति विचार करोगे। अमेरिका से कुछ धनराशि एकत्र करने की व्यवस्था हो सकती है एवं साथ ही पत्रिका अपने लोगों के हाथों ही रखी जा सकती है”।
 
स्वामी विवेकानंद पत्रिका के उद्देश्य को ध्यान में रखकर उसमें प्रकाशित सामग्री के चयन एवं उनकी भाषा-शैली को लेकर भी सचेत रहते थे। ‘ब्रह्मवादिन’ के एक अंक में कठोर भाषा में लिखा एक पत्र प्रकाशित हो गया, जो पत्रिका के स्वभाव के अनुरूप नहीं था। इस पर स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका से ही आलासिंगा को पत्र लिखा और बताया कि- “तुमने ‘ब्रह्मवादिन’ में ‘क’ का एक पत्र प्रकाशित किया है, उसका प्रकाशन न होना ही अच्छा था। थियोसॉफिस्टों ने ‘क’ की जो खबर ली है, उससे वह जल–भुन रहा है। साथ ही उस प्रकार का पत्र सभ्यजनोचित भी नहीं है, उससे सभी लोगों पर छींटाकशी होती है।
 
ब्रह्मवादिन की नीति से वह मेल भी नहीं खाता। अतः भविष्य में यदि कभी किसी संप्रदाय के विरुद्ध चाहे वह कितना ही खब्ती और उद्धत हो, कुछ लिखे तो उसे नरम करके ही छापना। कोई भी संप्रदाय, चाहे वह बुरा हो या भला, उसके विरुद्ध ब्रह्मवादिन में कोई लेख प्रकाशित नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्रवंचकों के साथ जानबूझकर सहानुभूति दिखानी चाहिए”। स्वामीजी ब्रह्मवादिन के माध्यम से समाज में सकारात्मक वातावरण चाहते थे, इसलिए उनका मत था कि पाठकों के पास जो सामग्री पहुँचे उसमें किसी प्रकार नकारात्मकता, कठोरता या द्वेष के भाव न हों।
  
किसी एक अच्छे प्रबंधक एवं संपादक की तरह पत्रिका की सामग्री के साथ ही वे उसकी रूप-सज्जा को लेकर भी सचेत रहते थे। उनकी प्रेरणा से प्रारंभ हुए ‘प्रबुद्ध भारत’ का ले-आउट एवं डिजाइन आकर्षक नहीं होने पर उन्होंने इसकी ओर डॉ. नंजुन्दा राव का ध्यान आकर्षित कराया। इंग्लैंड से 14 जुलाई, 1896 को डॉ. राव को पत्र लिखा- “एक बात पर मुझे अपना मत व्यक्त करना है, वह यह कि पत्र (प्रबुद्ध भारत) का मुखपृष्ठ एकदम गँवारू, देखने में नितांत रद्दी तथा भद्दा है। यदि संभव हो तो इसे बदल दें।
 
इसे भावव्यंजक तथा साथ ही सरल बनाएं। इसमें मानव-चित्र बिल्कुल नहीं होने चाहिए। ‘वटवृक्ष’ कतई प्रबुद्ध होने का चिन्ह नहीं है और न पहाड़, न संत ही, यूरोपीय दंपत्ति भी नहीं। ‘कमल’ ही पुनरभ्युत्थान का प्रतीक है। ‘ललित कला’ में हम लोग बहुत ही पिछड़े हुए हैं खासकर ‘चित्रकला’ में”।
 
स्वामीजी केवल कमियों की ओर ही संकेत नहीं करते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि आकल्पन किस तरह का होना चाहिए। वे उदाहरणस्वरूप बताते हैं कि “वन में वसंत के पुनरागमन का एक छोटा सा दृश्य बनाइए- नव पल्लव तथा कलिकाएं प्रस्फुटित हो रही हों। धीरे-धीरे आगे बढ़िए, सैकड़ों भाव हैं जिन्हें प्रकाश में लाया जा सकता है”। इतना ही नहीं तो उन्होंने नमूने के तौर पर इंग्लैंड से ही मुखपृष्ठ का डिजाइन कराकर भेजने का विचार भी एक अन्य पत्र में व्यक्त किया था। मानव का स्वभाव है कि उसे अच्छे आकल्पन आकर्षित करते हैं। किसी भी समाचारपत्र या पुस्तक को पाठक सबसे पहले उसका मुखपृष्ठ देखकर ही हाथ लगाता है।
 
वेदांत के विचार अन्य भारतीय भाषायी बंधुओं तक पहुँचे इस दृष्टि से भी स्वामी विवेकानंद विचार करते थे। अंग्रेजी में पत्रिका का प्रकाशन होने के अलावा उनका जोर था कि बांग्ला, हिन्दी, तमिल और अन्य भारतीय भाषाओं में पत्रिकाओं का प्रकाशन हो। इस संदर्भ में डॉ. नंजुन्दा राव के साथ हुए पत्राचार का उल्लेख प्रासंगिक है, हालाँकि उन्होंने अन्य शिष्यों को लिखे पत्रों में भी इस बात का आग्रह किया है। जैसे वे आलासिंगा को कई बार लिखते हैं कि हिन्दू धर्म से संबंधित अच्छी सामग्री पर आलेख तैयार करके या पूर्व से तैयार सामग्री का अंग्रेजी में अनुवाद कराकर यूरोप के समाचारपत्रों में भेजे। बहरहाल, स्विट्जरलैंड से डॉ. राव को उन्होंने लिखा था- “तुम इस पत्रिका (प्रबुद्ध भारत) के संचालन में सफल होने के बाद इसी प्रकार भारतीय भाषाओं में– तमिल, तेलुगु और कन्नड़ आदि में– भी पत्रिकाएं शुरू करो”।
 
एक बात ध्यान रखें कि स्वामी विवेकानंद भारतीय विचार के प्रसार लिए समाचारपत्रों का उपयोग करने के हामी थे, वे उन पर आश्रित नहीं थे। उनके शिष्य संगठन खड़ा करने का कार्य छोड़कर पूरी तरह से सिर्फ समाचारपत्रों-पत्रिकाओं के प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार पर ही ध्यान केंद्रित करने लगें, यह स्थिति निर्मित न हो, इस ओर भी उनका ध्यान था। स्वामीजी 28 मई 1894 को आलासिंगा को लिखते हैं– “समाचार–पत्र और मासिक–पत्र आदि चलाना निस्संदेह ठीक है, पर अनंत काल तक चिल्लाने और कलम घिसने की अपेक्षा कण मात्र भी सच्चा काम कहीं बढ़कर है।
 
भट्टाचार्य के घर पर एक सभा बुलाओ और कुछ धन जमाकर ऊपर कहीं हुई चीजें (मैजिक लैंटर्न, कुछ मानचित्र और कुछ रासायनिक पदार्थ) खरीदो एक कुटिया किराए पर लो और काम में लग जाओ! यही मुख्य काम है, पत्रिका आदि गौण हैं”। जहाँ एक ओर वे समाचारपत्रों की भूमिका को समझकर उनके प्रकाशन एवं विस्तार पर जोर देते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने शिष्यों को चेताते हैं कि यह मूल कार्य नहीं है, मूलकार्य तो जनता के बीच प्रत्यक्ष कार्य करना है। समाज से प्रत्यक्ष साक्षात्कार के अभाव में न तो समाज की चुनौतियों की अनुभूति होती है और न ही कार्य ठीक दिशा में आगे बढ़ता है।
 
स्वामी विवेकानंद के कारण जिस तरह विश्वपटल पर हिन्दू धर्म की प्रखर लालिमा छाने लगी थी और विधर्मियों द्वारा खड़े किए भ्रम के जाले साफ होने लगे थे, उससे ईसाई मिशनरीज चिढ़ गए थे। हिन्दू धर्म को लेकर सुधारात्मक बातें करने से कुछ पोंगापंथी भी चिढ़ने लगे थे। द्वेष के कारण ये लोग अपने प्रभाववाले समाचारपत्रों में स्वामीजी के संबंध में अनर्गल बातों को प्रकाशित कराते थे। विवेकानंद के शिष्य यह सब पढ़कर दु:खी होते और उन समाचारपत्रों की आलोचना करते हुए, उनकी प्रतियां अपने पत्र के साथ स्वामीजी को भेजते। स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य उल्लेखनीय है कि वे राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय समाचार-पत्रों पर लगातार नजर रखते थे। जब वे भारत के बाहर होते थे, तब अपने देश के प्रमुख पत्रों को डाक से मँगाते थे।
 
भारत में रहने पर अपने विदेशी शिष्यों के माध्यम से वहाँ के समाचार-पत्रों को मंगाते थे। स्वामीजी का प्रयास रहता था कि उनके व्याख्यान के आधार पर या अन्य किसी प्रभाव से विदेशी समाचारपत्रों में हिन्दू धर्म एवं भारत के संदर्भ में जो कुछ अच्छी सामग्री प्रकाशित होती, वह भारत के समाचारपत्रों में भी स्थान पाए। अपने शिष्यों की मन के मर्म को समझते हुए स्वामीजी उन्हें कहते थे कि हम अपना काम चुपचाप करें, दूसरों में दोष न निकालें, अपना संदेश दें, जो कुछ सिखाना है, सिखाएं और वहीं तक सीमित रहें। शेष परमात्मा जानते हैं।
 
अमेरिका की ‘शिकागो इंटीरियर’ पत्रिका का रुख विशेषरूप से स्वामी विवेकानंद को लेकर निंदात्मक था। स्वामीजी इस पत्रिका को पागल इंटीरियर कहते थे। इस पत्रिका की मानसिकता को समझाते हुए स्वामीजी ने शिकागो से 24 जनवरी, 1894 को अपने मद्रासी शिष्यों को लिखा था– “शिकागो इंटीरियर पत्रिका की आलोचना के बारे में तुम लोगों ने जो उल्लेख किया है, उसे अमेरिकी जनता का रुख न समझ बैठना।
 
इस पत्रिका के बारे में यहां के लोगों को प्राय: कुछ नहीं मालूम और वे इसे ‘नील नाकवाले प्रेसबिटेरियनों’ की पत्रिका कहते हैं। यह बहुत ही कट्टर संप्रदाय है... लोग जिसे आसमान पर चढ़ा रहे हैं, उस पर कीचड़ उछाल कर प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही इस पत्र में ऐसा लिखा था। ऐसे छल को यहां के लोग खूब समझते हैं एवं इसे यहां कोई महत्व नहीं देता, किंतु भारत के पादरी अवश्य ही इस आलोचना का लाभ उठाने का प्रश्न करेंगे”।
 
समाचारपत्रों में प्रकाशित होनेवाली आलोचना या कहें निंदात्मक लेखन से शिष्य निराश न हों और इस प्रकार की सामग्री को अनदेखा कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें, इसलिए भी स्वामी समझाइश देते रहते थे। उन्होंने 26 दिसंबर 1894 को अमेरिका से ही आलासिंगा को लिखा कि– “मेरे संबंध में कुछ दिनों के अंतर में मिशनरी पत्रिकाओं में दोषारोपण किया जाता है परंतु उसे पढ़ने की मुझे कोई इच्छा नहीं है। यदि तुम भारत की ऐसी पत्रिकाएं भेजोगे तो मैं उन्हें भी रद्दी कागज की टोकरी में डाल दूंगा।
 
अपने काम के लिए कुछ आंदोलन की आवश्यकता थी, वह अब पर्याप्त हो चुका है। मेरे विषय में लोग क्या कहते हैं, इसकी ओर ध्यान न देना, चाहे वे अच्छा कहें या बुरा। तुम अपने काम में लगे रहो.... मैं तुम्हें पहले भी लिख चुका हूं और फिर लिखता हूं कि समाचार पत्रों की प्रशंसा या निंदा की मैं कुछ परवाह नहीं करूंगा। मैं उन पत्रों को अग्नि को समर्पित कर देता हूं। तुम भी यही करो। समाचार पत्रों की निंदा और व्यर्थ बातों की ओर ध्यान न दो। निष्कपट रहो और अपने कर्तव्य का पालन करो, शेष सब ठीक हो जाएगा। सत्य की विजय अवश्यंभावी है... मिशनरी ईसाइयों के झूठे वर्णन की ओर तुम्हें ध्यान ही नहीं देना चाहिए। पूर्ण मौन ही उनका सर्वोत्तम खंडन है”।
 
इस तरह हम देखते हैं कि सिद्ध संचारक होने के साथ ही स्वामी विवेकानंद को समाज जागरण के लिए संचार माध्यमों का कुशलतापूर्वक उपयोग करने की भी सिद्धता थी। स्वामीजी समाचारपत्रों की शक्ति से अपने शिष्यों को भली प्रकार अवगत कराते रहते हैं। इस दिशा में स्वामीजी की दृष्टि का अध्ययन करें तो ध्यान आता है कि वे समाचारपत्रों को नकारात्मक विचारों से मुक्त करके उन्हें सकारात्मक साधन बनाने पर जोर देते हैं।
 
समाचारपत्रों में सद्विचार प्रकाशित हों, इसके लिए स्वामीजी समाज की सज्जनशक्ति को प्रेरित करते हैं। सज्जनशक्ति संकोचवश समाचारपत्रों को सद्साहित्य नहीं भेजती तब अवसर का लाभ लेकर संकीर्ण मानसिकता के लोग इस माध्यम का अपने ढंग से उपयोग करेंगे ही। इसलिए संचार माध्यमों के लोकहितैषी स्वरूप को बनाए रखने/संवर्धन करने के लिए समाज की सज्जनशक्ति को अपनी सहभागिता बढ़ानी चाहिए। बहरहाल, समाजहित में समाचारपत्रों या कहें कि संपूर्ण मीडिया की क्या भूमिका, मर्यादा और दायित्व होने चाहिए, इसके संकेत पत्रकारिता के प्रति स्वामी विवेकानंद की दृष्टि के अध्ययन से मिलते हैं।