बढ़ता शहरीकरण अमूल्य परंपराओं की दे रहा है बली

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    17-Sep-2022
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hathi pooja
 
दीपक विश्वकर्मा-
हमारी परम्पराएं
 
आज हमारे शहर में महालक्ष्मी पूजन है. कहने को यह लक्ष्मी पूजन है परंतु इस दिन हाथियों की पूजा होती है। इसके पीछे एक पौराणिक कथा भी मिलती है महाभारत काल की। मैं बस इसके छिपे सामाजिक रहस्य की बात करूंगा। गत 8 दिवसों में हम मूषक(चूहा) पूज चुके हैं, वराह पूज चुके हैं, कुत्ता, गाय, कौआ और आज हाथी। चंद दिनों बाद सिंह और सिंह वाहिनी की भी पूजन करेंगे।
 
यह मात्र तीज त्यौहार नहीं अपितु पूर्वजों (पुरखों) द्वारा हमें प्रकृति से जोड़ने एकात्म करने की उत्तम पहलें, योजनाएं थीं। आज सुबह - सुबह मोहल्ले की एक माताजी जो कि कुम्हार हैं यह मिट्टी का हाथी लेकर आईं। लगभग प्रत्येक घर में हाथी पूजा का हाथी वही पहुँचातीं हैं। क्योकि हमारे यहाँ गणराज उपलब्ध नहीं हो पाते अतैव हम सांकेतिक गणराज की पूजन करते हैं। जहां गणराज उपलब्ध होते हैं वहाँ उनकी पूजन की जाती है।
 
उनका श्रृंगार किया जाता है। ग्रास और भोजन दिया जाता है। महावत को भी उपहार, वस्त्रादि प्रदान किए जाते हैं। क्या है न कि हम पिछड़े, अनपढ़, गंवार लोग हैं, बम गोला बारूद नहीं जानते सो फल, पकवान, व्यंजन इत्यादि खिलाकर ही हाथी पूजते हैं, कहीं-कहीं 96-97-98% तक साक्षरता वाले पढ़े लिखे लोग उन्हें गोला, बारूद, बम आदि भी खिलाते हैं, गत वर्षों में हमने देखा है।
  
दरअसल यह हमारे पूर्वजों द्वारा प्रकृति और सभी जीवों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए किए गए जतनों का हिस्सा हैं। कभी किसी त्यौहार के माध्यम से,, कभी किसी मेले के माध्यम से, कभी किसी व्रत अथवा पूजा के माध्यम से।
 
तो सुबह गणराज की मिट्टी की प्रतिमा लेकर उक्त माताजी आईं, उन्हें खाली हाथ नहीं लौटाया जाता। न ही बाजारू पद्धति की तरह 10-20 रूपए देकर इतिश्री की जाती है। सर्वप्रथम इसके बदले उन्हें "सीधा" दिया जाता है। "सीधा" अर्थात भोजन सामग्री, जिसमें व्यक्ति इच्छा और सामर्थ्य अनुसार आटा, दाल, सब्जी, मिर्च - मसाले इत्यादि उन्हें प्रदान करते हैं। यानी कि आज भी हमारे पास दुनिया की सबसे पुरानी विनिमय प्रणाली सुचारू रूप से मिलती है, जिसे की वस्तु विनिमय कहा जाता है।
 
संध्याकाल में सभी गृहणियां उनकी पूजन करती हैं और पूजन उपरांत उनका जो भी श्रृंगार किया जाता है पकवानों से वह भी कुम्हार को ही दान किया जाता है। यह एक परंपरा है मिल -बांटकर खाने की " सहना ववतु , सहनौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।" वाली पंक्तियाँ इस तरह सार्थक होती हैं।
 
हमारी यही परम्पराएं सभी वर्गों का ध्यान रखती हैं। हमारे पुरखे एक बात कहते हैं "भूखे भजन न होय गोपाला" सो गोपाल ने इस सनातन में सम्मिलित हर वर्ग बिंदु के लिए भोजन राशन की व्यवस्था बनाई है।
 
इस प्रक्रमों से कुम्हारों को वर्षभर रोजगार मिलता है। अभी हाथी के निर्माण पश्चात , दुर्गा प्रतिमाएं उनको रोजगार देती हैं।उसके पश्चात दीवाली की लक्ष्मी प्रतिमाएं और दीपकों का निर्माण। उसके पश्चात बर्तन इत्यादि। गर्मियों में मटके , कुल्लड़ इत्यादि फिर लौटकर गणपति प्रतिमाएं। यानी वर्ष भर इन तीज त्यौहारों से उनकी रोजी रोटी होती है।
 
इस तरह एक कुम्हार को हमारे तीज - त्यौहार वर्ष भर रोजगार प्रदान करते रहते हैं। इस तरह हम " सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामय:।" सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , मा कश्चिद दुखभाग भवेत।।" की परंपरा को सार्थक करते हैं।
 
परंतु आज बढ़ता शहरीकरण इन अमूल्य परंपराओं की बली लेता जा रहा है। क्योकि विकास अकेला नहीं आता। न जाने कितने ही रिश्तों, नातों, परंपराओं,की बलि लेता है। फिर किसी दिन कुछ अतिपढ़ ,कुबुद्धिजीवी वैचारिक गरीब लोग हमे मानवता के प्रवचन देते हैं।
 
कुछ लोग इन परंपराओं को अंधविश्वास से जोड़ देते हैं। सो मुझे उन लम्पटों, धूर्तों से बस यही कहना है कि, वो हर रीति-रिवाज, परंपरा हमारे लिए धर्म ही है जो लाखों करोड़ लोगों को 2 समय की रोटी दिला सके। उन्हें स्वरोजगार उपलब्ध करा सके, उन्हें सम्मानजनक जीवन स्तर दे सके। दुनिया में इससे बड़ा कोई धर्म नहीं है, और यही सनातन धर्म है। हर हाथ कला- कौशल, हर हाथ स्वरोजगार- यही है सत्य सनातन का आधार।